कबीर दोहावली भावार्थ सहित (पहली खेप )
(१)भला हुआ मेरी मटकी फूट गई ,
मैं पनिया भरन ते छूट गई।
(२ )बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलिया कोय ,
जो दिल खोजा आपुनो ,तो मुझसा बुरा न कोय।
(३ )कहना था सो कह दिया ,अब कछु कहा न जाय ,
एक गया सो जा रहा ,दरिया लहर समाय।
(४ )लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल ,
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।
(५ )हँस हँस कंत न पाया ,जिन पाया तिन रोय ,
हंसि खेले पिया बिन ,कौन सुहागन होय।
(६ )जाको राखे साइयां मार सके न कोय ,
बाल न बांका कर सके ,जो जग बैरी होय।
(७ ) सुखिया सब संसार है ,खाए और सोये ,
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।
( ८ )जो कछु किया सो तुम किया ,हौं किया कछु नाहिं ,
काहू कहि जो मैं किया ,तुम ही थे मुझ मांहि।
( ९ ) जिनको साईं रंग दिया ,कभी न होय सुरंग ,
जिन जिन पानी आखरि ,चढ़े सवाया रंग।
( १० )ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय ,
नीचा होय तो भर पिये ,ऊंचा प्यासा जाय।
( १ १ )आठ पहर चौंसठ घड़ी ,मेरे और न कोय ,
नैना माहिं तू बसे ,नींद को ठौर न होय।
( १ २ )एक प्रीत से जो मिले ,ताको मिले धाय ,
अंतर राखे जो मिले ,तासे मिले बलाय।
( १ ३ )अब गुरु दिल में देखिया ,गावन को कछु न नाय ,
कबीरा जब हम गावते ,तब जाना गुरु नाय।
( १ ४ )मन लागा उस एक से ,एक भया सब माहिं ,
सब मेरा मैं सबन का ,तेहा दूसरा नाहिं।
( १ ५ )कबीरा ते नर अंध हैं ,गुरु को कहते और ,
हरि रूठे गुरु ठौर है ,गुरु रूठे नहीं ठौर।
( १ ६ )कर्जादा तू क्यों रहा ,अब काहे पछताय ,
बोवे पेड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय।
( १ ७ )यार बुलावे भाव सूँ ,मोसे गयो न जाय ,
दुल्हन मैली ,पिउ उजला ,लाग सकूँ न पायं।
( १ ८ )हरि से भी हरिजन बड़े ,समझ देखि मन माहिं ,
कहे कबीर जग हरि दिखे ,तो हरि हरि जन माहिं।
( १ ९ )कबीरा एक सिन्दूर पुर काजर दिया लगाय ,
नैनं प्रीतम रम रहा ,दूजो कहाँ समाय।
( २ ० ) प्रीत जो लागी घुल गई ,पीठ गई मन माहिं ,
रूम रूम पिउ पिउ कहै ,मुख की श्रृद्धा नाहिं।
( २ १ )जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि है मैं नाहिं ,
जग अंधियारी मिट गया ,जब दीपक देख्यो घट माहिं।
( २ २ )साधु कहावत कठिन है , लम्बा पेड़ खजूर ,
चढ़े तो चाख्ये प्रेम रस ,गिरे तो चकनाचूर।
( २३ )देख पराई चौपड़ी ,मत ललचावे जिये ,
रूखा सूखा खाय के ,ठंडा पानी पिये।
( २ ४ )लिखा लिखी की है नहीं ,देखा देखि बात ,
दुल्हा दुल्हन मिल गए ,फीकी पड़ी बरात।
( २ ५ )जब लग नाता जगत का ,तब लग भगति न होय ,
नाता तोड़े हर भजे ,भगत कहावे सोय.
