कबीर साखियाँ (ज़ारी )
( १) पावक रुपी साइयां ,सब घट रहा समाय ,
चित चकमक लागे नहीं ,ताते बुझि बुझि जाए।
जैसे लकड़ी आग से अलग नहीं है, वैसे ही परमात्मा का हमारे सबके हृदय में वास है वह हमसे अलग नहीं है। उसकी लौ उसका ज्योति स्वरूप ही हमारा भी आत्मिक स्वरूप है हमारी आत्मा का स्वभाव भी पवित्रता है ज्योति शिखा की तरह। परमात्मा की ज्योति घट घट में व्याप्त है। जैसे चकमक पत्थर आग को समाये हुए है लेकिन जबतक उसमें स्फुलिंग पैदा नहीं होगा ऐसे ही जब तक आत्मा में परमात्मा की याद नहीं होगी वह मिलेगा कैसे ?व्यक्ति परमात्मा को तभी प्राप्त होगा जब सद्गुरु उसे परमात्मा से मिलने की विधि बतलायेगा। तब ही चक मक में स्फुलिंग पैदा होगा।
(२ )जिन ढूंढा तिन पाइयां ,गहरे पानी पैठ ,
मैं बौरी (बावरी )डूबन डरहि ,रहै किनारे बैठ।
परमात्मा का स्वरूप समुन्दर की तरह विराट है। यहाँ गहरा पानी ज्ञान का अथाह प्रेम का प्रतीक है।
जो परमात्मा की याद में डूब गया जिसके अस्तित्व का हर कोष यादमय हो गया समझो उसे परमात्मा मिल गया। परमात्म प्राप्ति उसके प्रति प्रेम का विषय है जहां प्रेम है वहां डूबने का भय भी नहीं है। डर अज्ञान का प्रतीक है। जहाँ प्रेम है वहां यह डूबने का अज्ञान भी नहीं है। साधना से ही प्रभु प्राप्ति होती है। हृदय की गहराइयों से उसे प्रेम करना होता है। किनारे पे बैठ तमाशा देखने वालों को भगवान् नहीं मिलते हैं। समुंद में छिपे खनिज कोष को भी गहरे उतर ढूंढना पड़ता है।
(३ )हेरत हेरत हे सखी ,रह्या कबीर हेराय,
बूँद समानी समुंद में ,सो कत हेरी जाय।
कबीर कहते हैं हे सखी उसे ढूंढते ढूंढते मैं बूँद रुपी आत्मा उसी में विलुप्त हो गई। मुझे तभी पता चला मैं तो उसी में थी और वह मुझ में ही था। एक ग्लास पानी समुन्द्र में फेंक दो फिर पानी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। वह समुन्द्र ही कहलायेगा। वैसे ही जब मैंने उसे याद किया तो पता चला वह तो मुझसे अलग था ही नहीं मैं उसमे थी वह मुझ में था। यहाँ अद्वेत दर्शन है। बूँद समुन्द्र से अलग नहीं है। बूँद भी वही है उसी का वंश है।उससे अलग नहीं है।
(४ )बूँद समानी समुंद में ,जानत है सब कोय ,
समुंद समाना बूँद में जाने बिरला कोय।
यहाँ भी अद्वैत भाव है। भगवान् भक्तों के हृदय में ही वास करते हैं। जो उसे अपने से अलग समझते हैं वह अज्ञानी हैं। आशिक और माशूक जब मिलते हैं तो मिलन ही शेष रह जाता है दोनों का अस्तित्व विलीन हो जाता है। असल बात है आत्मा परमात्मा का मिलन। आत्मा सो परमात्मा।
उधौ मोहे संत सदा अति प्यारे ,
मैं संतन के पाछे जाऊं ,संत न मोते न्यारे।
