सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

सीख वाकू दीजिए जाकू सीख सुहाय ,


रविकर 
मम रचना के दोष जब, इंगित करते लोग |
मैं तो मन से मानता, यही सही संयोग ||


सीख वाकू दीजिए जाकू सीख सुहाय ,

सीख न बांदरा दीजिए ,बैया का घर जाय .



कहतें हैं बंदर के हाथ में उस्तरा नहीं देना चाहिए .बंदर के हाथ में, आ गई हल्दी की गांठ ,खोल बैठा पंसारी की दूकान .

हरेक को आईना, मत दिखाओ भाई साहब! मन ने आज ये बात खुद से कही .और इसी के साथ एक पुरानी बात याद आ गई .हुआ यूं हम स्पोट इवेलुएशन में बैठे उत्तर पुस्तिकाएं जांच रहे थे ,महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी के प्रांगण में .ब्रेक में नाश्ता मिलता था -पूछा  गया क्या खाओगे ?

हमारे एक साथी  झट से बोले सेंडविच .अरे !हमारे मुंह से अनायास निकल गया भाई साहब -ये लफ्ज़ सैनविच होता है न की सैंड . सैनविज 

भी है इसका उच्चारण .

ज़वाब मिला माइंड योर ऑन लेग्विज मिस्टर शर्मा !

लेकिन साहब क्या करें हम भी अपनी आदत से मजबूर हैं जितनी अपना समझ है उसके मुताबिक़ यदि हमें लगता है कि कोई भाई ब्लोगिंग में अनुस्वार /अनुनासिक की अनदेखी कर रहा है .हम जाके चुपके से उसे ठीक कर देतें हैं अपनी टिपण्णी में इशारे से .शब्दों में उसका उल्लेख नहीं करते हैं .बस ब्रेकिट में शुद्ध रूप लिख देतें हैं .

अब भाई साहब !अगर भगवान  ने अगर आपको एक नाक दी है तो उसका इस्तेमाल सिर्फ एहम साधना के लिए तो नहीं ही होना चाहिए .

जब बच्चा पैदा होता है वह दस हज़ार अलग लग गंधों को पहचान सकता है .उसकी माँ की जर्सी गर्म स्वेटर या कोई और वस्त्र बाकी वस्त्रों में मिलादों वह उसे पहचान लेता है .

कुत्तों में यह घ्राण शक्ति विकसित होती है क्योंकि वह भाषा नहीं जानते .हमें  क्योंकि एक भाषा भी सिखलाई जाती है इसीलिए धीरे धीरे गंधों की हमारी समझ छीजने लगती है .घ्राण शक्ति विकसित नहीं हो पाती .चंद गंधों की शिनाख्त तक सीमित हो जाती है और कुछ में तो यह बस एक आयामीय होकर ही रह जाती है .वरना हम उन गंधों को भी पहचानते हैं जिनसे हमारा वास्ता तब पड़ा था जब हम मात्र ८० दिन के थे लेकिन तब क्यों कि कोई भाषा हम नहीं जानते थे तो अब उस गंध से सामना होने पर उसे पहचानते तो हैं नाम नहीं दे पाते .

उनकी किसी चूक की और संकेत कर दो -करके देख लो बघनखे पहन खड़े हो जातें हैं आपका मुंह नोचने को .लीजिए एक बानगी पेश है .



2012/9/30 Virendra Kumar Sharma <veerubhai1947@gmail.com>
सुप्रिय रचना जी !मैं कोई भाषा विद नहीं हूँ और न ही साहित्य का छात्र रहा हूँ .शुद्ध विज्ञान की दुनिया का शुष्क आदमी हूँ

.मुझसे भी  टंकण  की गलतियां होतीं हैं हुईं हैं .कम्प्यूटर   टंकण और शब्दकोश की भी सीमाएं रहतीं हैं ,फिर भी कोई इधर इशारा कर जाए तो अच्छा लगता है मुझे .आखिर हम एक ही वृहद् परिवार के सदस्य हैं .

आपकी पोस्ट को तो मैंने बढ़िया ही कहा है .

अशुद्धियों का कहाँ ज़िक्र किया है मैंने ? .अकसर मज़ाक ज़रूर कर लेता हूँ -भाई साहब नाक दी है भगवान ने तो उसका इस्तेमाल करो ,अनुनासिक ,अनुस्वार से परहेज़ क्यों रखते हो .बिंदी और चन्द्र बिंदु की अपनी शोभा और ज़रुरत है हमारी हिंदी को ,हिंदी चिठ्ठाकारी को .इति नेहा और स्नेह से 

वीरुभाई ,४३,३०९ ,सिल्वर -वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन  ,४८.१८८ 

2012/9/30 रचना <indianwomanhasarrived@gmail.com>
टंकण की गलियाँ खोजने से बेहतर विकल्प भी हैं ब्लोगिंग में

2012/9/30 Virendra Kumar Sharma <noreply-comment@blogger.com>
Virendra Kumar Sharma has left a new comment on your post "Proficient Satisfied Lotus Means TUG OF WAR":


वैसे tug ऑफ़ वर(रस्सा कसी ) में वही जीतता हैं जिसका खिलाड़ी तगड़ा होता हैं और रस्सी के छोर पर बंधा होता हैं , सब के हाथ से रस्सी छुट(छूट)......छूट ...... भी जाए तब भी अंगद की तरह उसका पाँव नहीं हिलता .


अपनी अपनी रस्सी तो संभलती नहीं है आज कल के proficient लोगो(लोगों )....लोगों ..... से और दूसरो(दूसरों )....दूसरों .... के घरो(घरों )....घरों .... के बिम्ब और प्रतीक की चिंता खाए जाती हैं . इतनी लापरवाही सही नहीं हैं , जिनके हवाले देश की सीमाए(सीमाएं )...सीमाएं ....... हो वो अपना घर ना संभाल सके तो LOC पर क्या होगा . अब ceasefire नहीं होता हैं आज कल , वो ज़माने ख़तम हुए


बाकी कुछ विध्वंसक मानते मानते दिव्य-रचना कह कर satisfied होते हैं आखिर सच हमेशा सच ही होता हैं ,विध्वंसक रचना ही दिव्य होती हैं क्युकी(क्योंकि )....क्योंकि .... विध्वंस के बाद ही सृजन होता हैं

बढ़िया प्रस्तुति है .

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Posted by Virendra Kumar Sharma to ब्लॉगर "रचना " का ब्लॉग " बिना लाग लपेट के जो कहा जाए वही सच है " at September 30, 2012 6:54 AM

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच ही है..

रविकर ने कहा…

मम रचना के दोष जब, इंगित करते लोग |
मैं तो मन से मानता, यही सही संयोग ||

अशोक सलूजा ने कहा…

वीरू भाई कहते सच हैं ...पर सब मानते नही
मैं तो आप से मिल चूका .पर सब जानते नही!
राम-राम वीरू भाई :-))

Satish Saxena ने कहा…

वीरू भाई ,
आपके प्रोफाइल पर आपके ब्लॉग का लिंक नहीं मिलता , अन्य तमाम लिंक भरे पड़े हैं ! कृपया अपना प्रोफाइल गूगल प्लस से बदल कर ब्लोगर प्रोफाइल कर लें , अन्यथा कोई आपको तलाश नहीं कर पायेगा !
:)