व्याख्या :
(१ )भला हुआ जो मेरी मटकी फूट गई ,
मैं पनिया भरन ते छूट गई।
मटकी यहाँ शरीर है जिसमें कर्म का पानी भरा है। अब तक मैं (आत्मा
)अपने शरीर को बहुत महत्व देती थी ,शरीर मुझे बहुत प्रिय था। ये अच्छा
हुआ ये शरीर छूट गया मैं आवागमन के चक्कर से छूट गई। शरीर रुपी
मटकी मेरी फूट गई। जैसे रहट में लगी मटकी (पानी की छोटी छोटी
बाल्टियां )का एक ही काम होता है पानी कूएँ से खींच के लाना और उसे
खाली करना ऐसे ही मैं आत्मा कर्म बन्ध से बंधी आवागमन के चक्कर में
फंसी हुई थी। गुरु के ज्ञान से जब मुझे बोध हुआ मैं आत्मा जन्म मरण के
चक्र से मुक्त हो गई। मटकी मेरा शरीर था स्वरूप नहीं था मैं अब इस
तथ्य को समझ गया हूँ। अब तक मैं आत्मा के स्वरूप को समझ नहीं पाया
था। गुरु की कृपा से अब मैं यह तथ्य जान गया हूँ।
विशेष :आत्मा संस्कृत साहित्य में पुल्लिंग बतलाई गई है व्यवहार में
आने पर यह स्त्रीलिंग हो जाती है जैसे यह कहा जाता है मेरी आत्मा अब
बहुत दुखी हो गई है ,थक गई है हार गई है यह नहीं कहा जाता है आत्मा
दुखी हो गया है।
(२ )बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलिया कोय ,
जो दिल खोजा आपुनो ,तो मुझसा बुरा न कोय।
मैंने जब अपने दिल के अन्दर देखा ,अपने कर्मों का लेखा जोखा लिया
,पता चला सबसे खोटे कर्म तो मेरे ही हैं। अब मुझे बाहर के किसी व्यक्ति
में खोट दिखलाई नहीं देता है सब अच्छे ही अच्छे दि खते हैं। दूसरे की
बुराई देखने में ही (व्यर्थ संकल्पों में ही )जीवन व्यर्थ हो जाता है।ये दृष्टि
मुझे मेरे गुरु ने ही दी है।
(३ )कहना था सो कह दिया ,अब कछु कहा न जाय ,
एक गया सो जा रहा ,दरिया लहर समाय।
गुरु की भूमिका है इस दोहे में शिष्य को समझाने की :आत्मा के बारे में
मुझे जो भी ज्ञान मिला मैंने सब तुम्हें बता दिया। यह आत्मा तत्व इतना
गूढ़ है इससे ज्यादा इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
जब कोई आत्मा शरीर छोड़ के जाता है उसका जाना ऐसे ही है जैसे लहर
दरिया में समाके दरिया का ही रूप हो जाती है। वैसे ही आत्मा परमात्मा में
समा जाती है। गुरु के ज्ञान को अनुभूति का विषय बनाना चाहिए
व्याख्यान का नहीं। वह तो अनुभव का विषय है व्याख्यान का विषय नहीं
है।
इसलिए गुरु कहते हैं जो कुछ कहना था परमात्मा के बारे में सो कह दिया।
अब तुम परमात्मा के स्वरूप को अपनी अनुभूति का विषय बनाओ। आत्म
तत्व ईश्वर तत्व के विषय में जो कुछ अब तक कह दिया गया है गुरु द्वारा
शाश्त्रों में अब तक जो बतलाया जा चुका है उसे अब तुम अपनी साधना का
विषय बनाओ उसे व्यास पीठ पर बैठ कर समझाने की ज़रुरत नहीं है।
अनुभूति का विषय है वह ज्ञान का नहीं।
(४ )लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल ,
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।
आत्मा कह रही है मेरे परमात्मा का स्वरूप प्रेम मय है। प्रेम का रंग ही
लाल होता है। मैं अपने इष्ट देव के रंग में इतना रंग गई हूँ मुझे अब उनकी
लाली ही दिखलाई देती है हर तरफ। हर जीव में उन्हीं की दी हुई शक्ति के
दर्शन होते हैं। मैं तो अपने परमात्मा की लीला देखने गई थी अब मुझे हर
चीज़ में सर्वत्र उन्हीं का स्वरूप दिखलाई पड़ता है। मैं आत्मा स्वयं उनके
स्वरूप का हिस्सा बन गईं हूँ।
(५ )हँस हँस कंत न पाया ,जिन पाया तिन रोय ,
हंसि खेले पिया बिन ,कौन सुहागन होय।
परमात्मा (कंत ,मेरे प्रियतम को )संसार के सुख वैभव आसक्ति में रहकर
नहीं पाया जा सकता है। उसे पाना हंसी मजाक का खेल नहीं है। आप सिर्फ
संसार के सुख भोगो। उसका ध्यान करो नहीं ,भक्ति करो नहीं उसकी
,उसमें तुम्हारा विश्वाश न हो ,श्रृद्धा न हो और सोचो वह प्रियतम मिल
जाएगा ,ऐसा नहीं हो सकता। जिसने भी उसे पाया है उसके विरह में तपके
,रोके पाया है। विरह की तड़प में ही उसके दर्शन किये हैं।
