श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय( श्लोक ६६ -७० )
नास्ति बुद्धिर युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ,
न चाभावयत : शान्तिरशान्तस्य कुत : सुखम1.
(६ ६ )(ईशवर से) अ -युक्त मनुष्य के अंत :करण में न ईश्वर का ज्ञान होता है ,न ईश्वर की भावना ही। भावना हीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ ?
(६७ )जैसे जल में तैरती नाव को तूफ़ान उसके लक्ष्य से दूर धकेल देता है वैसे ही इन्द्रिय -सुख मनुष्य की बुद्धि को गलत रास्ते की ओर ले जाता है।
(६८ )इसलिए ,हे अर्जुन ,जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा विषयों के वश में नहीं होती हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।
(६९ )सब प्राणियों के लिए जो यात्री है ,उसमें संयमी मनुष्य जागा रहता है ;और जब साधारण मनुष्य जागते हैं ,तत्वदर्शी मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है।
(७० )जैसे सभी नदियों के जल समुद्र को विचलित किए बिना परिपूर्ण समुद्र में समा जाते हैं ,वैसे ही सब भोग जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह मनुष्य शान्ति प्राप्त करता है ,न कि भोगों की कामना करने वाला।
भाव विस्तार : जो व्यक्ति अन्दर से अशांत है उसके पास सुख कहाँ। फिर शान्ति भी कहाँ से आयेगी उसके पास। ४२० लोगों के पास तामसिक बुद्धि है। वह बुद्धि सात्विक होती है जो हमें ईश्वर की तरफ ले जाती है अध्यात्म की ओर तत्व ज्ञान की ओर ले जाती है ,पवित्रता की तरफ ले जाती है। जो व्यक्ति सद मार्ग से जुड़ा हुआ नहीं है परमात्मा से जुड़ा न होकर संसार से जुड़ा हुआ है उसके पास सत्य से प्रेरित बुद्धि नहीं होती। जो व्यक्ति अच्छे गुणों से भरा हुआ है वही योग्य है। जब हमारे पास ये सब गुण नहीं होंगें तब हमें त्रिकाल में भी सुख -शांति नहीं मिलेगी। जिसके जीवन में विवेक और सदबुद्धि का अभाव है वह व्यक्ति अन्दर से अशांत होगा।
जैसे जल में चलने वाली नाव को झंझा अपनी ओर खींच लेती है अपनी ओर बहाके ले जाती है वैसे ही विषयों में विचरण करती इन्द्रियों में से मन जिसके साथ रहता है ,बुद्धि भी फिर भ्रष्ट होकर उसी तरफ चल देती है। वही इन्द्रिय सक्रीय हो जाती है जिसे मन की शह मिलती है। इसलिए बहुत सावधानी के साथ मनुष्य को पदार्थ में इन्द्रियों के विषयों में विचरण करना चाहिए . मन अयोग्य व्यक्ति की बुद्धि को वश में कर लेता है। वैसे ही जैसे तेज़ हवा तूफ़ान नाव को अपनी ओर खींच ले जाती है। जैसे भोजन स्वादिष्ट होने पर जीभ कहती है वाह क्या बात है ,मन कहता है चलो और आने दो ,बुद्धि भी उसी पाले में फिर खिसक के चली आती है।
भगवान् कहते हैं ,हे महाबाहु जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ हर प्रकार के विषयों से सदबुद्धि ,सत संग ,द्वारा कंट्रोल कर ली गईं हैं उसी की बुद्धि स्थिर होगी। व्यक्ति के जीवन की नाव फिर भगवान् की ओर लगेगी। संसार के विषयों के जो पदार्थ हैं वह उस पर हावी न होंगे। क्योंकि महापुरुषों और शाश्त्रों का ज्ञान उसके संग हैं।
भगवान् कह रहे हैं जो काल सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि के समान है उसमें स्थित प्रज्ञा जागता है। प्रभु स्मरण करता है क्योंकि रात के समय प्रकृति भी शांत होती है टेलीफोन काल भी जल्दी लग जाती है। भक्ति का उपयुक्त समय रात्रि ही है। रात में रास्ता भी जल्दी कटता है दिन में तरह तरह की चीज़ें रोकती हैं। रात में ध्यान जल्दी लगता है।
