सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

Your memory is like a game of telephone




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Your memory is like a game of telephone.
September 20th, 2012
05:01 PM ET

हमारी याददाश्त टेलीफोन के उस खेल की तरह जिसमें बहुत सारे बच्चे शिरकत करते हैं ,पहला बच्चा दूसरे के कान में कुछ फुसफुसाता है दूसरा तीसरे के तीसरा चौथे के वही बात फुसफुसाता है लेकिन आखिर वाले बच्चे तक आते आते बात ही बदल जाती है ,आखिर वाला बच्चा कुछ और ही ग्रहण कर लेता है .


जर्नल न्यूरोसाइंस में हाल ही में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है ,इसमें इस 

बात का जायज़ा लिया गया है ,हम किस प्रकार मेमोरी में संचित सूचना की 

पुनर प्राप्ति करतें हैं अर्जित याददाश्त के सहारे . 


याद रखना याद करना और याद किए को पुनर प्राप्त करना याददाश्त को 

दीर्घावधि तक बनाए रखने में एहम भूमिका निभाता है .इसीलिए तो सालों 

साल हम क्लास में दाखिल होने से पहले एक शिक्षक के रूप में अपने पाठ 

को दोहराते हैं ,अपनी स्मृति में लातें हैं .छूटे हुए अंशों को फिर फिर पढतें हैं .


शोध कर्ताओं ने पता लगाया है जितनी भी मर्तबा आप संचित सूचना को 

स्मृति में लातें हैं ,उसका कुछ मूल अंश छूट जाता ,कुछ नया भी उसमें जुड़ 

जाता है .

शोध के अगुवा कहतें हैं याददाश्त का मामला किसी पूर्व में देखे हुए चित्र की 

तरह सीधा नहीं है .अक्सर विस्तार में जाते वक्त हम घाल मेल कर जातें हैं 

.कुछ बातें छूट ही जाती हैं .कुछ नै बिला वजह जुड़ जाती हैं .


संभावना प्रबल रहती है  हम  सूचना के इस  फ़ालतू अंश को भी उतना ही 

याद रखतें 


हैं जितना शुद्ध अंश को ,सही सूचना को .लब्बोलुआब यह है जितना ज्यादा 


हम संचित अंश को याददाश्त में लातें हैं उतना ही उसमें मिलावट (विक्षोभ 


,विचलन ) बढ़ती   जाती  है .सूचना का विरूपण है यह .


अध्ययन में माहिरों ने 12 प्रतियोगियीं की लगातार तीन दिनों तक याददाश्त   

परीक्षण - जांच की .पहले दिन इन्हें एक कंप्यूटर ग्रिड पर 180 चीज़ों को दी 

हुई निर्धारित जगह पर जचाने के लिए कहा  गया।थोड़ा हटके थी चीज़ों की 

परस्पर स्थिति .दूसरे   दिन भी  इन्हें चीज़ों को बतलाई हुई जगह पर ही 

व्यवस्थिति करने को कहा गया .24 घटे बाद यही परीक्षण फिर दोहरवाया 

गया .

चीज़ों की वास्तविक पारस्परिक दूरी से रखी गई चीज़ों का अंतर मापा गया 

,पता चला तीसरे दिन इन्हें इनकी वास्तविक दूरी से बहुत निकट  निकट रखा 

गया परस्पर .


याददाश्त से जुड़ा यह नायाब प्रयोग था ,प्रतियोगियों को इल्म ही नहीं था 


पहले दिन चीज़ें कितनी दूरी पर एक दूसरे  के सापेक्ष रखी  गईं  थीं .

यादाश्त से स्मृति में लाई गईं दूरियां इन वास्तविक दूरियों से भिन्न थीं .


होता क्या है आखिर हमारी याददाश्त के साथ ?

कंप्यूटर में विशिष्ट जानकारी तक प्रतियोगी पहुँच ही नहीं पाए थे .हम भी 

संचित सूचना के पास ठीक से पहुँच नहीं पाते हैं ,स्मृति में वस्तु स्थिति को 

ला ही नहीं पाते हैं .

लगता है हमारा दिमाग एक चीज़ों से बेतहाशा लबालब भरी किसी  स्कूल की 

 आलमारी की 

तरह हैं जिसमें किताबें ,पन्नों को समेटें रखने वाले  कठोर  कवर्स (बाइनडर्स 

),इधर 

उधर की और चीज़ें रखीं हैं .जितनी बार आप आलमारी खोलेतें हैं कुछ  चीज़ें

 टपक जातीं हैं . आप उन्हें संजो के यथा स्थान रखने की कोशिश करतें हैं 

.आलमारी बंद कर देतें हैं .फिर एक दिन आप आलमारी खोलतें हैं देखतें हैं 

आपकी चाबियाँ ही गायब हैं कुछ बिलकुल नए पेन आलमारी में दिखलाई 

देते  हैं .