जो हंसना खेलना है उस संग वह उसके विरह में तपना ही है उसकी स्मृति
उसका बार बार स्मरण करना ही है। उसके विरह में तप करके ही आत्मा
सुख पा सकती है। परमात्मा की याद में आत्मा का बिलखना ही हंसी
खेल है। तभी आत्मा सुहागन कहलाती है।
(६ )जाको राखे साइयां मार सके न कोय ,
बाल न बांका कर सके ,जो जग बैरी होय।
जिसकी रक्षा स्वयं परमात्मा करता है उसे कौन दुःख दे सकता है। जिसकी
परमात्मा रक्षा करना चाहे उसका जीवन कौन ले सकता है भला। उसका
तो कभी भी कहीं भी कुछ भी नुक्सान नहीं होता है चाहे सारा जग बैरी हो
जाए।
(७ ) सुखिया सब संसार है ,खाए और सोये ,
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।
परमात्मा को पाना है तो परमात्मा के विरह में रोना पड़ता है। बिलखना
पड़ता है। जो निशा सब प्राणियों के सुख भोग और सोने के लिए है उसमें
भक्त जागता है। क्योंकि उसके विरह में तड़पते हुए ही उसे पाया जा
सकता है। अपने प्राणों के लिए आकंठ डूब रहे व्यक्ति को जैसे कोई बर्फी
दे तो क्या उसकी जान बचेगी। उसे तो बचाना पड़ेगा। पानी में से बाहर
निकालना पडेगा।वह निकालने वाला एक परमात्मा ही है।ऐसे ही जीव
परमात्मा के बिना बिलखता है।
जो सारे संसार के प्राणि सुख भोगते हैं ,कर्म बंधन के चक्र में फंसे रहते हैं।
मुक्त नहीं होतें हैं। सुख भोग से। मुक्ति के लिए जागना पड़ता है याद में।
रोना पड़ता है पाने के लिये।
शीर्षक की पुष्टि के लिए इसका भी संक्षिप्त भावार्थ पढ़िए :
( १० )ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय ,
नीचा होय तो भर पिये ,ऊंचा प्यासा जाय।
जब व्यक्ति एक दम से निरभिमानी हो जाएगा तभी ज्ञान उसकी बुद्धि
में टिकेगा। जैसे ऊंचाई पर पानी नहीं टिकता वैसे ही ज्ञान तो पानी से
भी ज्यादा तरल और पतला होता है वह अहंकारी व्यक्ति के बुद्धि पात्र
में कैसे टिकेगा। ज्ञान की उसकी प्यास तभी बुझेगी जब वह अहंकार
का त्याग करेगा। तब ही वह तृप्त हो पायेगा।
क्षेपक :
कबीरदास :कुछ चुनिन्दा दोहे भावार्थ सहित
(१ )साहिब मेरा एक है ,दूजो कहा न जाय ,
दूजो साहब जो कहूं। दूजो खड़ो रिझाय।
एक में ही मेरी निष्ठा है। एक ही परमात्मा को मानता हूँ और वह है भी
एक ही।उसी एक का प्रकाश सब में हैं। एक है तो सबका है सारी सृष्टि का
स्वामी है।और सारी सृष्टि उसकी है। उसके दो रूप नहीं हो सकते। दो हुए
फिर
तो मानने वाले भी बंट जायेंगे . उसकी सत्ता भी बंट जायेगी।
(२ )चाह गई चिंता गई ,मनवा बे -परवाह ,
जा को कछु ना चाहिए ,वो ही साहिब रिझाय।
ये जो संसार है यही हमारी चाहत का संसार है इसकी माया में ही हम फंसे
रहते हैं। अपनी इच्छाओं के दास बनके रह गएँ हैं हम. जब ये इच्छाएं पूरी
नहीं होतीं
तब दुःख होता है।ये सिलसिला चाहत का समाप्त ही नहीं होता है। कबीर
कहते हैं इसीलिए हमने तो चाह करना ही छोड़ दिया है जो कुछ देगा वही
ईश्वर (साहिब ) देगा। क्योंकि चाहतें कब पूरी होतीं हैं। यही चाह दुःख का
मूल कारण है।इसलिए इस चाह को ही छोड़ने पर अब कोई चिंता ही नहीं
होती।सचमुच का शहंशाह तो वह है जो कुछ नहीं माँगता ये राजा
(दुनियावी शहंशाह )तो रियाया से कुछ न कुछ माँगता ही रहता है।और
इस
इस राजा की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं।तो ये बे -फ़िक्र बादशाह भी
कैसा
होगा ? वो तो मेरा एक साहिब ही है।
(३ )माली आवत देखि के ,कलियाँ करें पुकार ,
फूलि फूलि सब चुन लै ,काल्हि हमारी बार।
जीवन हमारा काल के अधीन हैं यही काल एक एक करके जो परिपक्व
आयु के प्राणि होते हैं उन्हें ले जाता रहता है। यही सब देखकर कलियाँ भी
अपने
मन का भय व्यक्त करने लगीं हैं। मनुष्य को सबसे बड़ा भय काल का ,
मृत्यु का ,मरण का ही होता है। जो कली फूल बन गई उसे तो माली ले
गया। इस
संसार में जो आता है वह जाता है। काल के प्रवाह में कल को हमारी भी बारी