जबकि सांसारिक व्यक्ति उस समय विषयों का चिंतन करता है सुख भोग की योजनायें बनाता है। यहाँ बात अज्ञान की रात्रि की हो रही है ज्ञान के प्रकाश के दिन की हो रही है। परमात्मा के प्रकाश को जान लेने वाले साधक के लिए दिन रात के समान है।जिनके पीछे ,जिन चीज़ों के पीछे सांसारिक प्राणि दिन भर भागते रहते हैं साधक उनके प्रति अनासक्त रहता है। यहाँ मोह रूपा रात और ज्ञान रूपी दिन की बात हो रही है। जब तमोगुणी लोग (रात में )सो जाते हैं साधक परमात्मा की प्राप्ति के लिए तप करता है। उसका प्रयत्न सार्थक होता है।
जिस प्रकार नदी अपने मार्ग में आये लकड़ी आदि पदार्थों को बहा के ले जाती है ,उसी प्रकार कामनाओं की नदी की प्रचंड (वेगवती )धारा भी ,उद्दाम आवेग भी भौतिक वादी (पदार्थ का चिंतन करने वाले )व्यक्ति के मन को बहाकर ले जाती है। योगी का मन उस प्रशांत महा सागर की तरह हैं ,जिसमें कामनाओं की सरिताएं बिना उसे मथे ,बिना आंदोलित किए समाहित हो जाती हैं। मानव कामनाएं अन्नत हैं कामनाओं की पूर्ती का प्रयास पेट्रोल द्वारा आग बुझाने जैसा है। शर्बत और पेप्सी से प्यास बुझती नहीं है और बढ़ जाती है।
काम वासनाओं की पूर्ती करना वैसा ही है जैसा और लकड़ी डालकर आग को बुझाना। लकड़ी न डालने से आग स्वत : ही बुझ जाती है। यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं की पूर्ती किए बिना शरीर छोड़ देता है मर जाता है फिर उसे इनकी पूर्ती के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है।जब तक के वह अपने मन को जीत न ले। जो मन को जीत लेता है वह जनम मरण से मुक्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। आंदोलित व्यक्ति झील के जल में चाँद ढूँढने के लिए उसे पकड़ने के लिए उसमें छलांग लगा देता है वहां चाँद नहीं है। व्यक्ति वासनाओं के जल में डूब जाता है। ईश्वर की प्राप्ति आंदोलित मन को पराजित मन को नहीं होती है।
ॐ शान्ति
नास्ति बुद्धिर युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ,
न चाभावयत : शान्तिरशान्तस्य कुत : सुखम1.
(६ ६ )(ईशवर से) अ -युक्त मनुष्य के अंत :करण में न ईश्वर का ज्ञान होता है ,न ईश्वर की भावना ही। भावना हीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ ?
(६७ )जैसे जल में तैरती नाव को तूफ़ान उसके लक्ष्य से दूर धकेल देता है वैसे ही इन्द्रिय -सुख मनुष्य की बुद्धि को गलत रास्ते की ओर ले जाता है।
(६८ )इसलिए ,हे अर्जुन ,जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा विषयों के वश में नहीं होती हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।
(६९ )सब प्राणियों के लिए जो यात्री है ,उसमें संयमी मनुष्य जागा रहता है ;और जब साधारण मनुष्य जागते हैं ,तत्वदर्शी मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है।
(७० )जैसे सभी नदियों के जल समुद्र को विचलित किए बिना परिपूर्ण समुद्र में समा जाते हैं ,वैसे ही सब भोग जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह मनुष्य शान्ति प्राप्त करता है ,न कि भोगों की कामना करने वाला।
भाव विस्तार : जो व्यक्ति अन्दर से अशांत है उसके पास सुख कहाँ। फिर शान्ति भी कहाँ से आयेगी उसके पास। ४२० लोगों के पास तामसिक बुद्धि है। वह बुद्धि सात्विक होती है जो हमें ईश्वर की तरफ ले जाती है अध्यात्म की ओर तत्व ज्ञान की ओर ले जाती है ,पवित्रता की तरफ ले जाती है। जो व्यक्ति सद मार्ग से जुड़ा हुआ नहीं है परमात्मा से जुड़ा न होकर संसार से जुड़ा हुआ है उसके पास सत्य से प्रेरित बुद्धि नहीं होती। जो व्यक्ति अच्छे गुणों से भरा हुआ है वही योग्य है। जब हमारे पास ये सब गुण नहीं होंगें तब हमें त्रिकाल में भी सुख -शांति नहीं मिलेगी। जिसके जीवन में विवेक और सदबुद्धि का अभाव है वह व्यक्ति अन्दर से अशांत होगा।
