गुरुवार, 12 सितंबर 2013

पानी में मीन पियासी , मोहे सुन सुन आवत हांसी। जलथल सागर खूब नहावे , भटकत फिरे उदासी।

                                                      कबीर की एक मशहूर उलटवासी :भाव -सार 

पानी में मीन पियासी ,

मोहे सुन सुन आवत हांसी। 

जलथल सागर खूब नहावे ,

भटकत फिरे  उदासी। 

आतम ज्ञान निरो (बिना )नर भटके ,

कोई मथुरा कोई कासी ,

जैसे मृगा नाभि कस्तूरी ,

वन वन फिरे उदासी। 

जल बिच कमल ,कमल बिच कलियाँ ,

ता पर भंवर निवासी ,

सो मन वसि त्रै लोक भयो है ,

जती ,सती सन्यासी। 

जाको ध्यान धरै ,विधि हरिहर ,मुनिजन कहत अ -भासी ,

सो तेरे हरि मांहि बिराजे ,

परम पुरख अविनासी। 

हैं हांसी ,तोहि दूरि दिखावे ,दूर की बात निरासि ,

कहे कबीर सुनो भई साधो ,

गुरु बिन भरम  न जासि। 

सहज मिले अबिनासी। 

कबीर की इस उलटबासी में मीन आत्मा  का प्रतीक है जल संसार का। उसके सारे सुख साधनों वैभव का। कबीर कहते हैं संसार का रास्ता सुखों की ओर  नहीं जाता है। भटकाता है तृप्त नहीं करता है प्यास बढ़ाता  है।जब तक जीव को अपने स्वरूप (मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं हूँ ये शरीर मेरा है मैं शरीर नहीं हूँ )का बोध नहीं होगा तीर्थ करने का फिर कोई फायदा नहीं है।मैं परमात्मा का ही वंश हूँ।वह ईश्वर तत्व  मुझ में भी  है)   सुख तो व्यक्ति के अन्दर है परमात्मा का भी उसी के हृदय में वास है। वह मथुरा  -काशी जैसे तीर्थों में उसे ढूंढ रहा है उससे कोई प्राप्ति नहीं होगी। शरीर की यात्रा है यह। आत्मा का परमात्मा से योग नहीं है। यह वैसे ही है जैसे तपती रेत  में  मृग सरोवर ढूंढता है जबकि परमात्मा की सुवास तो  उसकी  स्वयं की नाभि में विराजमान है।  

जैसे भंवरा कलियाँ के स्पर्श प्राप्त कर रहा है ,कलियाँ लेकिन कमल पर हैं और कमल स्वयं जल में है वैसे ही हमारा मन रुपी भंवरा स्पर्श की लालसा में कलियों से (संसार से )सुख प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है जबकि कमल स्वयं संसार रुपी जल में है।संसार तो माया है। जब तक मन उस त्रिलोकी से नहीं लगेगा फिर चाहे यंत्र  साधना करने वाला  जती हो या सत्य और नियम का पालन करने वाला सती हो साधु हो कोई भी हो ,उसकी(पर -मात्मा की ) भक्ति के बिना फिर  सब बेकार है। 

जिसका ध्यान ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों करते हैं वह अविनाशी ईश्वर तत्व  परमात्मा तेरे अन्दर निवास करता है मुनिजन ऐसा कहते हैं। दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। यह संसार एक मृग मरीचिका की तरह है जहां तप्त रेत पर दूर से तिरछा देखने पर ताल तलैया का भ्रम पैदा होता है लेकिन वहां कुछ होता नहीं है। ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु का संग ज़रूरी है फिर परमात्मा सहज  ही मिल जाएगा।  क्योंकि वह सही मार्ग बतलायेगा।

ॐ शान्ति   



प्रश्न :यदि परमात्मा ने हमें कर्म करने की स्वायत्तता न दी हुई होती ,हम उसे  प्रेम करें ही करें  वह  इस बात के  लिए भी हमें बाधित  कर सकता था। फिर माया का फंदा भी हमारे गिर्द न होता। आखिर परमात्मा ने माया रची ही क्यों और रच ही दी तो हमें दूसरा विकल्प परमात्मा को  भूलने का ) क्यों दिया ?

Free will is necessary for love 

उत्तर :प्रेम के लिए विकल्प ज़रूरी है चयन का। मशीन या फिर किसी माडल के साँचें टेम्पलेट को यह विकल्प उपलब्ध नहीं है। 

माया हमें विकल्प उपलब्ध कराती है। जब हम माया का तिरस्कार करते हैं तभी ईश्वर तत्व की प्राप्ति का विकल्प खुलता है। माया निठल्ले को ही पकड़ ती है । कभी कभी तो कच्चा भी चबा जाती है। माया और भक्ति दोनों स्त्रीलिंग हैं। एक नारी दूसरी नारी को नहीं रिझाती है। माया पकड़ ती 

ही उन्हें है जिन्हें ज्ञान का अहंकार हो जाता है जैसे रावण को हुआ था।

भगत का कुछ नहीं बिगाड़ पाती। प्रेम की प्रगाढ़ता भी कठिनतर विकल्प 

के उपलब्ध होने पर ही बढ़ती  है।  

Raman Maharishi was asked ,"Why did God create Maya ?He answered ,"To thicken the plot ."

