श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय (श्लोक ६१ -६५ )
(६१ )इसलिए साधक अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मुझ में श्रृद्धा पूर्वक ध्यान लगाके बैठे ,क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं ,उसी की बुद्धि स्थिर होती है।
(६२ )विषयों का चिंतन करने से विषयों में आसक्ति होती है ,आसक्ति से (विषयों के सेवन करने की )इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा पूरी नहीं होने से क्रोध होता है।
(६३ )क्रोध से सम्मोह अर्थात अविवेक उत्पन्न होता है ,सम्मोह से मन भ्रष्ट हो जाता है। मन भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का पतन होता है।
(६४ )राग द्वेष से रहित संयमी साधक अपने वश में की गई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ भी शान्ति प्राप्त करता है।
(६५ )शान्ति से सभी दुखों का अंत हो जाता है और शांत चित्त मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर होकर परमात्मा से युक्त हो जाती है।
व्याख्या विस्तार :इसमें श्लोक ६० को भी शामिल कर लिया गया है ताकि एक भाव का नैरंतर्य बना रहे.
जीवन में एक किनारा है प्रयत्न का ,दूसरा है प्रारब्ध का,प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहने का। कुछ लोग कर्म योग (पुरुषार्थ )के मार्ग पर चलते हैं भाग्य जैसी चीज़ होगी भी तो कहाँ जायेगी वह तो बोनस के रूप में फिर स्वत : ही मिलेगी। प्रारब्ध का अस्तित्व भी कहीं न कहीं कर्म से ही आ जुड़ता है। प्रयत्न करते हुए भी जब तक हम सार्थक चिंतन से नहीं जुड़ते हैं मनुष्य मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
हे अर्जुन तू बुद्धि की शरण में आ। बुद्धि भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक बुद्धि भगवान् की तरफ, राजसी भोगों की तरफ और तामसिक अज्ञान की तरफ ले जाती है। जब तक हमारे जीवन में विवेक का उदय नहीं होता है प्रयत्न करने वाले व्यक्ति को भी राग और आसक्ति खींच लेतीं हैं। इन्द्रियाँ और आसक्ति बुद्धि को हर लेती है।
भगवान् इन श्लोकों में स्व -अनुशासित व्यक्ति की प्रशंशा कर रहे हैं। हे अर्जुन सभी इन्द्रियों को वश में करके (मन को बुद्धि से ,बुद्धि को विवेक से वश में करके )व्यक्ति को मेरे ध्यान में बैठना चाहिए।
अधिकतर लोग इन्द्रियों में ही रहते हैं इन्द्रियों तक ही सीमित रहते हैं। खाना पीना और मौज लेना ही जीवन का ध्येय रहता है इनका।सबसे पहले अपनी इन्द्रियों पे नियंत्रण रखके मेरे पारायण हो करके मुझसे एक होने का प्रयत्न करना चाहिए। जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हैं वही परमात्मा के ध्यान में बैठ सकता है। एकाग्रता चित्त और बुद्धि दोनों की आवश्यक है। बुद्धि ज्ञान और विवेक यदि सजग हैं तो ध्यान भी लगता जाएगा व्यक्ति परमात्मा में स्थिर हो जाएगा। प्रीत बुद्धि परमात्मा से लग जायेगी तो मन भी स्थिर हो जाएगा। आत्मा कमसे कम सम्मान देती है महात्मा कमसे कम क्षमा देता है और परमात्मा कमसे कम प्रेम हरेक को देता है उससे बुद्धि तो लगाओ। मन भी स्थिर हो जाएगा फिर।
भगवान् दोष क्यों पैदा होता है वह भी बतला रहे हैं :चिंतन से ही यह संसार चलता है। संसार में भले रहो पर चिंतन परमात्मा का करो। जब भी व्यक्ति भोगों का चिंतन करता है वह चिंतन ही उसे पकड़ लेता है। आसक्ति होती है चिंतन से। यदि हम चाहते हैं आसक्ति पैदा ही न हो तो जीवन में राग का चिंतन न करें। आसक्ति के संग से ही फिर उन विषयों को जो इन्द्रियों का विषय हैं प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। कामना पूरी हो जाती है तो लोभ पैदा होता है उसे पुन : प्राप्त करने की इच्छा मन में पैदा होती है कामना पूरी नहीं होती है तो क्रोध पैदा होता है।
क्रोध पैदा होने के बाद क्या होता है ?