बूँद और समुंद आत्मा और परमात्मा अलग अलग नहीं है। एक सीमित आकाश है -जीव आत्मा और एक महाकाश है परमात्मा। बीच की दीवार हटा दो ,एक ही आकाश रह जाएगा।बूँद है आत्मा समुंद है परमात्मा। आत्मा ,परमात्मा ,ब्रह्म तत्व ,परब्रह्म तीनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं गीता में। जिसके हृदय में परमात्मा की याद है वह परमात्मा मय हो जाता है।द्वेत भाव मिट जाता है।
(५ )नैना अंतर आव तू ,नैना झपि तोहि लेउ ,
ना मैं देखूँ और को ,ना तोहि देखन देउ।
ये जो चरम चक्षु हैं ये ज्ञान का प्रतीक हैं ज्ञान के द्वार हैं। ज्ञान प्राप्त होने पर मनुष्य ईश्वर को पा जाता है फिर इन आँखों को किसी और का रूप नहीं सुहाता इस लौकिक संसार से लंगर उठ जाता है। जैसे आशिक माशूक को किसी और के साथ बाँटना नहीं चाहता वैसे आत्मा परमात्मा से लौ लगने के बाद और कुछ नहीं देखना चाहती है।
आँखों से दाखिल होकर वह हृदय में समा चुका है अब कुछ और देखने को बाकी ही न रहा। हे प्रभु तुम मेरे हृदय में आ जाओ तो मैं चार कमरों वाले हृदय के भी सब द्वार बंद कर लूं।
परमात्मा को देखने अनुभव करने के लिए ज्ञान चक्षु चाहिए चरम चक्षु तो एक बाहरी आवरण हैं। ज्ञान प्राप्त होने पर ही उसका अनुभव प्राप्त होता है। इसके लिए आत्मा का विकार मुक्त निर्मल होना ज़रूरी होता है। तभी ज्ञान का तीसरा नेत्र खुलता है।
तनिक कंकरी परत नैन होत बे -चैन ,
उन नैनन की क्या दशा ,जिन नैनन में नैन।
ॐ शान्ति।
( १) पावक रुपी साइयां ,सब घट रहा समाय ,
चित चकमक लागे नहीं ,ताते बुझि बुझि जाए।
जैसे लकड़ी आग से अलग नहीं है, वैसे ही परमात्मा का हमारे सबके हृदय में वास है वह हमसे अलग नहीं है। उसकी लौ उसका ज्योति स्वरूप ही हमारा भी आत्मिक स्वरूप है हमारी आत्मा का स्वभाव भी पवित्रता है ज्योति शिखा की तरह। परमात्मा की ज्योति घट घट में व्याप्त है। जैसे चकमक पत्थर आग को समाये हुए है लेकिन जबतक उसमें स्फुलिंग पैदा नहीं होगा ऐसे ही जब तक आत्मा में परमात्मा की याद नहीं होगी वह मिलेगा कैसे ?व्यक्ति परमात्मा को तभी प्राप्त होगा जब सद्गुरु उसे परमात्मा से मिलने की विधि बतलायेगा। तब ही चक मक में स्फुलिंग पैदा होगा।
(२ )जिन ढूंढा तिन पाइयां ,गहरे पानी पैठ ,
मैं बौरी (बावरी )डूबन डरहि ,रहै किनारे बैठ।
परमात्मा का स्वरूप समुन्दर की तरह विराट है। यहाँ गहरा पानी ज्ञान का अथाह प्रेम का प्रतीक है।
जो परमात्मा की याद में डूब गया जिसके अस्तित्व का हर कोष यादमय हो गया समझो उसे परमात्मा मिल गया। परमात्म प्राप्ति उसके प्रति प्रेम का विषय है जहां प्रेम है वहां डूबने का भय भी नहीं है। डर अज्ञान का प्रतीक है। जहाँ प्रेम है वहां यह डूबने का अज्ञान भी नहीं है। साधना से ही प्रभु प्राप्ति होती है। हृदय की गहराइयों से उसे प्रेम करना होता है। किनारे पे बैठ तमाशा देखने वालों को भगवान् नहीं मिलते हैं। समुंद में छिपे खनिज कोष को भी गहरे उतर ढूंढना पड़ता है।