माया ही जीव को ब्रह्म से प्रेम करना सिखलाती है। 

प्रश्न :मन को बुरा करने का उकसावा कौन देता है ?क्या ये काम माया करती है ?यदि ऐसा ही है तो ऐसा क्यों है?

उत्तर :बेशक भौतिक ऊर्जा(Material energy ),माया अनेकानेक  संसाधनों की ओर हमें  आकर्षित कर ,सुख भोग के रूप में उलझा कर परमात्मा  से विमुख कर देती है।लेकिन इसका डबल रोल है। जब हम इसके भुलावे में आकर इसे गले लगा लेते हैं हम दुखों को प्राप्त होते हैं। माया ही हमें दुःख देती है सजा के रूप में। हताशा के रूप में। और इस प्रकार (प्रकारांतर से )एक तरह से हमें परमात्मा को याद करने का मौक़ा भी देती है।  

माया परमात्मा की दासी है। भक्तिन है। जब सृष्टि एक दम से तमोप्रधान हो जाती है। माया गले से पकड़ के व्यक्ति को और डूबकी लगवाती है संसार रस में। इस तरह विनाश के शिखर तक सृष्टि को ले जाने में मदद करती है। तुलसी दास मानस में कहते हैं :

सो दासी रघुबीर की समुझें मिथ्या सोपि ,

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउं पद रोपि। 

अगंद की तरह मैं (माया )पाँव रोप कर निश्चय पूर्वक कहती हूँ  -भले मुझे मिथ्या कहा समझा जाता है लेकिन मैं सेविका परम पुरुष की हूँ जब तक तुम उसकी भक्ति नहीं करोगे उस एक ही प्रीतम प्यारे से प्रेम नहीं करोगे मैं टस से मस नहीं होऊंगी। 

Maya is a servant of God ,and its service is to torment souls who are forgetful of Him .Hence ,Maya will only release us when we surrender to its Master ,Shree Krishna .

सन्दर्भ -सामिग्री :SPIRITUAL DIALECTICS -BY SWAMI MUKUNDANANDA @Copyright 2011,Radha Govind Dham ,XVII/3305 ,Ranjit Nagar ,New -Delhi -110-008
India 

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Free Will vs God is the Doer

प्रश्न :आखिर सर्वप्रिय रचता  परमात्मा ने आत्माओं की रचना कर अपनी ही रचना को  इस  दुखपूर्ण संसार में दुःख झेलने के लिए क्यों अकेला छोड़ दिया  ?

उत्तर :एक दृष्टांत हाज़िर है इस जिज्ञासा के शमन हेतु -एक बहुत धनवान व्यक्ति था। उसका एक पंद्रह साला बेटा था। एक मर्तबा बेटा पिता के दफ्तर में नितांत अकेला था। तभी उसके हाथ एक पंद्रह साल पुराना रिसाला (अखबार )आ गया। सुर्खी बनी हुई खबर पर उसकी नजर पड़ी -अरबपति ने बच्चा गोद लिया। यह अरबपति और कोई नहीं उसका पिता  ही निकला। कुछ समय बाद जब वह धनवान व्यक्ति लौटा किशोर ने अशिष्टता पूर्वक पूछा -पिता श्री यह जो कुछ लिखा है सत्य है ?

अमीर बाप ने कहा बेटे यह सत्य है। इसका मतलब मैं आपका बेटा नहीं हूँ-बेटे ने कहा। पिता ने सहमति  में सिर  हिला दिया। उसने लगभग सदमे की स्थिति में आते हुए कहा - फिर मुझे क्यों गोद लिया। 

बेटे मेरे पास दुनिया की सारी  धन दौलत सारा एश्वर्य ज़रूर था लेकिन मैं नि :संतान था। मेरा कोई वारिस न था। मैं किसे वरसा देता ?

ऐसे ही परमात्मा के पास सब कुछ है लेकिन संतान के बिना वह उस सबका क्या करता ?लेकिन यह वरसा उसे ही मिलता है जो उसकी याद में रहते हुए ही सब कर्म करता है। परमात्मा वस्तु का नहीं  प्रेम का भूखा है। जो उसे प्रेम करता है वही  उसको प्राप्त होता है। वस्तु चढ़ाने वाले को वरसा नहीं मिलता है बलि चढ़ना पड़ता है प्रेम में। 

प्रश्न :जब हम उस परमपिता परमेश्वर के अंश हैं फिर हम गलतियों पे गलतियां क्यों करते जाते हैं ?

