भाई साहब !हम काफी समय तक उस प्रति -रक्षा परिसर में रहे .एक दम से स्वायत्त शेष मुंबई से अलग .कोलाबा में आबाद उस परिसर के अपने कायदे क़ानून रहें हैं .और इनका यहाँ पालन भी होता है .लेकिन कुछ लोग है जो यहाँ भी अपनी सी करने से बाज़ नहीं आते .मसलन एक साहब हैं ,एक मेम साहब भी हैं .मेम साहब का दर्जा साहब से सदैव ही एक ऊपर रहता है ,उन्हें यह हक़ हासिल है वह ऐसा करें .खैर यहाँ तक यह पति पत्नी का निजी मामला है .कौन इनमें कमांडिंग ऑफिसर है हमें क्या लेना .अलबत्ता कुछ घटनाएं हमें भी असर ग्रस्त कर जातीं हैं .यहाँ एक ऐसी ही घटना का उल्लेख हम कर रहें हैं ।
इस परिसर में दाखिल होने के लिए सबको एक पहचान पत्र चाहिए,स्थाई (मियादी )या अस्थाई . .आगंतुकों ,मेहमानों का प्रवेश पत्र (एंट्री पास ) बनता है आतिथेय के कहने पर ,जो लौटाना पड़ता है .न लौटाने पर जुर्माना भरना पड़ता है होस्ट को ..लिहाजा हम ने जब भी दिल्ली का फेरा मारा "पास" बाकायदा मेमसाहब को देकर आये.
एक मर्तबा साहब के दोश्त पधारे .कभी कभार आजातेथे .वीक एंड भुगता के चले जाते थे .आखिरी वक्त ऐसा हुआ -पास लौटाना गेट पर भूल गए .
महीने के अंत में पता चला इस एवज सौ रूपये जमा करवाने हैं .मेम साहब घर में थीं.अब वह तो किसी को ऐसे एक धेला न देब यहाँ तो मामला पूरे सौ रुपये का था .साहब को फोन लगाया गया वह शिप पर थे .ज़वाब मिला कह दो हमने गेस्ट से पूछा है वह लौटा गये थे पास ।
नेवल पोलिस को मेम को बाकायदा समझाना पड़ा-मेम यहाँ चूक होने का सवाल ही नहीं ,जैसे ही पास वापस आता है उसकी एंट्री कंप्यूटर में हो जाती है .कंट्रोल रूम के रिकार्ड में सब कुछ आजाता है .झक मारके हारे मन से मेम को सौ रूपये भरने ही पड़े ।
सोचता हूँ यह मेरा भारत देश है -नैतिक रूप से हम इतने पाखंडी हैं ,देश के कानूनों को अपने नैतिक पाखण्ड की कसौटी पर कसते तौलते हैं ।
अगर यह किस्सायहाँअमरीका में होता तो क्या बिलकुल ऐसा ही यहाँ भी होता ?अमरीका अमरीका अगर है तो इसीलिए है यहाँ क़ानून की अपनी नैतिकता है ,और उसका यहाँ पालन होना चाहिए .उसका पालन हो इसे देखने वाला भी एक तंत्र है .एक दम से सख्त और सबके लिए यकसां .
लेकिन भारत में हम अपने नैतिक पाखण्ड को क़ानून पर लागू करना चाहतें हैं .संसद में हमारा स्थान मुक़र्रर रहता है .
बुधवार, 1 जून 2011
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3 टिप्पणियां:
मोज़े को सर पर धारण करने से वह पगड़ी का काम नहीं देता..... बेचारा बना तो पाँव के लिए जो है
मोज़े को सर पर धारण करने से वह पगड़ी का काम नहीं देता..... बेचारा बना तो पाँव के लिए जो है
कहते हैं की हर ..ते को घी हज़म नहीं होता, ऐसा ही कुछ हमारे वर्ग विशेष भारतीय समाज में रोजाना घटता है, पिछली पीड़ी के लोग इसे उक्त कहावत के रूप में देख नहीं पाते हैं ... यही कारन है कि लेखनी के शब्द बरबस कागज़ पर उतर जाते हैं पर सच तो सच है फिर चाहे वोह हरिश्चंद्र के समय का हो या आज के भ्रष्टाचार - मानसिक, शारीरिक या फिर प्रसाधन सामग्री के रूप में हो. एक अच्छे विचार्गुछ के लिए बोहोत बोहोत बधाई.
सूर्यकान्त शर्मा
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