मानस से मेरी पसंद :
(१)सुभ अरु अशुभ सलिल सब बहई ,सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ,
समर्थ कहुं नहिं दोषु गोसाईं ,रवि पावक सुरसरि की नाईं।
गंगा जी में शुभ (साफ़ )और अशुभ (गंदा )जल बहता है ,पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता। (कमाऊ सामर्थ्यवान पूत पे कौन ऊंगली उठाता है भले उसमें लाख दोष हों )
(२) सुरसरि जल कृत बारुनि जाना ,कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ,
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें ,ईस अनीसहि अंतरु तैसें।
गंगाजल से भी बनाई गई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है ,ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है। ईश्वर पतित पावन है जीव -आत्मा पतित है। (शुद्ध रूप में आत्मा भी परमात्मा की तरह पावन है ,शरीर में आने पर विकारों से आच्छादित हो जाती है जैसे झंझा की धूल सूर्य को ढक लेती है । )
(३) जद्यपि जग दारुन दुख नाना ,सब ते कठिन जाति अवमाना ,
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा ,बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा।
यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं ,तथापि जाति -अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझ कर सतीजी (पारवती जी )को बड़ा क्रोध आया। उनकी माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया -बुझाया।
प्रसंग प्रजा पिता दक्ष द्वारा आहूत यज्ञ में शिव जी का अंश -भाग(हिस्सा ) न देख कर पार्वती जी अति क्रुद्ध हो जाती हैं यद्यपि यज्ञ में भी न तो उन्हें न पति शिव को निमंत्रित किया गया था। पति के लाख रोकने पर भी वह यज्ञ में चली आईं थीं .
गीता में भी कृष्ण अर्जुन का क्षत्रीय भाव जगाते हुए उन्हें कुल और जातिय गौरव याद दिलाते हैं क्षत्राणी इसी दिन के लिए पुत्र जनती है कि वह एक दिन जाति -कुल -धर्म देश की रक्षा के लिए खड़ा हो जाएगा और तुम अर्जुन कायरों जैसी बातें कर रहे हो। पार्वती भी यग्य में कूदके भस्म हो गईं थीं पति का पिता द्वारा अपमान देख कर। दक्ष को भी उन्होंने खूब लताड़ा था।
(४ )जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा ,जाइअ बिनु बोलेहुँ न संदेहा ,
तदपि बिरोध मान जहँ कोई ,तहां गए कल्यानु न होई।
यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र ,स्वामी ,पिता और गुरु के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिए तो भी जहां कोई विरोध मानता हो ,उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।
संदर्भ :दक्ष का शिव से पुराना वैर भाव था अत : यज्ञ में न उन्होंने शिव को बुलाया था न पार्वती को। शिव ने पार्वती को समझाया था। पर वह नहीं मानी।
तुलसी दास ने अन्यत्र भी कहा है -
आवत ही हरखे नहीं, नैनन नहीं सनेह ,
तुलसी तहां न जाइये, चाहे कंचन बरखे मेह।
(५ )कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा ,यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ,
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं ,हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं।
शिव जी ने कहा -तुमने बात तो अच्छी कही ,यह मेरे मन को भी भायी पर उन्होंने न्यौता नहीं भेजा ,यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़ कियों को बुलाया है ,किन्तु हमारे वैर के कारण तुमको भी भुला दिया।
ॐ शान्ति
(१)सुभ अरु अशुभ सलिल सब बहई ,सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ,
समर्थ कहुं नहिं दोषु गोसाईं ,रवि पावक सुरसरि की नाईं।
गंगा जी में शुभ (साफ़ )और अशुभ (गंदा )जल बहता है ,पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता। (कमाऊ सामर्थ्यवान पूत पे कौन ऊंगली उठाता है भले उसमें लाख दोष हों )
(२) सुरसरि जल कृत बारुनि जाना ,कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ,
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें ,ईस अनीसहि अंतरु तैसें।
गंगाजल से भी बनाई गई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है ,ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है। ईश्वर पतित पावन है जीव -आत्मा पतित है। (शुद्ध रूप में आत्मा भी परमात्मा की तरह पावन है ,शरीर में आने पर विकारों से आच्छादित हो जाती है जैसे झंझा की धूल सूर्य को ढक लेती है । )
(३) जद्यपि जग दारुन दुख नाना ,सब ते कठिन जाति अवमाना ,
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा ,बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा।
यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं ,तथापि जाति -अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझ कर सतीजी (पारवती जी )को बड़ा क्रोध आया। उनकी माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया -बुझाया।
प्रसंग प्रजा पिता दक्ष द्वारा आहूत यज्ञ में शिव जी का अंश -भाग(हिस्सा ) न देख कर पार्वती जी अति क्रुद्ध हो जाती हैं यद्यपि यज्ञ में भी न तो उन्हें न पति शिव को निमंत्रित किया गया था। पति के लाख रोकने पर भी वह यज्ञ में चली आईं थीं .
गीता में भी कृष्ण अर्जुन का क्षत्रीय भाव जगाते हुए उन्हें कुल और जातिय गौरव याद दिलाते हैं क्षत्राणी इसी दिन के लिए पुत्र जनती है कि वह एक दिन जाति -कुल -धर्म देश की रक्षा के लिए खड़ा हो जाएगा और तुम अर्जुन कायरों जैसी बातें कर रहे हो। पार्वती भी यग्य में कूदके भस्म हो गईं थीं पति का पिता द्वारा अपमान देख कर। दक्ष को भी उन्होंने खूब लताड़ा था।
(४ )जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा ,जाइअ बिनु बोलेहुँ न संदेहा ,
तदपि बिरोध मान जहँ कोई ,तहां गए कल्यानु न होई।
यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र ,स्वामी ,पिता और गुरु के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिए तो भी जहां कोई विरोध मानता हो ,उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।
संदर्भ :दक्ष का शिव से पुराना वैर भाव था अत : यज्ञ में न उन्होंने शिव को बुलाया था न पार्वती को। शिव ने पार्वती को समझाया था। पर वह नहीं मानी।
तुलसी दास ने अन्यत्र भी कहा है -
आवत ही हरखे नहीं, नैनन नहीं सनेह ,
तुलसी तहां न जाइये, चाहे कंचन बरखे मेह।
(५ )कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा ,यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ,
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं ,हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं।
शिव जी ने कहा -तुमने बात तो अच्छी कही ,यह मेरे मन को भी भायी पर उन्होंने न्यौता नहीं भेजा ,यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़ कियों को बुलाया है ,किन्तु हमारे वैर के कारण तुमको भी भुला दिया।
ॐ शान्ति
2 टिप्पणियां:
मन को शांति प्रदान करता आलेख, शुभकामनाएं.
रामराम.
सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीय वीरू भाई
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