सोमवार, 26 अगस्त 2013

(१ ३ )काची काया मन अथिर ,थिर थिर काम करंत , ज्यों - ज्यों नर निधड़क ,फिरे त्यों त्यों काल हसंत

कबीर  साखियों से : 

(१)आपा तज़े अव हरि भजै  ,नख शिख तजे विकार ,

     सब जीवन से निर्बैर रहै  ,साधू मत है सार। 

(२ )निंदक नियरे राखिये ,आँगन कुटि छ्वाय ,

      बिन पानी बिन साबुना ,निर्मल करे सुभाय ।

(३)दुर्लभ है मानुस  जनम  , मिले ना बारम्बार ,

    पक्का फल जो  गिर गया ,बहुरि न लागे डार। 

  (४ )साईं इतना दीजिये ,जा में कुटुम  समय ,

        मैं भी भूखा न रहूँ ,साधु न भूखा जाय। 

 (५ )कबिरा सब जग निर्धना ,धनवंता न कोय ,

       धनवंता सोइ  जानिये ,राम नाम धन होय। 

(६ )कथनी मीठी खांड सी ,करनी विष की लोई ,

      कथनी छांडी करनी करे ,विष का अमृत होई। 

(७ )मधुर वचन है औषधि ,कटुक वचन है तीर ,

      श्रवण द्वार हवै संचरे ,साले  सकल शरीर 

 (८ )मीठा सबसे बोलिए सुख उपजे सब ओर ,

       बसिकरण यह मन्त्र है ,तजिए बचन कठोर। 

(९)कागा काको धन  हरे ,कोयल काको   देय  ,

    मीठे बचन सुनाय के ,जग अपनों करि  लेय। 

(१ ० )आवत गारी एक है ,उलटी  हुई अनेक ,

         कहे कबीर न उलटिए ,रही एक की एक। 

(१ १ )अच्छे दिन पाछे गए , किया न हरि से हेत ,

    अब  पछताए होत  क्या ,जब चिड़िया चुग गई खेत।  

  

(१ २ )बिन रखवारे  बहेरिया ,चिड़िया खाया खेत 

         आधा   परधा  उबारे  चेति  , सके तो चेत। 

(BIN RAKHWARE BAHIRA  ,CHIDIYON KHAYAA KHET ,
         ADHA PRADHA  UBARE ,CHETI SAKE TO CHET )

(१ ३ )काची  काया मन अथिर ,थिर थिर काम करंत ,

     ज्यों - ज्यों  नर निधड़क ,फिरे त्यों त्यों काल हसंत  


व्याख्या :

(१)आपा तज़े अव हरि भजै  ,नख शिख तजे विकार ,

     सब जीवन से निर्बैर रहै  ,साधू मत है सार। 

कबीर कहते हैं  हे जीव ! अपनी जाति और कुल का 

अभिमान

 छोड़  , ईश को  भज। काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,अहंकार 

