सत रज रमते कर्म में, तम तो लापरवाह |
लिप्त भोग में काल कुछ, तम देता फिर दाह |
श्रीमदभगवत गीता अध्याय चौदहवाँ (श्लोक १६ -२० )
(१६ )सात्विक कर्म का फल शुभ और निर्मल कहा गया है ,राजसिक कर्म
का फल दुःख और तामसिक कर्म का फल अज्ञान कहा गया है।
They say ,that the fruit of eminent (elevated )action is pure
and Satvika
but the fruit of the Rajas (Mundane)is a series of grief and
the fruit of
the Tamas (Abominable action )is a series of ignorance .
(१७ )सतोगुण से ज्ञान ,रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से लापरवाही
,भ्रम और अज्ञान उत्पन्न होते हैं।
From Sattva arises wisdom ,greed indeed from Rajas
;heedlessness ,error and also ignorance arise from from
Tamas.
(१८ )सत्त्व गुण में स्थित व्यक्ति उत्तम लोकों (स्वर्ग )को जाते हैं
,राजस
व्यक्ति मनुष्य योनि में आते हैं और तमोगुण की हीन प्रवृत्तियों में
स्थित तामस मनुष्य नीच योनियों में जन्म लेते हैं।
Those who have increased Sattva in due succession attain
beatitude ;the rajasikas remain in the middle (experiencing
grief due to recurring births )and those of predominant
Tamas affix themselves to the activities of the abominable
quality and go down by degrees.
(१९ )जब विवेकी मनुष्य तीन गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता
नहीं समझता है तथा गुणों से परे मुझ परमात्मा को तत्त्व से जान लेता
है उस समय वह मेरे स्वरूप अर्थात सारुप्य (रूप साम्य) मुक्ति को प्राप्त
कर लेता है।
जो इस बात में पूर्ण विश्वास नहीं रखता की ईश्वर ही सबका नियंत्रण
करते हैं एक ईश्वर ही सबका नियंता है और अपने आप को स्वामी
(मालिकाना
भाव पाले रहता है ),कर्ता
और भोक्ता मान बैठता है ,वह कर्म के नियमों के अनुसार बंध जाता है।
कर्मों के बंधन से बंध जाता है। वस्तुत :स्वयं भगवान् ही प्राणियों के
द्वारा प्राणियों की रचना तथा उन्हीं के द्वारा उनका संहार भी करते हैं।
सब अच्छे बुरे कर्मों को करने की शक्ति प्रभु से आती है ,पर अंत में हम
ही अपने कर्मों के लिए उत्तरदाई हैं,क्योंकि हममें सोचने की शक्ति भी
है। प्रभु ने हमें काम करने की शक्ति दी है ,पर हम उस शक्ति को अच्छे
या बुरे तरीके से उपयोग में लाने के लिए स्वतन्त्र हैं और तदनुसार मुक्त
या बंधनमय होते हैं।
माया द्वारा निर्मित अज्ञान के कारण व्यक्ति अपने को कर्ता समझता है
और परिणाम स्वरूप कर्म -बंधन में बंध जाता है तथा आवागमन के चक्र
में पड़ जाता है। जब भी कोई अपने को कुछ करने वाला घोषित करता है
या समझता है ,'मैं ने किया है ये' का राग अलापता है ,तब वह कर्ता की
भूमिका ग्रहण करता है ,अपने कर्मों के प्रति उत्तरदायी होता है और
आवागमन के जटिल कर्मजाल में ,फंदे में फंस जाता है।
When the seer perceives no agent of action other than the
Gunas(Trigunas) and knows the self as different from the
Gunas ,then he attains my disposition .
(२० )जब मनुष्य देह की उत्पत्ति के कारण तथा देह से उत्पन्न तीनों
गुणों से परे हो जाता है ,तब वह मुक्ति प्राप्त कर जन्म, वृद्धावस्था और
मृत्यु ,के दुखों से विमुक्त हो जाता है।इसे ही जीवन मुक्ति कहते हैं।
The embodied self transcending these three Gunas from
which the body has its origin ,freed from the sorrows of birth
,death and senility enjoys the immaculated self .
ॐ शांति
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Posted: 01 Sep 2013 10:51 PM PDT
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1 टिप्पणी:
तीनों गुणों से पार हुआ जो वही मुक्त है, सुंदर ज्ञान !
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