(३ )हेरत हेरत हे सखी ,रह्या कबीर हेराय,
बूँद समानी समुंद में ,सो कत हेरी जाय।
कबीर कहते हैं हे सखी उसे ढूंढते ढूंढते मैं बूँद रुपी आत्मा उसी में विलुप्त हो गई। मुझे तभी पता चला मैं तो उसी में थी और वह मुझ में ही था। एक ग्लास पानी समुन्द्र में फेंक दो फिर पानी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। वह समुन्द्र ही कहलायेगा। वैसे ही जब मैंने उसे याद किया तो पता चला वह तो मुझसे अलग था ही नहीं मैं उसमे थी वह मुझ में था। यहाँ अद्वेत दर्शन है। बूँद समुन्द्र से अलग नहीं है। बूँद भी वही है उसी का वंश है।उससे अलग नहीं है।
(४ )बूँद समानी समुंद में ,जानत है सब कोय ,
समुंद समाना बूँद में जाने बिरला कोय।
यहाँ भी अद्वैत भाव है। भगवान् भक्तों के हृदय में ही वास करते हैं। जो उसे अपने से अलग समझते हैं वह अज्ञानी हैं। आशिक और माशूक जब मिलते हैं तो मिलन ही शेष रह जाता है दोनों का अस्तित्व विलीन हो जाता है। असल बात है आत्मा परमात्मा का मिलन। आत्मा सो परमात्मा।
उधौ मोहे संत सदा अति प्यारे ,
मैं संतन के पाछे जाऊं ,संत न मोते न्यारे।
बूँद और समुंद आत्मा और परमात्मा अलग अलग नहीं है। एक सीमित आकाश है -जीव आत्मा और एक महाकाश है परमात्मा। बीच की दीवार हटा दो ,एक ही आकाश रह जाएगा।बूँद है आत्मा समुंद है परमात्मा। आत्मा ,परमात्मा ,ब्रह्म तत्व ,परब्रह्म तीनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं गीता में। जिसके हृदय में परमात्मा की याद है वह परमात्मा मय हो जाता है।द्वेत भाव मिट जाता है।
(५ )नैना अंतर आव तू ,नैना झपि तोहि लेउ ,
ना मैं देखूँ और को ,ना तोहि देखन देउ।
ये जो चरम चक्षु हैं ये ज्ञान का प्रतीक हैं ज्ञान के द्वार हैं। ज्ञान प्राप्त होने पर मनुष्य ईश्वर को पा जाता है फिर इन आँखों को किसी और का रूप नहीं सुहाता इस लौकिक संसार से लंगर उठ जाता है। जैसे आशिक माशूक को किसी और के साथ बाँटना नहीं चाहता वैसे आत्मा परमात्मा से लौ लगने के बाद और कुछ नहीं देखना चाहती है।
आँखों से दाखिल होकर वह हृदय में समा चुका है अब कुछ और देखने को बाकी ही न रहा। हे प्रभु तुम मेरे हृदय में आ जाओ तो मैं चार कमरों वाले हृदय के भी सब द्वार बंद कर लूं।
परमात्मा को देखने अनुभव करने के लिए ज्ञान चक्षु चाहिए चरम चक्षु तो एक बाहरी आवरण हैं। ज्ञान प्राप्त होने पर ही उसका अनुभव प्राप्त होता है। इसके लिए आत्मा का विकार मुक्त निर्मल होना ज़रूरी होता है। तभी ज्ञान का तीसरा नेत्र खुलता है।
तनिक कंकरी परत नैन होत बे -चैन ,
उन नैनन की क्या दशा ,जिन नैनन में नैन।
ॐ शान्ति।
3 टिप्पणियां:
सद्बुद्धि की परत दर परत खोलती पंक्तियाँ।
सुंदर कबीरवाणी.
रामराम.
ज्ञान तंतु को छूती हुई व्याख्या ...
राम राम जी ...
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