इन दिनों कुछ लोगों ने लोक संघर्ष के नाम पर एक प्रति -संघर्ष चला रखा है .इन्हें स्वामी राम देव और वीर सावरकर एक ही केटेगरी के माफ़ी मांगने वाले लग रहें हैं सरकारों से क्रूर निजामों से .शम्स्शुल हक़ इस्लामों के पुजारी इन लोगों से सीधी बात को बहुत बे -चैन है ये मन -
ये वे लोग हैं जिन्हें देश से अंग्रेजी राज के चले जाने का दुःख सता रहा है ।
ये जितने भी गुलाम मानसिकता के लोग हैं वे इस देश के महापुरुषोंकी इज्ज़त करना जानते ही नहीं .इनकी देह भले ही हिन्दुस्तान की मिटटी की बनी हो लेकिन इनके भीतर जो मन है वह उस मार्क्सवादी जूठन से बना है जिसकी हिन्दुस्तान के बारे में जानकारी बहुत ही निचले स्तर की थी .और जिसके दिए हुए फलसफे के तम्बू आज पूरे विश्व में उखड़ चुकें हैं .ये मार्क्स -वादी बौद्धिक गुलाम (भकुए )क्या जाने कि आज़ादी क्या होती है .और आज़ादी के लिए लड़ने वाले शहीद किस मिटटी के बने होतें हैं ।
अगर सावरकर ने सरकार से माफ़ी मांग कर अपनी जान बचाई थी ,दो जन्मों का कारावास मार्क्सवादी बौद्धिक गुलामों के बाप ने दिया था ।?
हमारा मानना है इस'" प्रति -लोक -संघर्ष" का झंडा उठाकर चलने वालों के खून की जाँच करवाई जाए ,यह जय -चन्दों और मीर -जाफरों के वंशज निकलेंगें .इनके आनुवंशिक हस्ताक्षर लिए जाने चाहिए .
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9 टिप्पणियां:
साहब बुरा मत मानियेगा, पर बाबा, और दिग्विजय सिंह शायद रिश्तेदार निकलेंगें,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
विवेक जैन जी !बुरा कैसा भला कैसा ?एक प्रतिक्रया मेरी है एक आपकी है ,ये विमर्श बहुत ज़रूरी है .इसलिए कहा भी गया है -जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी .शुक्रिया आपका आपकी "कही "/टिपण्णी के लिए .
राजनीति नाम ही deceit का है...
Gambheer mamla hai,,,,,,,sabdon ko shalinta main lapetne se maaza aadka rah gya.............
jo ye hain vhi kho enko....
वेद प्रकाशजी हम दिग्विजय सिंह जी की भाषा नहीं बोल सकते .उसके लिए अर्जुन जैसा गुरु बनाना पड़ता है ,जो हमारे बूते की बात नहीं .आप हमारी भाषा को शालीन कह कर हमारा मान बढा रहें हैं .वंश वेळ तो कभी कभार हम भी खोद डालतें हैं .शुक्रिया आपका ज़र्रा -नवाजी के लिए .
अपना देश क्यों इतने लम्बे समय तक गुलाम रहा -कारण स्पष्ट है -इतने मत मतान्तर हैं कि
कुछ मत पूछिए -लोकतंत्र के नाम पर हर आदमी हगने मूतने को उद्यत रहता है ....
पिछले १००० वर्षों की गुलामी नेदेश की रीडतोड़ी है .... और आख़िर के १०० वर्षों ने तो नसों में पानीभी भरा है ... शायद राष्ट्र किसे कहते हैं राष्ट्र की अस्मिता क्या होती है ... दुबारा पाठ्यक्रमों में चालू करनी चाहिए ... पर कौन करेगा ...
क्या कहें? इतिहास-बोध की कमी अथवा वर्तमान के प्रति अज्ञानता!
वाकई जय चंद हैं
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