लोकतंत्र में जो हो जाए थोड़ा है .
बाबा को पहना दै कल जिसने सलवार ,
अब तो बनने से रही ,फिर उसकी सरकार ।
रोज़ -रोज़ पिटने लगे ,बच्चे और लाचार ,
कैसा है ये लोकमत ,कैसी है सरकार ।
और जोर से बोल लो, उनकी जय जयकार ,
सरे आम पिटने लगे मोची और लुहार ।
संसद में होने लगा यह कैसा व्यापार ,
आंधी में उड़ने लगे नोटों के अम्बार ।
संसद बनके रह गई कुर्सी का औज़ार ,
कुर्सी के पाए हुए गणतंत्री - गैंडे चार ।
जबसे पीज़ा पाश्ता ,बने मूल आहार ,
इटली से होने लगा सारा कारोबार .
6 टिप्पणियां:
नमस्कार जी
जैसा बोवोगे वैसा काटोगे साबित हो रहा है"
जबरदस्त -तो वीरुभाई एक सिद्धहस्त कवि भी हैं !
सच कहा है ... लोग आसानी से तो नही भूलने वाले इस बात को ...
सचमुच थोडा है।
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बाबूजी, न लो इतने मज़े...
भ्रष्टाचार के इस सवाल की उपेक्षा क्यों?
बढ़िया लिखा है आपने,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आपकी पोस्ट कल चर्चा मंच का हिस्सा होंगी नजर डालियेगा
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