आदि विकारों को तिलांजलि दे। किसी के प्रति वैर भाव 

न रख सबसे प्रीती जोड़। यही साधु  जीवन का सार है।

साधुपन है।सब संतों का यही कहना मानना  है। 

संत तो सदैव ही सब प्राणियों  कल्याण चाहते हैं। सहन 

शील होने की सीख देते हैं सब के प्रति। 

अहंकार में आकर ही  व्यक्ति औरों के प्रति वैर भाव 

पालता है। जो वैर भाव से परे चला गया है वही संत है। 

 (२ )निंदक नियरे राखिये ,आँगन कुटि छ्वाय ,

      बिन पानी बिन साबुना ,निर्मल करे सुभाय ।

निंदक को अपने आँगन में शरण दीजिये वह आपके 

अवगुणों की याद दिलाएगा। बिना साबुन पानी के ही 

तुम्हीर विकारों का मैल आत्मा के ऊपर से उतार देगा।  

तभी तुमें विकार मुक्त होने का मौक़ा मिलेगा।तुम 

अपने गुणों पर ध्यान दे सकोगे।  निस्पृह 

भाव लिए अपनी आलोचना सुनिए। निंदक तो आपका 

हितेषी है मददगार है। जीवन से सारा किचड़ा बाहर 

करने में मदद करेगा। चरण चाटने वाले चाटुकार तुम्हें 

सुधरने का मौक़ा न देंगे।


(३)दुर्लभ है मानुस  जनम  , मिले ना बारम्बार ,

    पक्का फल जो  गिर गया ,बहुरि न लागे डार। 

मनुष्य जन्म बहुमूल्य है। बिरले ही प्राप्त होता है। 

जीवन में कर्म का फल ,पुण्य का फल भी एक ही बार 

मिलता है। फल खाने के बाद उसका और फल नहीं 

मिलता है। पुण्य भी एक दिन चुक जाता है। बीज 

लगाया यह तुम्हारा कर्म था। वृक्ष ने बढ़ने के बाद फल 

दिया। फल तुमने खाया यह तुम्हारा कर्म फल था।यह 

मनुष्य जन्म तुम्हारे किसी सद कर्म का ही फल है। 

इस जीवन को अब व्यर्थ न गंवायो तेरी मेरी में। 

व्यर्थ संकल्पों में अपनी ऊर्जा व्यर्थ न करो। अगले 

जन्म के लिए भी तो कुछ करो।विकर्म तुमसे मनुष्य 

होने की पात्रता आइंदा के लिए  छीन सकते हैं।

 कुछ तो  नेक काम कर लो अब।  इस मनुष्य जीवन का 

तो मान रखो जो तुम्हारे सद्कर्मों का ही परिणाम था।ये 

कर्म ही छाया की तरह तुम्हारे साथ जाएगा।  


  (४ )साईं इतना दीजिये ,जा में कुटुम  समाय  ,

        मैं भी भूखा न रहूँ ,साधु न भूखा जाय। 

हे प्रभु मुझे इतना ही देना जिससे  मैं अपने परिवार का 

भरण पोषण कर सकूं। मैं भी भर पेट खालूं और साधू 

भी 

मेरे घर दुआरे से भूखा न जाय। मुझे इसी में संतोष 

प्राप्त हो जाएगा।कबीर कहते हैं जब तक मन की शांति 

नहीं होगी संसार के सुख साधनों से तुमें संतुष्टि नहीं 

मिलेगी। अतृप्त ही रहेगी तुम्हारी आत्मा। और और की 

एषणा  प्यास ही बढायेगी। ईश्वर मुझे इतनी सामर्थ्य दे 

मैं दूसरे का कुछ तो उपकार कर सकूं। परहित सरस 

धर्म 

नहीं भाई का सन्देश है यहाँ। 

वैसे भी आत्मा का भोजन सुख शान्ति और संतोष है जो 

इन पदार्थों से प्राप्त न होगा।ये तो असंतोष ही बढ़ाएंगे।

सेवा करूँ कुछ परमार्थ करूँ तो जीवन सार्थक हो। 

भावार्थ यह भी है धन संचय के लिए नहीं होता है जीवन 

निर्वाह के लिए ज़रूरी होता है। 


 (५ )कबिरा सब जग निर्धना ,धनवंता न कोय ,

       धनवंता सोइ  जानिये ,राम नाम धन होय। 

कबीर कहते हैं यह सारा संसार निर्धन है यहाँ कोई भी अमीर  नहीं है क्योंकि किसी के पास भी राम नाम का धन नहीं है। अमीर तो कोई तब हो जब किसी के भी पास राम नाम का धन हो। 

