"दोहे "
बाबा को पहना दीनि ,कल जिसने सलवार ,
अब तो बनने से रही ,वह काफिर सरकार ।
मध्य रात पिटने लगे ,बाल वृद्ध लाचार
मोहर लगी थी हाथ, पे हाथ करे अब वार ।
है कैसा ये लोकमत ,है कैसी सरकार ,
चोर उचक्के सब हुए, घर के पहरे दार ।
और जोर से बोल लो, उनकी जय जयकार ,
सरे आम लुटने लगे ,इज्ज़त कौम परिवार,
संसद में होने लगा ,ये कैसा व्यापार ,
आंधी में उड़ने लगे ,नोटों के अम्बार
जब से पीजा पाश्ता ,हुए मूल आहार ,
इटली से चलने लगा , सारा कारोबार ।
(ज़ारी ...)
मंगलवार, 7 जून 2011
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3 टिप्पणियां:
जो हुआ सच में अफसोसजनक है..... सटीक दोहे
गहरी चोट की है आपने।
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बाबूजी, न लो इतने मज़े...
चलते-चलते बात कहे वह खरी-खरी।
सेनापति जिसका दिग्विजय और राहूल राजकुमार,
सरेआम हैं कर रहे खुद का बंटाधार
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