जैसे जल में चलने वाली नाव को झंझा अपनी ओर खींच लेती है अपनी ओर बहाके ले जाती है वैसे ही विषयों में विचरण करती इन्द्रियों में से मन जिसके साथ रहता है ,बुद्धि भी फिर भ्रष्ट होकर उसी तरफ चल देती है। वही इन्द्रिय सक्रीय हो जाती है जिसे मन की शह मिलती है। इसलिए बहुत सावधानी के साथ मनुष्य को पदार्थ में इन्द्रियों के विषयों में विचरण करना चाहिए . मन अयोग्य व्यक्ति की बुद्धि को वश में कर लेता है। वैसे ही जैसे तेज़ हवा तूफ़ान नाव को अपनी ओर खींच ले जाती है। जैसे भोजन स्वादिष्ट होने पर जीभ कहती है वाह क्या बात है ,मन कहता है चलो और आने दो ,बुद्धि भी उसी पाले में फिर खिसक के चली आती है।
भगवान् कहते हैं ,हे महाबाहु जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ हर प्रकार के विषयों से सदबुद्धि ,सत संग ,द्वारा कंट्रोल कर ली गईं हैं उसी की बुद्धि स्थिर होगी। व्यक्ति के जीवन की नाव फिर भगवान् की ओर लगेगी। संसार के विषयों के जो पदार्थ हैं वह उस पर हावी न होंगे। क्योंकि महापुरुषों और शाश्त्रों का ज्ञान उसके संग हैं।
भगवान् कह रहे हैं जो काल सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि के समान है उसमें स्थित प्रज्ञा जागता है। प्रभु स्मरण करता है क्योंकि रात के समय प्रकृति भी शांत होती है टेलीफोन काल भी जल्दी लग जाती है। भक्ति का उपयुक्त समय रात्रि ही है। रात में रास्ता भी जल्दी कटता है दिन में तरह तरह की चीज़ें रोकती हैं। रात में ध्यान जल्दी लगता है।
जबकि सांसारिक व्यक्ति उस समय विषयों का चिंतन करता है सुख भोग की योजनायें बनाता है। यहाँ बात अज्ञान की रात्रि की हो रही है ज्ञान के प्रकाश के दिन की हो रही है। परमात्मा के प्रकाश को जान लेने वाले साधक के लिए दिन रात के समान है।जिनके पीछे ,जिन चीज़ों के पीछे सांसारिक प्राणि दिन भर भागते रहते हैं साधक उनके प्रति अनासक्त रहता है। यहाँ मोह रूपा रात और ज्ञान रूपी दिन की बात हो रही है। जब तमोगुणी लोग (रात में )सो जाते हैं साधक परमात्मा की प्राप्ति के लिए तप करता है। उसका प्रयत्न सार्थक होता है।
जिस प्रकार नदी अपने मार्ग में आये लकड़ी आदि पदार्थों को बहा के ले जाती है ,उसी प्रकार कामनाओं की नदी की प्रचंड (वेगवती )धारा भी ,उद्दाम आवेग भी भौतिक वादी (पदार्थ का चिंतन करने वाले )व्यक्ति के मन को बहाकर ले जाती है। योगी का मन उस प्रशांत महा सागर की तरह हैं ,जिसमें कामनाओं की सरिताएं बिना उसे मथे ,बिना आंदोलित किए समाहित हो जाती हैं। मानव कामनाएं अन्नत हैं कामनाओं की पूर्ती का प्रयास पेट्रोल द्वारा आग बुझाने जैसा है। शर्बत और पेप्सी से प्यास बुझती नहीं है और बढ़ जाती है।
काम वासनाओं की पूर्ती करना वैसा ही है जैसा और लकड़ी डालकर आग को बुझाना। लकड़ी न डालने से आग स्वत : ही बुझ जाती है। यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं की पूर्ती किए बिना शरीर छोड़ देता है मर जाता है फिर उसे इनकी पूर्ती के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है।जब तक के वह अपने मन को जीत न ले। जो मन को जीत लेता है वह जनम मरण से मुक्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। आंदोलित व्यक्ति झील के जल में चाँद ढूँढने के लिए उसे पकड़ने के लिए उसमें छलांग लगा देता है वहां चाँद नहीं है। व्यक्ति वासनाओं के जल में डूब जाता है। ईश्वर की प्राप्ति आंदोलित मन को पराजित मन को नहीं होती है।
ॐ शान्ति
Posted: 29 Aug 2013 10:38 PM PDT
|
Posted: 29 Aug 2013 10:27 PM PDT
|
2 टिप्पणियां:
व्यावहारिक उदाहरणों से युक्त गहरी बात
बढ़िया व्याख्या है -सटीक प्रेरणा
-
शुभकामनायें -भाई साहब
एक टिप्पणी भेजें