इस संसार में अज्ञानी लोग उस व्यक्ति को धनी  मानी समझ रहें हैं जिसके पास भौतिक साधन ज्यादा हैं । ये सब तो नष्ट हो जाने वाले हैं। यहाँ ठहरने वाले नहीं हैं। यह ऐश्वर्य के  साधन।ये डॉलर  डॉलर पतियों  के।झूठी माया है यह सब धन जो एक दिन समाप्त हो आ जायेगा।  परम धन ईश्वर का नाम धन ही है। जो कभी नष्ट नहीं होगा। अध्यात्म  का रास्ता ही ऐसा है जो एक बार उधर चल पडा उसके हाथ राम नाम का अखूट धन आता है जो कभी नष्ट नहीं होता। नाम धन ही सबसे बड़ा धन है।  

(६ )कथनी मीठी खांड सी ,करनी विष की लोई ,

      कथनी छांडी करनी करे ,विष का अमृत होई। 

हम में से कितनों की ही  कथनी और करनी एक जैसी  नहीं है। मुख में राम बगल में छुरी लिए घूम रहे हैं लोग। मुख से मीठा बोलते हैं और मन में मनभेद रखते हैं। ऐसे लोगों का कर्म कई के लिए विष बुझा तीर बन जाता है। यही मुख विष अमृत बन सकता है यदि वही मनुष्य सुकर्म करे। लोक कल्याणार्थ कर्म करे। मुख से ही मीठा न बोले मन वचन कर्म में जिसके समस्वरता हो सामंजस्य हो। वही व्यक्ति समाज का हित कर सकता है चिकनी  चुपड़ी बातें करने वाले लिप सर्विस करने वाले  सब का अहित ही करते हैं।वही व्यक्ति समाज का हित कर सकता है जो सिर्फ गुड़  जैसी बात ही न कहे कर्मों का गुड़  भी दे।जो कहे करके दिखाए। मन वाणी कर्म में जिसके एका हो।

(७ )मधुर वचन है औषधि ,कटुक वचन है तीर ,

      श्रवण द्वार हवै संचरे ,साले  सकल शरीर 

कबीर कहते हैं मीठे बोल (प्यार के दो बोल )जहां औषधि का मकाम कर ते हैं व्यक्ति मन के संताप को हर लेते हैं वहीँ वहीँ दुर  मुख से निकले  कटु वचन तीर की माफिक हमारे हृदय को ही छलनी कर देते हैं। मन के संताप को बढ़ा देते हैं। हमारे कानों से दाखिल होकर हमारे अस्तित्व कोष को ही ,शरीर की प्रत्येक कोशा को अत्यधिक पीड़ा और कष्ट से भर देते हैं। 

इसलिए सच  बोलो , सलीके से बोलो विनम्रता से बोलो। शब्दों का चयन सावधानी पूर्वक  किया गया हो। अवसर के अनुकूल हमारी वाणी हो शब्द हों।शब्दों के पीछे हम होते हैं हमारा पूरा व्यक्तित्व होता है। हम वाही हैं जो हम बोलते हैं। हमारे बोल हमारा खानदानी परिचय होते हैं संस्कार होते हैं वसीयत में मिले। 

 (८ )मीठा सबसे बोलिए सुख उपजे सब ओर ,

       बसिकरण यह मन्त्र है ,तजिए बचन कठोर। 

मीठे बोल सब को हर्षित कर देते हैं। सुख से भर देते हैं सभी को। मन्त्र मुग्ध हो जाता है सुनने वाला मीठी वाणी सुनके। 

कितनों को आनंद से भर देते हैं हमारे बोल। सम्मोहित हो सुनता है श्रोता मीठे बोल। ख़ुशी छलका देते हैं माहौल में मीठे बोल। कर्ण कटु कड़वे बोल न सिर्फ मुख का जायका बिगाड़ देते हैं जग बैरी बन जाता है हमारा। हम अपनी वाणी से ही कितनों को अपने विपक्ष में खड़ा कर लेते हैं दूर मुख हो जाते हैं। मीठा बोलने वाले के सब दोस्त बन जाते हैं। सब उसके साथ सहयोग करने लगते हैं। 

