श्रीमदभगवत गीता चौदहवाँ अध्याय (श्लोक २० -२७ )
(२० )जब मनुष्य देह की उत्पत्ति के कारण तथा देह से उत्पन्न तीनों गुणों से परे हो जाता है ,तब वह मुक्ति प्राप्त कर जन्म ,वृद्धावस्था और मृत्यु ,के दुखों से विमुक्त हो जाता है।
(२१ )अर्जुन बोले -हे प्रभु ,इन तीन गुणों से अतीत मनुष्य के लक्षण क्या हैं ?उसका आचरण कैसा होता है ?और मनुष्य इन तीनों गुणों से परे कैसे हो सकता है ?
(२२-२३ )श्री भगवान् बोले -हे अर्जुन ,जो मनुष्य तीनों गुणों के कार्य ज्ञान ,सक्रियता और भ्रम में बंध जाने पर बुरा नहीं मानता और उनसे मुक्त होने पर उनकी आकांक्षा भी नहीं करता ,जो साक्षी के समान रहकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता तथा "गुण ही अपने अपने कार्य कर रहें हैं "ऐसा समझकर परमात्मा में स्थिर भाव से स्थित रहता है ;
(२४ -२५ )जो निरंतर आत्म भाव में रहता है तथा सुख दुःख में समान रहता है ; जिसके लिए मिट्टी ,पथ्थर और सोना बराबर हैं ;जो धीर है ;जो प्रिय -अप्रिय ,निंदा -स्तुति ,मान -अपमान तथा शत्रु -मित्र में समान भाव रखता है और जो सम्पूर्ण कर्मों में कर्ता पन के भाव से रहित है वह गुणातीत कहलाता है।
(२६ )जो व्यक्ति अनन्य -भक्ति से निरंतर मेरी उपासना करता है ,वह प्रकृति के तीनों गुणों को पार करके परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के योग्य हो जाता है।
(२७)क्योंकि ,मैं (परब्रह्म )ही अविनाशी अक्षरब्रह्म ,शाश्वत धर्म तथा परम आनंद का स्रोत हूँ।
इस प्रकार गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
ॐ शान्ति
(२० )जब मनुष्य देह की उत्पत्ति के कारण तथा देह से उत्पन्न तीनों गुणों से परे हो जाता है ,तब वह मुक्ति प्राप्त कर जन्म ,वृद्धावस्था और मृत्यु ,के दुखों से विमुक्त हो जाता है।
(२१ )अर्जुन बोले -हे प्रभु ,इन तीन गुणों से अतीत मनुष्य के लक्षण क्या हैं ?उसका आचरण कैसा होता है ?और मनुष्य इन तीनों गुणों से परे कैसे हो सकता है ?
(२२-२३ )श्री भगवान् बोले -हे अर्जुन ,जो मनुष्य तीनों गुणों के कार्य ज्ञान ,सक्रियता और भ्रम में बंध जाने पर बुरा नहीं मानता और उनसे मुक्त होने पर उनकी आकांक्षा भी नहीं करता ,जो साक्षी के समान रहकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता तथा "गुण ही अपने अपने कार्य कर रहें हैं "ऐसा समझकर परमात्मा में स्थिर भाव से स्थित रहता है ;
(२४ -२५ )जो निरंतर आत्म भाव में रहता है तथा सुख दुःख में समान रहता है ; जिसके लिए मिट्टी ,पथ्थर और सोना बराबर हैं ;जो धीर है ;जो प्रिय -अप्रिय ,निंदा -स्तुति ,मान -अपमान तथा शत्रु -मित्र में समान भाव रखता है और जो सम्पूर्ण कर्मों में कर्ता पन के भाव से रहित है वह गुणातीत कहलाता है।
(२६ )जो व्यक्ति अनन्य -भक्ति से निरंतर मेरी उपासना करता है ,वह प्रकृति के तीनों गुणों को पार करके परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के योग्य हो जाता है।
(२७)क्योंकि ,मैं (परब्रह्म )ही अविनाशी अक्षरब्रह्म ,शाश्वत धर्म तथा परम आनंद का स्रोत हूँ।
इस प्रकार गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
ॐ शान्ति
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर सर जी,
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