शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

श्रीमदभगवद गीता अध्याय चार :श्लोक (११-१३ )

श्रीमदभगवद गीता अध्याय चार :श्लोक (११-१३ )


प्रार्थना और भक्ति का मार्ग 



ये यथा मां प्रपद्यन्ते ,तांस तथैव भजाम्यहम 

मम वर्त्मानुवर्तन्ते ,मनुष्या : पार्थ   सर्वश :(४. १ १ )


हे अर्जुन ,जो भक्त जिस किसी भी मनोकामना से मेरी पूजा करते हैं मैं उनकी मनोकामना की पूर्ती 

करता हूँ।मनुष्य अनेक प्रकार की इच्छाओं की पूर्ती  के लिए मेरी शरण लेते हैं। 

मांगो और तुम पाओगे ,खोजो और तुम्हें मिलेगा ,दस्तक दो और तुम्हारे लिए द्वार खुल जाएगा। 

माया के कारण अधिकतर लोग  स्वास्थ्य ,धन ,सफलता आदि अस्थाई भौतिक लाभ खोजते हैं 

,आत्म ज्ञान और प्रभु के चरणों की भक्ति नहीं। 

भगवान् कहते हैं मुझे जो  जिस रूप में भजता है जैसे भी प्रेम करता है मैं भी  उसे उसी रूप 

मेप्राप्त होता हूँ ,प्रेम करता हूँ। सन्देश यह है जीवन में कहीं भी आप हों जिस भूमिका में भी हो 

भगवान की तरफ जाने के लिए कोई न कोई रास्ता मिल ही जाएगा। 


जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी (रामचरितमानस )



सुदामा को मित्र रूप में भगवान् कृष्ण मिले द्रौपदी को रक्षक के रूप में। दुर्योधन साड़ी खींचता 

खींचता खुद ही कोमा में चला गया।द्रौपदी ने इतना ही कहा था -द्वारकाधीश आओ रक्षार्थ। 

भगवाना कहते हैं मेरे तुम्हारे बहुत रिश्ते हैं मुझे किसी भी भाव से याद करो मैं उसी भाव से 

तुम्हारे पास आऊँगा।  होता हूँ। 

लंका विजय के बाद जब श्री राम अयोध्या लौटे तो उन्होंने नगर वासियों की सुविधा के लिए एक 

साथ अनेक रूप धरे ताकि सब अपने अपने भाव से उन्हें देख सकें। जिस रूप में तुम भजोगे उसी 

रूप मेतुम्हें भगवान् मिलेंगे। 


काङ्ग्क्शन्त : कर्मणाम सिद्धिं ,यजन्त इह देवता 

क्षिप्रं हि मानुषे लोके ,सिद्धिर भवति कर्मजा। (४ १२ )


कर्मफल के इच्छुक संसार के साधारण मनुष्य देवताओं की पूजा करते हैं ,क्योंकि मनुष्य लोक में 

कर्म फल शीघ्र ही प्राप्त होते हैं। 

आपने देखा होगा जितनी भीड़ शनि  के मंदिर में होती है उतनी और किसी मंदिर में नहीं होती और 

शनि में भी शनि के किसी ख़ास मंदिर का रुख करते हैं भगत (सांसारिक प्राणि )लेकिन ये 

प्राप्तियां अल्पकालिक होती हैं जल्दी ही चुक भी जाती हैं। 

भाव यहाँ यह है कर्मों के फलों की शीघ्र प्राप्ति चाहने वाले देवताओं की पूजा करते हैं। कर्मों से होने 

वाली सिद्धि फिर जल्दी समाप्त  भी हो जाती है। भले कोई किसी देवता से कोई सिद्धि उसे खुश 

करके प्राप्त  कर ले। 

चातुर्वणर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश :

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम। (४. १ ३ )

मेरे द्वारा ही चारों वर्ण अपने अपने गुण ,स्वभाव और रूचि के अनुसार बनाए गए हैं। सृष्टि की रचना आदि कर्म के कर्ता होने पर भी मुझ परमेश्वर   को अविनाशी अकर्ता ही जानना चाहिए। (क्योंकि प्रकृति के गुण ही संसार को चला रहे हैं ). 

गौर तलब है वर्ण व्यवस्था पर ही सनातन विचारधारा ,सनातन धर्म की इमारत खड़ी  है।कर्म के द्वारा कृति बनती है जो ज्ञान में प्रवीण है वह ब्राहमण है ,जो लड़ाई में माहिर है वह क्षत्रिय है देश की सीमा के रक्षा  करता है ,जो व्यापार में प्रवीण है वह वैश्य है। शूद्र में विनम्रता का गुण होता है।वह सेवा करता है। 

The four categories of  occupations were created by me according to people's qualities and activities .Although I am the creator of this system ,know me to be the non -doer and eternal .


The  Vedas classify people into four categories ,not according to their birth ,but according to their natures.Such varieties of occupations exist in every society .Even in communist nations where equality is the overriding principle ,the diversity in human beings cannot be smothered .There are the philosophers who are the communist party think tanks,there are the military men who protect the country ,there are the farmers who engage in agriculture ,and there are the factory workers .

The Vedic philosophy explains this variety in more scientific manner ,It states that the material energy is constituted of three gunas (modes ):sattva guna (mode of goodness ),rajo guna(mode of passion ),and tamo guna (mode of ignorance ).The Brahmins are those who have a preponderance of the mode of goodness .They are disposed towards teaching and worship .The Kshatriyas are those who have a preponderance of the mode of passion mixed with a small amount of goodness .They are inclined toward administration and management .The Vaishyas are those who possess the mode of passion mixed with some mode of ignorance .Accordingly ,they form the business and agriculture class .Then there are the Shudras ,who are predominated by the mode of ignorance .They form the working class .This classification was neither meant to be according to birth ,nor was it unchangeable .Shree Krishana explains in this verse that the classification of the Vranashram system was according to people's qualities and activities.


Although God is the creator of the scheme of the world ,yet he is the non -doer .This is similar to the rain .Just as rain water falls equally on the forest ,yet from some seeds huge banyan trees sprout ,from other seeds beautiful flowers bloom ,and from some thorny bushes emerge.The rain ,which is impartial ,is not answerable for this difference .In the same way ,God provides the souls with the energy to act ,but they are free in determining what they wish to do with it ; God is not responsible for their actions .


6 टिप्‍पणियां:

Anupama Tripathi ने कहा…

जीवन का विस्तार और चुनाव स्वयं का .....
सार्थक ज्ञानवर्धक आलेख ।आभार ।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

ईश्वर निराकार है ,जिस रूप में आप पूजना चाहे पूज सकते हैं उसीरूप में आपको मिलेगा ...ज्ञान वर्धक पोस्ट
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ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सुंदर मार्ग दिखाया.

रामराम.

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जो ईश्वर को जिस रूप में चाहता है, ईश्वर उसे उसी रूप में मिलते हैं।

Anita ने कहा…

जीवन में कहीं भी आप हों जिस भूमिका में भी हो
भगवान की तरफ जाने के लिए कोई न कोई रास्ता मिल ही जाएगा।

जाने अनजाने हर कोई उसकी तरफ ही जा रहा है..आभार!