आ जायेगी।यही संसार का क्रम है और यही सोचकर कलियाँ उदास हैं।
कबीर ने कलियों का मानवीकरण कर दिया है यहाँ।
(४ )जा मरने से जग डरे ,मेरे मन आनंद ,
जब मरिहूँ तब पाइहौं ,पूरण परमानंद।
अगर इस शरीर को ही "मैं "समझोगे अपना "होना" Isness ,Being समझ
लोगे फिर तो मरने से डर लगता रहेगा . जब यह जान लोगे मैं उस
परमात्मा का ही वंश हूँ तब शरीर के स्तर पर घटने वाली बातें भी तंग नहीं
करेंगी। फिर चाहे मृत्यु भी आ जाए। संसार तो शरीर को ही नष्ट होने पर
अपना नाश मान लेता है। कबीर कहतें हैं "मैं आत्मा हूँ "इसलिए मेरे मन
में कोई भय नहीं है।परमानंद है क्योंकि मृत्यु के बाद मैं आत्मा परम
आत्मा से मिल जाऊंगा।विराट सत्ता ईश्वर को पा जाऊंगा। मैं तो मरण
को परम आत्मा की प्राप्ति का एक रास्ता ही मानता हूँ। क्योंकि बिना मरे
तो परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। शरीर का मोह है तो डर है।
(५ )जब हम जग में पग धरयो ,जग हंसौ हम रोये ,
ऐसी करनी कर चलो ,हम हँसे जग रोये।
अब ऐसी करनी करो संसार तुम्हारे बिछुड़ने को लेकर रोये। उस परमात्मा
का बनने का अंश लेकर तुम जाओगे ,कुछ परमार्थ करके जाओगे तो तुम
हंसोगे दुनिया यह कहके रोयेगी -कितना नि:स्वार्थी था।
(६ )साहिब से सब होत है ,बंदे से कछु नाहिं ,
राई से परबत करे ,परबत राई माहिँ।
इस संसार का प्रेरक और नियंता सिर्फ परमात्मा है। यहाँ जो कुछ होता है
उसकी इच्छा से होता है। वही सर्व करता है। जो वह चाहता है वही होता है।
अहंकार वश मनुष्य कहता है,मैं कर रहा हूँ। चलाने वाला तो वह परमात्मा
ही है। चाहे तो सबसे सूक्ष्म को विराट बना दे। परबत को राई बनादे ,राई के
समान सूक्ष्मतम कण को ,अणु को, विराट बना दे। विपरीत ध्रुवों को
मिलादे। एक दूसरे में परिणत कर दे विपरीत ध्रुवों को।
राई में उतना आकार भर सकता है परमात्मा राई परबत लगे और परबत
को सूक्ष्म क्वार्क बना सकता है ,गॉड पारटिकिल बना सकता है इतना
छोटा
जो दिखाई न दे।
(७ )साधु भूखा भाव का ,धन का भूखा नाय ,
धन का भूखा जो फिरे सो तो साधु नाय।
साधयते इति साधु !जो मन की साधना करता है वह संसार के साधनों को
छोड़ेगा। जो धन का भूखा है वह साधु नहीं है।
साधु का अर्थ है संसार की आसक्ति और प्रवृत्ति को ,माया को छोड़कर जो
ईश्वर में मन लगाता है वही साधु है। साधु के अन्दर तो भाव का संसार
रहता है। वह तो जप का भूखा है। संसार की आसक्तियों से परे जाकर जो
परमात्मा में ध्यान को टिकाये रहे वही साधु होता है। जहां भी उसे
परमात्मा के नाम का धन मिलेगा वह उसे लेगा। वरना वह साधु नहीं
स्वादु हो जाएगा। जो संसार का एन्द्रिक स्वाद ले। साधु तो वह है जो
संसार
को अपने मन को साध लेता है।
(८ )प्रेम न बाड़ी उपजे ,प्रेम न हाट बिकाय ,
राजा परजा जेहि रूचे ,शीश धरै लै जाय।
प्रेम की खेती नहीं होती जैसे बीज बाडि में उपजाया जाता है। वहाँ तो बीज
साधन होता है ,फसल साध्य हो जाती है। प्रेम तो अपने आप में साध्य है।
उसका फसल की तरह लाभ नहीं कमाया जाता। अपने अहंकार को मारना
ही प्रेम होता है।जो धन के बल पर अपने ऐश्वर्य का रूतबा दिखाकर दूसरों
को फंसाता है वह प्रेम नहीं होता है। प्रेम को जो साधन मानते हैं वह प्रेम
नहीं हो सकता।जो साधन है वह पदार्थ हो सकता है प्रेम नहीं। वह जो
बाज़ार में मिलता है वह पदार्थ होता है प्रेम नहीं। जो प्रेम के तत्व को
पहचानता है प्रेम क्या होता है वह अपने अहंकार को नष्ट करे। तब उसके
अन्दर प्रेम पैदा होगा। स्वयं का समर्पण अहंकार का त्याग ,स्वार्थ का
सिर
काटना ही प्रेम है।दूसरे के सुख का साधन बनो। औरों की सच्चे मन से
सेवा
हो ,कोई स्वार्थ न हो . इसे प्राप्त करने के लिए करता होने का जो भाव है
करनी का जो अहंकार है वह छोड़ना पड़ता है।
जब मैं था तो खुदा न था ,
"मैं " न होता तो खुदा होता ,
मिटाया मुझको होने ने ,