(९)कागा काको धन  हरे ,कोयल काको   देय  ,

    मीठे बचन सुनाय के ,जग अपनों करि  लेय। 

कोयल मीठे बोल बोलकर सबका मन मोह लेती है हालाकि किसी को कुछ (धन राशि ) देती नहीं है। कौवा भी किसी का   धन चोरी नहीं करता है फिर भी कर्कशा कहलाता है। मीठा गाने वाली लता मंगेशकर  कंठ कोकिला कहलाती हैं .कोयल बोलती है तो लगता है वातावरण को शुद्ध कर रही है मंगल ध्वनी से संस्कृत के श्लोकों की तरह ,माहौल को संगीत के स्वरों से भर देती है कोयल। और आजकल के कई दुर्मुख बोलते हैं तो लगता है कौवा कोँ कों कर रहा है।  

हर कोई सुनना चाहता है सांगीतिक ध्वनि ,कर्कश बोल कोई नहीं सुनना चाहता है। हालाकि जाति  वरन दोनों का एक है। दोनों कृष्ण मुख हैं। काले हैं। मादा कक्कू ही कौवी के अंडे  भी सेती है।किम्वदंती है सत्य भी है कौवा घोंसला नहीं बनाता है कौवी अपने अंडे कोयल के घोंसले में जाके देती है। ठीक उससे पहले कौवा नर कक्कू को लड़ाई में उलझा लेता है। 

काग परिवार का पूरा कुनबा ही बदमाश होता है जब कोयल के बच्चे अण्डों से बाहर निकलते हैं तब उसी घोंसले में रखे कौवी के बच्चे उन्हें एक एक करके बाहर फैंक देते हैं। प्रजा तंत्र में नेताओं की औलाद भी यही कर रही है। 


(१ ० )आवत गारी एक है ,उलटी  हुई अनेक ,

         कहे कबीर न उलटिए ,रही एक की एक। 

अगर कोई गाली देता है तो उसे स्वीकार मत कीजिए उसकी गाली उसके पास ही रह जायेगी। आपने स्वीकार ही नहीं की। उलट  के गाली आप मत दीजिये।गाली एक वचन में ही रहेगी बहु वचन न बनेगी। कोशिका विभाजन की तरह उसमें वृद्धि नहीं होगी। 

लड़ाई से पहले गाली गलौंच ही होती है बात बढ़ जाती है एक उसने दी चार आपने सुनाई। और अगर उसे आप सुना अनसुना कर देवें तो एक अप्रिय स्थिति टल जाती है। बात  बढ़ती  नहीं है। अप्रिय बात को आप अपने कमंडल में न डाले। कमंडल आपका है गाली देने वाले का नहीं है। कोई अच्छी चीज़ तो दे नहीं रहा है जो आप लें। 

ये जिभ्या परमात्मा ने अपशब्द कहने के लिए नहीं दी 

है।  आप दुर्मुख होने से बचें। जिभ्या पे आये तो हरी 

नाम ही आये गारी क्यों आवे। 

एक किस्सा है वृन्दावन का है । एक पहुंचे हुए संत पुरुष थे। एक व्यक्ति उन्हें गारी पे गारी दिए जाए। संत मुस्काते ही जाएँ, मुस्काते ही जाएँ। आखिर में जब गारी देने वाला थक गया ,संत कहबे  लगे- मजा आ गया आप अपना मोबाइल नम्बर दे दीजिए आप बहुत अच्छी गारी देत हो आगे सू आप सू ही दिब वाएंगे हम जाकू भी गारी देनी होवेगी।  वह व्यक्ति संत को हतप्रभ होकर देखता रह गया।

