(१ )कबीरा खड़ा बज़ार में ,चाहे सबकी खैर ,
न काहू से दोस्ती ,न काहू से बैर।
खुले बाज़ार में खड़ा ,बाजार की ताकतों के सामने खड़ा मैं सबका कल्याण चाहता हूँ। न मेरा यहाँ कोई सगा सम्बन्धी हैं न बैरी।
कबीर हिन्दू मुसलमान सब के थे और सब कबीर के थे। न वह मंदिर जाते थे इबादत के लिए न सजदे के लिए मस्जिद। वह तो धर्म के कर्म कांडी स्वरूप से ऊपर उठ चुके थे। इबादत उनके लिए भाव का भावना का द्वार था। वह सब मजहबी बहस मुबाहिसे से ऊपर थे। उन्हें लगा अपने सिद्धांतों को समझाने का उपयुक्त स्थान बाज़ार ही हो सकता ही जहां सब सम्प्रदायों मजहबों के लोग आते जाते हैं। वह ताउम्र सत्य के ही अन्वेषक और प्रचारक रहे किसी धर्म या जाति विशेष के नहीं। सही मायने में कबीर सेकुलर थे। सर्व धर्म समभावी। सर्व ग्राही भारतीय संस्कृति के पोषक और संवर्धक थे कबीर।
(२ )चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय ,
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
कबीर कहते हैं जो इस संसार रुपी चक्की के दो पाटों के बीच फंस गया उसकी फिर गति नहीं होती। मैं इस स्थिति का आकलन कर कई मर्तबा रो चुका हूँ।
दो पुर का जीवन द्वंद्व से भरा है। सुख और दुःख ,हानि -लाभ मृत्यु जन्म ,सच और झूठ ,पाप और पुण्य ,प्रेम और घृणा ,गुण -अवगुण के बीच में जो फंस गया उस की नियति फिर उस अनाज की तरह हो जाती है जो चक्की के दो पाटों के बीच पिसता है। केवल धुरी के नीचे ही कुछ दाने बचते हैं। धुरी ही स्थिर रहती है। जो परमात्मा की तरह स्थिर बनी रहती है केवल उसके पास के कुछ दाने ही पीसे जाने से बचते हैं अर्थात जो प्रभु की शरण में आ जाता वही सद -गति को जीवन मुक्ति को प्राप्त होता है शेष इस संसार चक्की में पिसते रहते हैं।
जो इन विपरीत ध्रुव वाली चीज़ों में सम भाव बनाए रहता है वही जीवन में मुक्ति को प्राप्त कर आवागमन के चक्र से छूट सकता है।
न काहू से दोस्ती ,न काहू से बैर।
खुले बाज़ार में खड़ा ,बाजार की ताकतों के सामने खड़ा मैं सबका कल्याण चाहता हूँ। न मेरा यहाँ कोई सगा सम्बन्धी हैं न बैरी।
कबीर हिन्दू मुसलमान सब के थे और सब कबीर के थे। न वह मंदिर जाते थे इबादत के लिए न सजदे के लिए मस्जिद। वह तो धर्म के कर्म कांडी स्वरूप से ऊपर उठ चुके थे। इबादत उनके लिए भाव का भावना का द्वार था। वह सब मजहबी बहस मुबाहिसे से ऊपर थे। उन्हें लगा अपने सिद्धांतों को समझाने का उपयुक्त स्थान बाज़ार ही हो सकता ही जहां सब सम्प्रदायों मजहबों के लोग आते जाते हैं। वह ताउम्र सत्य के ही अन्वेषक और प्रचारक रहे किसी धर्म या जाति विशेष के नहीं। सही मायने में कबीर सेकुलर थे। सर्व धर्म समभावी। सर्व ग्राही भारतीय संस्कृति के पोषक और संवर्धक थे कबीर।
(२ )चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय ,
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
कबीर कहते हैं जो इस संसार रुपी चक्की के दो पाटों के बीच फंस गया उसकी फिर गति नहीं होती। मैं इस स्थिति का आकलन कर कई मर्तबा रो चुका हूँ।
दो पुर का जीवन द्वंद्व से भरा है। सुख और दुःख ,हानि -लाभ मृत्यु जन्म ,सच और झूठ ,पाप और पुण्य ,प्रेम और घृणा ,गुण -अवगुण के बीच में जो फंस गया उस की नियति फिर उस अनाज की तरह हो जाती है जो चक्की के दो पाटों के बीच पिसता है। केवल धुरी के नीचे ही कुछ दाने बचते हैं। धुरी ही स्थिर रहती है। जो परमात्मा की तरह स्थिर बनी रहती है केवल उसके पास के कुछ दाने ही पीसे जाने से बचते हैं अर्थात जो प्रभु की शरण में आ जाता वही सद -गति को जीवन मुक्ति को प्राप्त होता है शेष इस संसार चक्की में पिसते रहते हैं।
जो इन विपरीत ध्रुव वाली चीज़ों में सम भाव बनाए रहता है वही जीवन में मुक्ति को प्राप्त कर आवागमन के चक्र से छूट सकता है।
4 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रस्तुति! हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} की पहली चर्चा हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती -- हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल चर्चा : अंक-001 में आपका सह्य दिल से स्वागत करता है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर .... Lalit Chahar
असली धर्मनिरपेक्ष तो वही थे।
सुंदर और अमृतमय कबीर वाणी.
रामराम.
बहुत सुंदर कबीर जी की अमृत वाणी ,,,
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