गर "मैं" न होता ,तो खुदा होता।
ॐ शान्ति
(दूसरी क़िस्त में पढ़िए व्याख्या भाग आठवें दोहे से आगे की ओर )
(१)भला हुआ मेरी मटकी फूट गई ,
मैं पनिया भरन ते छूट गई।
(२ )बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलिया कोय ,
जो दिल खोजा आपुनो ,तो मुझसा बुरा न कोय।
(३ )कहना था सो कह दिया ,अब कछु कहा न जाय ,
एक गया सो जा रहा ,दरिया लहर समाय।
(४ )लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल ,
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।
(५ )हँस हँस कंत न पाया ,जिन पाया तिन रोय ,
हंसि खेले पिया बिन ,कौन सुहागन होय।
(६ )जाको राखे साइयां मार सके न कोय ,
बाल न बांका कर सके ,जो जग बैरी होय।
(७ ) सुखिया सब संसार है ,खाए और सोये ,
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।
( ८ )जो कछु किया सो तुम किया ,हौं किया कछु नाहिं ,
काहू कहि जो मैं किया ,तुम ही थे मुझ मांहि।
( ९ ) जिनको साईं रंग दिया ,कभी न होय सुरंग ,
जिन जिन पानी आखरि ,चढ़े सवाया रंग।
( १० )ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय ,
नीचा होय तो भर पिये ,ऊंचा प्यासा जाय।
( १ १ )आठ पहर चौंसठ घड़ी ,मेरे और न कोय ,
नैना माहिं तू बसे ,नींद को ठौर न होय।
( १ २ )एक प्रीत से जो मिले ,ताको मिले धाय ,
अंतर राखे जो मिले ,तासे मिले बलाय।
( १ ३ )अब गुरु दिल में देखिया ,गावन को कछु न नाय ,
कबीरा जब हम गावते ,तब जाना गुरु नाय।
( १ ४ )मन लागा उस एक से ,एक भया सब माहिं ,
सब मेरा मैं सबन का ,तेहा दूसरा नाहिं।
( १ ५ )कबीरा ते नर अंध हैं ,गुरु को कहते और ,
हरि रूठे गुरु ठौर है ,गुरु रूठे नहीं ठौर।
( १ ६ )कर्जादा तू क्यों रहा ,अब काहे पछताय ,
बोवे पेड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय।
( १ ७ )यार बुलावे भाव सूँ ,मोसे गयो न जाय ,
दुल्हन मैली ,पिउ उजला ,लाग सकूँ न पायं।
( १ ८ )हरि से भी हरिजन बड़े ,समझ देखि मन माहिं ,
कहे कबीर जग हरि दिखे ,तो हरि हरि जन माहिं।
( १ ९ )कबीरा एक सिन्दूर पुर काजर दिया लगाय ,
नैनं प्रीतम रम रहा ,दूजो कहाँ समाय।
( २ ० ) प्रीत जो लागी घुल गई ,पीठ गई मन माहिं ,
रूम रूम पिउ पिउ कहै ,मुख की श्रृद्धा नाहिं।
( २ १ )जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि है मैं नाहिं ,
जग अंधियारी मिट गया ,जब दीपक देख्यो घट माहिं।
( २ २ )साधु कहावत कठिन है , लम्बा पेड़ खजूर ,
चढ़े तो चाख्ये प्रेम रस ,गिरे तो चकनाचूर।
( २३ )देख पराई चौपड़ी ,मत ललचावे जिये ,
रूखा सूखा खाय के ,ठंडा पानी पिये।
( २ ४ )लिखा लिखी की है नहीं ,देखा देखि बात ,
दुल्हा दुल्हन मिल गए ,फीकी पड़ी बरात।
( २ ५ )जब लग नाता जगत का ,तब लग भगति न होय ,
नाता तोड़े हर भजे ,भगत कहावे सोय.
व्याख्या :
(१ )भला हुआ जो मेरी मटकी फूट गई ,
मैं पनिया भरन ते छूट गई।
मटकी यहाँ शरीर है जिसमें कर्म का पानी भरा है। अब तक मैं (आत्मा
)अपने शरीर को बहुत महत्व देती थी ,शरीर मुझे बहुत प्रिय था। ये अच्छा
हुआ ये शरीर छूट गया मैं आवागमन के चक्कर से छूट गई। शरीर रुपी
मटकी मेरी फूट गई। जैसे रहट में लगी मटकी (पानी की छोटी छोटी
बाल्टियां )का एक ही काम होता है पानी कूएँ से खींच के लाना और उसे
खाली करना ऐसे ही मैं आत्मा कर्म बन्ध से बंधी आवागमन के चक्कर में
फंसी हुई थी। गुरु के ज्ञान से जब मुझे बोध हुआ मैं आत्मा जन्म मरण के
चक्र से मुक्त हो गई। मटकी मेरा शरीर था स्वरूप नहीं था मैं अब इस
तथ्य को समझ गया हूँ। अब तक मैं आत्मा के स्वरूप को समझ नहीं पाया
था। गुरु की कृपा से अब मैं यह तथ्य जान गया हूँ।
विशेष :आत्मा संस्कृत साहित्य में पुल्लिंग बतलाई गई है व्यवहार में
आने पर यह स्त्रीलिंग हो जाती है जैसे यह कहा जाता है मेरी आत्मा अब
बहुत दुखी हो गई है ,थक गई है हार गई है यह नहीं कहा जाता है आत्मा