   (१ १ )अच्छे दिन पाछे गए , किया न हरि से हेत ,

    अब  पछताए होत  क्या ,जब चिड़िया चुग गई खेत। 

सुख में सुमिरन न किया ,भूल गए तुम सुख के पीछे ही 

दुःख भी खड़ा होता है।अवसर बीतने के बाद फिर हाथ 

नहीं आता।  का बरखा जब कृषि सुखाने ,फिर पछताने 

के सिवाय कुछ भी नहीं बचता है। जब फसल लहलहा 

रही थी तब तो उसकी देखभाल नहीं की अब जब

 चिड़िया सारा खेत चुग गईं तो रोते क्यों हो।

अवसर का सदुपयोग करना चाहिए। अवसर बार बार 

नहीं आते हैं जीवन में।  



(१ २ )बिन रखवारे  बहेरिया ,चिड़िया खाया खेत 

         आधा   परधा  उबरे चेति  , सके तो चेत।

जब कोई रखवाला नहीं होता है ,चिड़िया खेत चुग जाती 

हैं। तेरी इस लापरवाही के बावजूद अभी भी थोड़ी फसल 

खेत में बची हुई है तू अभी भी  चाहे तो चेत सकता 

है। आपने देखा होगा जब फसल पक जाती है तब बहेरिया गोपा घुमाता है जिसमें से हंटर जैसी तीक्षण ध्वनी निकलती है जिसे सुनके पक्षी सहम के भाग खड़े होते हैं और कुछ नहीं तो एक crow scare bar ,एक बिजूका तो होता ही है बीच खेत में जिसे खड़ा दिया जाता है जिसे देख पक्षी भाग खड़े होते हैं। 

ये जीवन भी एक खेत की तरह है जिसे लापरवाही बरतने पर काम क्रोध और मोह रुपी चोर चट  कर देते हैं। व्यक्ति की तमाम इच्छाएं ,वासनाएं और भासनाएँ पंख लगाके पक्षी बन इस जीवन को जो भगवत भक्ति में लगना चाहिए था लूट लेती हैं। अभी भी जो कुछ बचा खुचा है उसे बचाने का मार्ग सत  गुरु बता  सकता है उसकी शरण में जाओ। वरना यह सारा जीवन ही व्यर्थ हो जाएगा। 

(१ ३ )काची  काया मन अथिर ,थिर थिर काम करंत ,

     ज्यों - ज्यों  नर निधड़क ,फिरे त्यों त्यों काल हसंत  

ये काया मिटटी के बर्तन की तरह है जिसे आग में अभी पकाया नहीं गया है और यह शरीर कुम्हार के उस चाक  की तरह जो  बे -चैन घूम रहा है अस्थिर है। फिर भी मनुष्य इस माया संसार में निर्भय होकर घूम रहा है ईश भक्ति को मुल्तवी रखे हुए है यह तमाशा देख काल उस पर हंस रहा है। 

इस अल्पकालिक जीवन से बे -खबर है प्राणि  यह संसार और इसमें वसित मनुष्य। इस संसार के सुख साधनों में ही उसका मन और बुद्धि भटक रही है। भक्ति के प्रति वह लापरवाह बना हुआ है। मृत्यु का फंदा इसीलिए उसपे कसता जा रहा है। जैसे जैसे उसका मन इन साधनों में फंसता जा रहा है वह मौत के करीब खिसक रहा है। मुक्ति के लिए उनमें चाह तो है , इस फंदे से वह निकलना तो चाहते हैं लेकिन संसार के भोग विलास में लीन  अपने आप को बंधनों में ही बांधते चले जा रहे हैं। 

ॐ शान्ति 

3 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

बहुत बढ़िया है आदरणीय यह प्रयास भी-
सादर-

कबिरा को ही मुँह-बिरा, चिढ़ा रहा धर्मांध |
करता आडम्बर निरा, तन मन बेड़ी-बाँध |
तन मन बेड़ी-बाँध, भटकता मन्दिर महजिद |
जिद में है इन्सान, भूलता अम्मा वालिद |
मन पर चाबुक मार, आज रविकर को हांको |
भूल गया है सीख, भूलता है कबिरा को |

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

कबीर श्रृंखला बहुत अच्छा लग रहा है .कृपया जारी रखे ,आभार

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही ज्ञानमय श्रंखला.

रामराम.