क्रोध से मनुष्य में अत्यंत पशुता आ जाती है। मूढ़ भाव पैदा होता है। स्मृति भ्रम हो जाता है। फिर उसे यह भी पता नहीं चलता किसके सामने क्या बोलना है। क्रोध आते ही विवेक हट जाता है। ज्ञान का समझदारी का नाश होता है। व्यक्ति अपनी स्थिति से गिर जाता है। मनुष्य आकृति ही उसकी रह जाती है मनुष्यता तो नष्ट हो जाती है। संसार में रहते हुए यदि हम अध्यात्म का चिंतन करें फिर संसार हमें पकड़ नहीं पायेगा। गुस्सा आ रहा है तो उस समय मौन हो जाओ। सारा प्रोग्रेम कल पे छोड़ दो।
ऐसा व्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ खुद के कंट्रोल में हैं पदार्थ,भोगों और कुछ लोगों के कंट्रोल में नहीं हैं ,(कुछ लोग हमें कंट्रोल किये रहते हैं सम्मोहन छाया रहता उनका हम पर ),जिसकी इन्द्रियों में राग द्वेष अब लेश मात्र भी नहीं रह गया है,अब भले वह संसार में जाए। अब क्योंकि उसका चित्त और उसकी बुद्धि उसके वश में हैं संसार की अच्छाई मिलने से उसमें राग पैदा नहीं होगा बुराई मिलने पर द्वेष भी नहीं उत्पन्न होगा। वह विषयों में विचरण करने के बाद भी अन्दर से परमात्मा से जुड़ा हुआ रहेगा। संसार में रहते हुए भी ऐसा व्यक्ति आनंद से भरा रहेगा।
विषय भोग हमें छोटी छोटी खुशियाँ ही देते हैं। अध्यात्म आनंद देता है। अंत :करण की प्रसन्नता ही दिव्यता से जुड़ना है। प्रसन्न चित्त वाला योगी शीघ्र ही परमात्मा में ठहर जाता है। जब साधक अपने जीवन में परमात्मा से जुड़ता है ,सब दुखों का उसके जीवन में अभाव हो जाता है। सिर्फ पदार्थ सुख भोगने से हमारी बुद्धि अस्थिर होती है। डावाँडोल रहती है भगवान् की तरफ चलने से अन्दर की प्रसन्नता आती है। सांसारिक दुखों का अभाव हो जाता है। मन एक दम परमात्मा में स्थिर हो जाता है।
ॐ शान्ति
(६१ )इसलिए साधक अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मुझ में श्रृद्धा पूर्वक ध्यान लगाके बैठे ,क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं ,उसी की बुद्धि स्थिर होती है।
(६२ )विषयों का चिंतन करने से विषयों में आसक्ति होती है ,आसक्ति से (विषयों के सेवन करने की )इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा पूरी नहीं होने से क्रोध होता है।
(६३ )क्रोध से सम्मोह अर्थात अविवेक उत्पन्न होता है ,सम्मोह से मन भ्रष्ट हो जाता है। मन भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का पतन होता है।
(६४ )राग द्वेष से रहित संयमी साधक अपने वश में की गई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ भी शान्ति प्राप्त करता है।
(६५ )शान्ति से सभी दुखों का अंत हो जाता है और शांत चित्त मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर होकर परमात्मा से युक्त हो जाती है।
व्याख्या विस्तार :इसमें श्लोक ६० को भी शामिल कर लिया गया है ताकि एक भाव का नैरंतर्य बना रहे.
जीवन में एक किनारा है प्रयत्न का ,दूसरा है प्रारब्ध का,प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहने का। कुछ लोग कर्म योग (पुरुषार्थ )के मार्ग पर चलते हैं भाग्य जैसी चीज़ होगी भी तो कहाँ जायेगी वह तो बोनस के रूप में फिर स्वत : ही मिलेगी। प्रारब्ध का अस्तित्व भी कहीं न कहीं कर्म से ही आ जुड़ता है। प्रयत्न करते हुए भी जब तक हम सार्थक चिंतन से नहीं जुड़ते हैं मनुष्य मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
हे अर्जुन तू बुद्धि की शरण में आ। बुद्धि भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक बुद्धि भगवान् की तरफ, राजसी भोगों की तरफ और तामसिक अज्ञान की तरफ ले जाती है। जब तक हमारे जीवन में विवेक का उदय नहीं होता है प्रयत्न करने वाले व्यक्ति को भी राग और आसक्ति खींच लेतीं हैं। इन्द्रियाँ और आसक्ति बुद्धि को हर लेती है।