दुखी हो गया है।
(२ )बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलिया कोय ,
जो दिल खोजा आपुनो ,तो मुझसा बुरा न कोय।
मैंने जब अपने दिल के अन्दर देखा ,अपने कर्मों का लेखा जोखा लिया
,पता चला सबसे खोटे कर्म तो मेरे ही हैं। अब मुझे बाहर के किसी व्यक्ति
में खोट दिखलाई नहीं देता है सब अच्छे ही अच्छे दि खते हैं। दूसरे की
बुराई देखने में ही (व्यर्थ संकल्पों में ही )जीवन व्यर्थ हो जाता है।ये दृष्टि
मुझे मेरे गुरु ने ही दी है।
(३ )कहना था सो कह दिया ,अब कछु कहा न जाय ,
एक गया सो जा रहा ,दरिया लहर समाय।
गुरु की भूमिका है इस दोहे में शिष्य को समझाने की :आत्मा के बारे में
मुझे जो भी ज्ञान मिला मैंने सब तुम्हें बता दिया। यह आत्मा तत्व इतना
गूढ़ है इससे ज्यादा इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
जब कोई आत्मा शरीर छोड़ के जाता है उसका जाना ऐसे ही है जैसे लहर
दरिया में समाके दरिया का ही रूप हो जाती है। वैसे ही आत्मा परमात्मा में
समा जाती है। गुरु के ज्ञान को अनुभूति का विषय बनाना चाहिए
व्याख्यान का नहीं। वह तो अनुभव का विषय है व्याख्यान का विषय नहीं
है।
इसलिए गुरु कहते हैं जो कुछ कहना था परमात्मा के बारे में सो कह दिया।
अब तुम परमात्मा के स्वरूप को अपनी अनुभूति का विषय बनाओ। आत्म
तत्व ईश्वर तत्व के विषय में जो कुछ अब तक कह दिया गया है गुरु द्वारा
शाश्त्रों में अब तक जो बतलाया जा चुका है उसे अब तुम अपनी साधना का
विषय बनाओ उसे व्यास पीठ पर बैठ कर समझाने की ज़रुरत नहीं है।
अनुभूति का विषय है वह ज्ञान का नहीं।
(४ )लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल ,
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।
आत्मा कह रही है मेरे परमात्मा का स्वरूप प्रेम मय है। प्रेम का रंग ही
लाल होता है। मैं अपने इष्ट देव के रंग में इतना रंग गई हूँ मुझे अब उनकी
लाली ही दिखलाई देती है हर तरफ। हर जीव में उन्हीं की दी हुई शक्ति के
दर्शन होते हैं। मैं तो अपने परमात्मा की लीला देखने गई थी अब मुझे हर
चीज़ में सर्वत्र उन्हीं का स्वरूप दिखलाई पड़ता है। मैं आत्मा स्वयं उनके
स्वरूप का हिस्सा बन गईं हूँ।
(५ )हँस हँस कंत न पाया ,जिन पाया तिन रोय ,
हंसि खेले पिया बिन ,कौन सुहागन होय।
परमात्मा (कंत ,मेरे प्रियतम को )संसार के सुख वैभव आसक्ति में रहकर
नहीं पाया जा सकता है। उसे पाना हंसी मजाक का खेल नहीं है। आप सिर्फ
संसार के सुख भोगो। उसका ध्यान करो नहीं ,भक्ति करो नहीं उसकी
,उसमें तुम्हारा विश्वाश न हो ,श्रृद्धा न हो और सोचो वह प्रियतम मिल
जाएगा ,ऐसा नहीं हो सकता। जिसने भी उसे पाया है उसके विरह में तपके
,रोके पाया है। विरह की तड़प में ही उसके दर्शन किये हैं।
जो हंसना खेलना है उस संग वह उसके विरह में तपना ही है उसकी स्मृति
उसका बार बार स्मरण करना ही है। उसके विरह में तप करके ही आत्मा
सुख पा सकती है। परमात्मा की याद में आत्मा का बिलखना ही हंसी
खेल है। तभी आत्मा सुहागन कहलाती है।
(६ )जाको राखे साइयां मार सके न कोय ,
बाल न बांका कर सके ,जो जग बैरी होय।
जिसकी रक्षा स्वयं परमात्मा करता है उसे कौन दुःख दे सकता है। जिसकी
परमात्मा रक्षा करना चाहे उसका जीवन कौन ले सकता है भला। उसका
तो कभी भी कहीं भी कुछ भी नुक्सान नहीं होता है चाहे सारा जग बैरी हो
जाए।
(७ ) सुखिया सब संसार है ,खाए और सोये ,
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।
परमात्मा को पाना है तो परमात्मा के विरह में रोना पड़ता है। बिलखना
पड़ता है। जो निशा सब प्राणियों के सुख भोग और सोने के लिए है उसमें
भक्त जागता है। क्योंकि उसके विरह में तड़पते हुए ही उसे पाया जा
सकता है। अपने प्राणों के लिए आकंठ डूब रहे व्यक्ति को जैसे कोई बर्फी