उत्तर :

We Suffer because We Have Chosen Maya 

सागर की हर बूँद भी खारी होती है। बेशक हम आत्माएं भी परमात्मा की तरह ही अपने मूल रूप में दिव्य और पवित्र रहती हैं लेकिन उसका ही अंश होने के कारण उसी का एक और गुण हमारे अन्दर आ गया। स्वतंत्र सत्ता प्राप्त है हमें मनमानी करने की। अपने कर्मों के नियंता हम स्वयं हैं। अब यह हमारे ऊपर है हम संसार की तरफ जाए या परमात्मा की  तरफ। उसकी श्रीमत (मनमना भव ,मध्या जी भव ) पर चले या अपनी मन मत पर।  

परमात्मा की तरफ पीठ करते ही माया हमें अपनी गिरिफ्त में ले लेती है। अज्ञान का पर्दा पड़ जाता है हमारी आँखों पर। इसीलिए हम एक के बाद दूसरी गलती करते जाते हैं। 

We have the Free Will to Act 

प्रश्न :जब करन-करावन हार वह परमात्मा ही है फिर आत्मा अपने किये (कर्म की भोगना )कर्म फल को  क्यों भोगती है ? 

उत्तर :कई लोग पुरुषार्थ (आत्मा के उत्थान के लिए किया गया कर्म )करना ऐसा बूझकर छोड़ देते हैं -हमारे हाथ में क्या है। हमारे अंदर जो परमात्मा है करनकरावन हार तो वही है।जैसी वह प्रेरणा देता है वैसा ही कर्म हम करते हैं। लेकिन यह दर्शन व्यवहारिक नहीं है जीवन और जगत के अनुकूल नहीं है। कृपया निम्न पे गौर करें :

(१) यदि करता परमात्मा ही होता तो फिर हमसे गलती ही क्यों होती  ?इसका मतलब है कर्म हमारी मर्जी से हो रहा है। 

(२ )यदि परमात्मा करता होता तो भोगना भी वही झेलता। उसके किए की भोगना हम क्यों झेलते फिर। लेकिन यह सृष्टि कर्म प्रधान है जैसा यहाँ बोवोगे वैसा ही काटोगे।  

कर्म प्रधान विश्व करि राखा ,

जो जस करहिं ,सो तस फल चाखा। 

(३)परमात्मा सर्वआत्माओं के प्रति तटस्थ रहता है। किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं करता है। यदि करता वह होता तो या तो हम सब अच्छा कर्म करते ,साधु होते। या फिर बुरा करके सबके सब राक्षस होते। 

लेकिन यह संसार विविधताओं से भरा हुआ है। प्रहलाद भी यहीं हुए हैं हिरण्यकशिपु  भी। इसका मतलब कर्म करने की स्वायत्ता सबको प्राप्त रही आई है। 

(४) यदि सभी कर्म उसकी प्रेरणा से ही होते फिर उसे वेदों ,उपनिषदों की रचना ही क्यों करनी पड़ती। श्रीमत पे चलने का मार्ग(भगवान् की तरफ ले जाने वाला मार्ग ) बतलाने  की ज़रुरत ही क्यों पड़ती। फिर तो उसे बस यही कहना था -हे विश्व की आत्माओं सब कुछ करने वाला मैं ही हूँ आपको अच्छे और बुरे कर्म को बूझने की ज़रुरत ही नहीं है। 

बेशक परमात्मा का हमारे अन्दर वास है और वह हमें काम करने की ताकत भी  देता है।लेकिन उस ताकत का हम इस्तेमाल कैसे करते हैं इसमें परमात्मा का कोई दखल नहीं रहा है। न्यूक्लीयर एनर्जी से बिजली भी बनती है क्रूज़ मिसायल भी। 

भगवान् ने हमें यह चक्षु देखने के लिए ही दिए हैं। क्या देखना हैं कैसे देखना है यह हम पर ही निर्भर करता है। आप चाहे भगवद भक्ति के लिए मंदिर जाएँ देव प्रतिमाओं के दर्शन करें या नेट पर वैब नर -नारियों को देखें दिगम्बर स्वरूप में।

I with a civilized eye is soul conscious .I with a criminal eye is body conscious .

एक रास्ता (श्रीमत )भगवान् की तरफ ले जाता है दूसरा (मनमत )देह और देह के संबंधों की तरफ। 

ख़ुदा  के वास्ते ख़ुदा पे तोहमत न लगाओ मेरे लाडलों ।   

ॐ शांति 

5 टिप्‍पणियां:

shalini rastogi ने कहा…

कबीर की उलटबासी की सुन्दर व्याख्या ... साँझा करने के लिए धयवाद!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सन्नाट और सपाट संवाद के प्रणेता, कबीर।

Anita ने कहा…

बहुत सारे प्रश्नों के सीधे सच्चे जवाब..सार्थक पोस्ट !

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

क्या बात!

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

आम के भी कितने ही प्रश्नों उत्तर समाये हैं उनके विचार