भगवान् इन श्लोकों में स्व -अनुशासित व्यक्ति की प्रशंशा कर रहे हैं। हे अर्जुन सभी इन्द्रियों को वश में करके (मन को बुद्धि से ,बुद्धि को विवेक से वश में करके )व्यक्ति को मेरे ध्यान में बैठना चाहिए।
अधिकतर लोग इन्द्रियों में ही रहते हैं इन्द्रियों तक ही सीमित रहते हैं। खाना पीना और मौज लेना ही जीवन का ध्येय रहता है इनका।सबसे पहले अपनी इन्द्रियों पे नियंत्रण रखके मेरे पारायण हो करके मुझसे एक होने का प्रयत्न करना चाहिए। जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हैं वही परमात्मा के ध्यान में बैठ सकता है। एकाग्रता चित्त और बुद्धि दोनों की आवश्यक है। बुद्धि ज्ञान और विवेक यदि सजग हैं तो ध्यान भी लगता जाएगा व्यक्ति परमात्मा में स्थिर हो जाएगा। प्रीत बुद्धि परमात्मा से लग जायेगी तो मन भी स्थिर हो जाएगा। आत्मा कमसे कम सम्मान देती है महात्मा कमसे कम क्षमा देता है और परमात्मा कमसे कम प्रेम हरेक को देता है उससे बुद्धि तो लगाओ। मन भी स्थिर हो जाएगा फिर।
भगवान् दोष क्यों पैदा होता है वह भी बतला रहे हैं :चिंतन से ही यह संसार चलता है। संसार में भले रहो पर चिंतन परमात्मा का करो। जब भी व्यक्ति भोगों का चिंतन करता है वह चिंतन ही उसे पकड़ लेता है। आसक्ति होती है चिंतन से। यदि हम चाहते हैं आसक्ति पैदा ही न हो तो जीवन में राग का चिंतन न करें। आसक्ति के संग से ही फिर उन विषयों को जो इन्द्रियों का विषय हैं प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। कामना पूरी हो जाती है तो लोभ पैदा होता है उसे पुन : प्राप्त करने की इच्छा मन में पैदा होती है कामना पूरी नहीं होती है तो क्रोध पैदा होता है।
क्रोध पैदा होने के बाद क्या होता है ?
क्रोध से मनुष्य में अत्यंत पशुता आ जाती है। मूढ़ भाव पैदा होता है। स्मृति भ्रम हो जाता है। फिर उसे यह भी पता नहीं चलता किसके सामने क्या बोलना है। क्रोध आते ही विवेक हट जाता है। ज्ञान का समझदारी का नाश होता है। व्यक्ति अपनी स्थिति से गिर जाता है। मनुष्य आकृति ही उसकी रह जाती है मनुष्यता तो नष्ट हो जाती है। संसार में रहते हुए यदि हम अध्यात्म का चिंतन करें फिर संसार हमें पकड़ नहीं पायेगा। गुस्सा आ रहा है तो उस समय मौन हो जाओ। सारा प्रोग्रेम कल पे छोड़ दो।
ऐसा व्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ खुद के कंट्रोल में हैं पदार्थ,भोगों और कुछ लोगों के कंट्रोल में नहीं हैं ,(कुछ लोग हमें कंट्रोल किये रहते हैं सम्मोहन छाया रहता उनका हम पर ),जिसकी इन्द्रियों में राग द्वेष अब लेश मात्र भी नहीं रह गया है,अब भले वह संसार में जाए। अब क्योंकि उसका चित्त और उसकी बुद्धि उसके वश में हैं संसार की अच्छाई मिलने से उसमें राग पैदा नहीं होगा बुराई मिलने पर द्वेष भी नहीं उत्पन्न होगा। वह विषयों में विचरण करने के बाद भी अन्दर से परमात्मा से जुड़ा हुआ रहेगा। संसार में रहते हुए भी ऐसा व्यक्ति आनंद से भरा रहेगा।
विषय भोग हमें छोटी छोटी खुशियाँ ही देते हैं। अध्यात्म आनंद देता है। अंत :करण की प्रसन्नता ही दिव्यता से जुड़ना है। प्रसन्न चित्त वाला योगी शीघ्र ही परमात्मा में ठहर जाता है। जब साधक अपने जीवन में परमात्मा से जुड़ता है ,सब दुखों का उसके जीवन में अभाव हो जाता है। सिर्फ पदार्थ सुख भोगने से हमारी बुद्धि अस्थिर होती है। डावाँडोल रहती है भगवान् की तरफ चलने से अन्दर की प्रसन्नता आती है। सांसारिक दुखों का अभाव हो जाता है। मन एक दम परमात्मा में स्थिर हो जाता है।
ॐ शान्ति
5 टिप्पणियां:
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !!
तार्किक और वैज्ञानिक विश्लेषण
विस्तृत चर्चा ... बुधि एयर ज्ञान की शरण ... या फिर साक्षात कृष्ण की शरण ... अंतिम लक्ष्य तो यही है ... राम राम जी ...
जन्माष्टमी पर कृष्ण उपदेश अच्छा लगा.
शुभकामनायें वीरुभाई जी.
आपका ब्लॉग एक अमुल्य धरोहर सा हो रहा है ..
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