दे तो क्या उसकी जान बचेगी। उसे तो बचाना पड़ेगा। पानी में से बाहर
निकालना पडेगा।वह निकालने वाला एक परमात्मा ही है।ऐसे ही जीव
परमात्मा के बिना बिलखता है।
जो सारे संसार के प्राणि सुख भोगते हैं ,कर्म बंधन के चक्र में फंसे रहते हैं।
मुक्त नहीं होतें हैं। सुख भोग से। मुक्ति के लिए जागना पड़ता है याद में।
रोना पड़ता है पाने के लिये।
शीर्षक की पुष्टि के लिए इसका भी संक्षिप्त भावार्थ पढ़िए :
( १० )ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय ,
नीचा होय तो भर पिये ,ऊंचा प्यासा जाय।
जब व्यक्ति एक दम से निरभिमानी हो जाएगा तभी ज्ञान उसकी बुद्धि
में टिकेगा। जैसे ऊंचाई पर पानी नहीं टिकता वैसे ही ज्ञान तो पानी से
भी ज्यादा तरल और पतला होता है वह अहंकारी व्यक्ति के बुद्धि पात्र
में कैसे टिकेगा। ज्ञान की उसकी प्यास तभी बुझेगी जब वह अहंकार
का त्याग करेगा। तब ही वह तृप्त हो पायेगा।
क्षेपक :
कबीरदास :कुछ चुनिन्दा दोहे भावार्थ सहित
(१ )साहिब मेरा एक है ,दूजो कहा न जाय ,
दूजो साहब जो कहूं। दूजो खड़ो रिझाय।
एक में ही मेरी निष्ठा है। एक ही परमात्मा को मानता हूँ और वह है भी
एक ही।उसी एक का प्रकाश सब में हैं। एक है तो सबका है सारी सृष्टि का
स्वामी है।और सारी सृष्टि उसकी है। उसके दो रूप नहीं हो सकते। दो हुए
फिर
तो मानने वाले भी बंट जायेंगे . उसकी सत्ता भी बंट जायेगी।
(२ )चाह गई चिंता गई ,मनवा बे -परवाह ,
जा को कछु ना चाहिए ,वो ही साहिब रिझाय।
ये जो संसार है यही हमारी चाहत का संसार है इसकी माया में ही हम फंसे
रहते हैं। अपनी इच्छाओं के दास बनके रह गएँ हैं हम. जब ये इच्छाएं पूरी
नहीं होतीं
तब दुःख होता है।ये सिलसिला चाहत का समाप्त ही नहीं होता है। कबीर
कहते हैं इसीलिए हमने तो चाह करना ही छोड़ दिया है जो कुछ देगा वही
ईश्वर (साहिब ) देगा। क्योंकि चाहतें कब पूरी होतीं हैं। यही चाह दुःख का
मूल कारण है।इसलिए इस चाह को ही छोड़ने पर अब कोई चिंता ही नहीं
होती।सचमुच का शहंशाह तो वह है जो कुछ नहीं माँगता ये राजा
(दुनियावी शहंशाह )तो रियाया से कुछ न कुछ माँगता ही रहता है।और
इस
इस राजा की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं।तो ये बे -फ़िक्र बादशाह भी
कैसा
होगा ? वो तो मेरा एक साहिब ही है।
(३ )माली आवत देखि के ,कलियाँ करें पुकार ,
फूलि फूलि सब चुन लै ,काल्हि हमारी बार।
जीवन हमारा काल के अधीन हैं यही काल एक एक करके जो परिपक्व
आयु के प्राणि होते हैं उन्हें ले जाता रहता है। यही सब देखकर कलियाँ भी
अपने
मन का भय व्यक्त करने लगीं हैं। मनुष्य को सबसे बड़ा भय काल का ,
मृत्यु का ,मरण का ही होता है। जो कली फूल बन गई उसे तो माली ले
गया। इस
संसार में जो आता है वह जाता है। काल के प्रवाह में कल को हमारी भी बारी
आ जायेगी।यही संसार का क्रम है और यही सोचकर कलियाँ उदास हैं।
कबीर ने कलियों का मानवीकरण कर दिया है यहाँ।
(४ )जा मरने से जग डरे ,मेरे मन आनंद ,
जब मरिहूँ तब पाइहौं ,पूरण परमानंद।
अगर इस शरीर को ही "मैं "समझोगे अपना "होना" Isness ,Being समझ
लोगे फिर तो मरने से डर लगता रहेगा . जब यह जान लोगे मैं उस
परमात्मा का ही वंश हूँ तब शरीर के स्तर पर घटने वाली बातें भी तंग नहीं
करेंगी। फिर चाहे मृत्यु भी आ जाए। संसार तो शरीर को ही नष्ट होने पर
अपना नाश मान लेता है। कबीर कहतें हैं "मैं आत्मा हूँ "इसलिए मेरे मन
में कोई भय नहीं है।परमानंद है क्योंकि मृत्यु के बाद मैं आत्मा परम
आत्मा से मिल जाऊंगा।विराट सत्ता ईश्वर को पा जाऊंगा। मैं तो मरण
को परम आत्मा की प्राप्ति का एक रास्ता ही मानता हूँ। क्योंकि बिना मरे
तो परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। शरीर का मोह है तो डर है।
(५ )जब हम जग में पग धरयो ,जग हंसौ हम रोये ,
ऐसी करनी कर चलो ,हम हँसे जग रोये।