दिमाग उन चीज़ों को पहले देखता है जहां पहुंचना उसके लिए सबसे आसान 

है .बस ऐसा ही कुछ याददाश्त में चीज़ों को लाते वक्त होता होगा .कुछ नै ही 

चीज़ें आ जातीं हैं स्मृति में .


अध्ययन के नतीजे संशय और भय दोनों ही पैदा करतें हैं .

क्या याददाश्त टेलीफोन गेम के उस खेल की तरह हैं जिसमें असल सूचना 




वही  है जो खेल में शामिल आखिरी बच्चे तक पहुंची थी . आखिर असलियत 

के कितना करीब या उससे दूर होती है याददाश्त ?

आप याददाश्त के काम करने के तरीके पे सवाल दागते हुए ही रह जातें हैं .


शोधकर्ता चुटकी लेते हुए कहतें हैं -सूचना को पुख्ता करने का एक ही तरीका 

है -

याददाश्त को बढ़ाने के लिए अपनी आँखें मींचे रहिये .

Your memory is like a game of telephone




Remember the game "telephone"? Someone starts by saying a sentence to the person next to them. That person then turns to someone else and repeats what they heard. Somehow, by the time the sentence gets to the last person in line, it's all mixed up and barely resembles the original.
Apparently our memories operate in the same way.
A study published recently in the Journal of Neuroscience looks at how we retrieve memories. It's a well-known phenomenon that retrieval is good for memory - the more you remember something, the longer you'll remember it for.
The catch, researchers have discovered, is that each time you retrieve a memory you forget or add small things to it, and the next time you recall the information, you'll remember what you remembered.
"Our memories aren’t like a photograph," says lead study author Donna Bridge. "We mix up details, we forget things. We’re likely to remember this incorrect information just as much as we are the correct (memory)."

In other words, the more you recall an event, the more distorted your memory of that event may be.
Bridge, a postdoctoral fellow at Northwestern University's Feinberg School of Medicine, asked 12 participants to take a memory test on three subsequent days. The first day, study participants repeatedly placed 180 objects in an assigned location - different for each one - on a computer screen grid. The second day they were asked to place those objects in the same positions. Twenty-four hours later, they did it again.
Bridge measured the distance between where participants placed the object and the correct assigned location. She found that by the third day, participants were placing the object much closer to where they placed the object on the second day than where it was supposed to go.
"This act of remembering ... is an experience in itself," Bridge says. "You might not even be able to distinguish between the original memory and the subsequent event of remembering it."
The researchers have a couple of theories as to what exactly is happening.
One is that it's an access problem. Your brain could be like a really full closet - each time you remember something, your brain creates a new item similar to the first and stores it up front. When you go to grab that memory again, you grab the one that's easiest to access.
The other theory is that your brain has a storage problem. Imagine a school locker full of books, binders and miscellaneous junk. Every time you open that locker to grab the memory something falls out, or your brain throws in whatever you happen to have in your hands. Next time you open the locker your keys are missing and a new set of pens has magically appeared.
In a way, the results of the study are kind of creepy. If every memory you have is like the last sentence in a game of telephone, how close is it to what actually happened?
"It makes you question everything about how the system works," Bridge says with a laugh.

12 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

विचारों का रेला,
ठहरने का खेला,
लगने लगा है,
तरंगों का मेला।

रविकर ने कहा…

याद-दाश्त अच्छी रहे, सिखा रहे गुर गूढ़ ।

हुई आज कमजोर यह, क्या जवान क्या बूढ़ ।

क्या जवान क्या बूढ़, भुलक्कड़ लेकिन बनिए ।

लाभ दिखे प्रत्यक्ष, उधारी लेकर तनिये ।

भूल बुरी हर बात, साथ में हुई घटित जो ।

कर ईश्वर को याद, हुआ है हृदय व्यथित जो ।।

सदा ने कहा…

बहुत सही कहा आपने ... बेहतरीन

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

sagar me moti jaisee jankaari...dhanyavad...

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

रोचक जानकारी

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

wah.. rochak!!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बेहतरीन एक अच्छी जानकारी,,,,

RECENT POST LINK...: खता,,,

Rajesh Kumari ने कहा…


आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ३० /१०/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है |

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत बढ़िय जानकारी ..... छोटी कक्षाओं में भी इस तरह के खेल कराये जाते हैं ॥

SM ने कहा…

excellent title

रचना दीक्षित ने कहा…

वाह दिमाग की हार्ड डिस्क का विश्लेषण बहुत उम्दा है. बढ़िया जानकारी.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

जैसे भोंपूवाले रिकार्ड पर घूमनेवाली सुई,
ऐसी स्मृति हुई .
पर ध्यान कहाँ रहता है एकसार !
केन्द्रीकरण की कमी से
नोक असली राह से खिसक गई !