लोक तंत्र में जो हो जाए थोड़ा है :
बाबा को पहना दै कल जिसने सलवार ,
अब तो बनने से रही फिर उसकी सरकार ,
रोज़ रोज़ पीटने लगे बच्चे और लाचार ,
है कैसा ये लोकमत कैसी है सरकार ।
और जोर से बोल लो उनकी जय जयकार ,
सरे आम पीटने लगे मोची और लुहार ,
संसद में होने लगा ये कैसा व्यापार ,
आंधी में उड़ने लगे नोटों के अम्बार ,
संसद बनके रह गई कुर्सी का हथियार ,
कुर्सी के पाए बने मोटे गैंडे चार ।
भाई साहब कोंग्रेस के मुंह में आखिरी निवाला ,बाबा गले की हड्डी बनने वाला है ।
सोमवार, 6 जून 2011
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1 टिप्पणी:
आपने बहुत अच्छा लिखा लोकतन्त्र और उसके भविष्य पर ज़रा इन लाइनों पर ग़ौर करें-
"ज़ुल्मो-सितम को ख़ाक करने के लिए,
लाज़िमी है कुछ हवा की जाय और।
उस लपट की ज़द में तो आएगा ही;
बाबा या नाती या चाहे कोई और।।
एक जब फुंसी हुई ग़ाफ़िल थे हम,
शोर करने से नहीं अब फ़ाइदा।
अब दवा ऐसी हो के पक जाय ज़ल्द;
बस यही है इक कुदरती क़ाइदा।।
वर्ना जब नासूर वो हो जाएगी,
तब नहीं हो पायेगा कोई इलाज।
बदबू फैलेगी हमेशा हर तरफ़;
कोढ़ियों के मिस्ल होगा यह समाज।।"
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