अब ऐसी करनी करो संसार तुम्हारे बिछुड़ने को लेकर रोये। उस परमात्मा
का बनने का अंश लेकर तुम जाओगे ,कुछ परमार्थ करके जाओगे तो तुम
हंसोगे दुनिया यह कहके रोयेगी -कितना नि:स्वार्थी था।
(६ )साहिब से सब होत है ,बंदे से कछु नाहिं ,
राई से परबत करे ,परबत राई माहिँ।
इस संसार का प्रेरक और नियंता सिर्फ परमात्मा है। यहाँ जो कुछ होता है
उसकी इच्छा से होता है। वही सर्व करता है। जो वह चाहता है वही होता है।
अहंकार वश मनुष्य कहता है,मैं कर रहा हूँ। चलाने वाला तो वह परमात्मा
ही है। चाहे तो सबसे सूक्ष्म को विराट बना दे। परबत को राई बनादे ,राई के
समान सूक्ष्मतम कण को ,अणु को, विराट बना दे। विपरीत ध्रुवों को
मिलादे। एक दूसरे में परिणत कर दे विपरीत ध्रुवों को।
राई में उतना आकार भर सकता है परमात्मा राई परबत लगे और परबत
को सूक्ष्म क्वार्क बना सकता है ,गॉड पारटिकिल बना सकता है इतना
छोटा
जो दिखाई न दे।
(७ )साधु भूखा भाव का ,धन का भूखा नाय ,
धन का भूखा जो फिरे सो तो साधु नाय।
साधयते इति साधु !जो मन की साधना करता है वह संसार के साधनों को
छोड़ेगा। जो धन का भूखा है वह साधु नहीं है।
साधु का अर्थ है संसार की आसक्ति और प्रवृत्ति को ,माया को छोड़कर जो
ईश्वर में मन लगाता है वही साधु है। साधु के अन्दर तो भाव का संसार
रहता है। वह तो जप का भूखा है। संसार की आसक्तियों से परे जाकर जो
परमात्मा में ध्यान को टिकाये रहे वही साधु होता है। जहां भी उसे
परमात्मा के नाम का धन मिलेगा वह उसे लेगा। वरना वह साधु नहीं
स्वादु हो जाएगा। जो संसार का एन्द्रिक स्वाद ले। साधु तो वह है जो
संसार
को अपने मन को साध लेता है।
(८ )प्रेम न बाड़ी उपजे ,प्रेम न हाट बिकाय ,
राजा परजा जेहि रूचे ,शीश धरै लै जाय।
प्रेम की खेती नहीं होती जैसे बीज बाडि में उपजाया जाता है। वहाँ तो बीज
साधन होता है ,फसल साध्य हो जाती है। प्रेम तो अपने आप में साध्य है।
उसका फसल की तरह लाभ नहीं कमाया जाता। अपने अहंकार को मारना
ही प्रेम होता है।जो धन के बल पर अपने ऐश्वर्य का रूतबा दिखाकर दूसरों
को फंसाता है वह प्रेम नहीं होता है। प्रेम को जो साधन मानते हैं वह प्रेम
नहीं हो सकता।जो साधन है वह पदार्थ हो सकता है प्रेम नहीं। वह जो
बाज़ार में मिलता है वह पदार्थ होता है प्रेम नहीं। जो प्रेम के तत्व को
पहचानता है प्रेम क्या होता है वह अपने अहंकार को नष्ट करे। तब उसके
अन्दर प्रेम पैदा होगा। स्वयं का समर्पण अहंकार का त्याग ,स्वार्थ का
सिर
काटना ही प्रेम है।दूसरे के सुख का साधन बनो। औरों की सच्चे मन से
सेवा
हो ,कोई स्वार्थ न हो . इसे प्राप्त करने के लिए करता होने का जो भाव है
करनी का जो अहंकार है वह छोड़ना पड़ता है।
जब मैं था तो खुदा न था ,
"मैं " न होता तो खुदा होता ,
मिटाया मुझको होने ने ,
गर "मैं" न होता ,तो खुदा होता।
ॐ शान्ति
Gulzar - Kabir By Abida - Saahib Mera Ek Hai - Sung By ... - YouTube
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Apr 14, 2012 - Uploaded by sachinagrawlGulzar - Kabir By Abida - Saahib Mera Ek Hai - Sung By Abida Parveen Speech Gulzar ...
(दूसरी क़िस्त में पढ़िए व्याख्या भाग आठवें दोहे से आगे की ओर )
6 टिप्पणियां:
वाह .... कुछ कहने की स्थिति नहीं है ... बस इस परम आनद में डूबने की चाहत ही बाकी रहती है ....
सर जी , कबीर के बेबाक विचारों को रोशन करती एक बेहतरीन प्रस्तुति ,आज कल रीडिंग में लगभग एक माह के लिए यूनाइटेड किंगडम में , स्नेह और आशीर्वचन ka anurodh
सुन्दर सरस पाठ-
आभार भाई जी-
वाह ! हमने तो दो चार ही पढ़े थे. आपने बहुत सारे पढ़ा दिए , अर्थ सहित। धन्यवाद आपका और शुभकामनायें।
बहुत ही बेहतरीन श्रंखला है, कबीर दर्शन समझ आ रहा है.
रामराम
सच है, ऊँचा प्यासा जाये।
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