गीता में भगवान् कृष्ण के लिए प्रयुक्त संबोधन (विशेषण )और उनका
अर्थ
Appellations in the Bhagavad Gita :For Shri Krishna and Arjuna
(१)अच्युत :जिससे कभी चूक न हो ,जो कभी भूलें न करें ,अमोघ ,सदैव अभीष्ट की पूर्ती करने वाला (Infallible )
(२ )अरिसूदन :शत्रुओं का संहार (विनाश )करने वाला।
(३ )भगवान् :परमपुरुष (the Supreme Divine Personality )
(४ )गोविन्द :इन्द्रियों को परम सुख देने वाला ,गउओं का शौक़ीन ,गऊ प्रेमी ,गऊ जिसे प्रिय हों।
(५ )ऋषिकेश (हृषिकेश ):इन्द्रियों का देवता ,घुंघराले बालों वाला।
(६ )जगन्निवास :जिसमें समस्त संसार वास करता है।
(७ )जनार्दन :जो जन का रखवाला है ,कल्याण करने वाला हैजन जन का ।
(८ )केशिनिसूदन :केशी दैत्य को मारने वाला।
(९ )माधव :योगमाया का पति।
(१० )मधुसूदन :मधु राक्षस का वध करने वाला।
(११ )पुरुषोत्तम :परमपुरुष (पुरुषों में सर्वोत्तम ),परमात्मा ,पुरुष का एक अर्थ आत्मा भी है ,सर्वोत्तम आत्मा अर्थात परमात्मा ,सर्व -आत्माओं का पारलौकिक पिता (the Supreme Divine Personality.)
(१२ )वार्ष्णेय :वृष्णि कुल(गोत्र ,वंश ) का।
(१३ )वासुदेव :वसुदेव का पुत्र।
(१४ )विष्णु :the Supreme Lord Vishnu
(१५ )यादव :यदु कुल में उत्पन्न।
(१६ )योगेश्वर :योग का ईश्वर (कृष्ण की उत्पत्ति योग से भी बतलाई गई है )
गीता में अर्जुन के लिए प्रयुक्त (व्यक्तित्व वाचक ,गुणवाचक ,विशेषण
)संबोधन :
(१)अनघ :निष्पाप
(२)भारत श्रेष्ठ (भरतशभा ):the best of Bhartas (Bharatarshabha)
(3 )भारत सत्तमा :
(Bharata Sattama )-the best of the Bharatas
(4 )धनज्जय :जिसने धन को जीत लिया है।
(५)गुड़ाकेश :निद्रा जीत (जिसने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली है ).
(६ )कपिध्वज :जिसके ध्वज पे श्री हनुमान शोभायमान हैं।
(७ )कौन्तेय :जो कुंती का पुत्र है।
(८ )Kiriti :he who wears a diadem.जो हीरे का मुकुट पहने है किरीट
धारी है। किरीटि।
(९ )कुरु नंदन :जो कुरुओं का आनंद है।
(१० )कुरु श्रेष्ठ :कुरुओं में जो श्रेष्ठ है।
(११ )महाबाहु :शक्तिशाली भुजाओं वाला है जो। जिसके बाहुबल का सब
लौहा मानते हैं।
(१२ )पांडव :पांडू पुत्र
(१३ )पार्थ :जो पृथा (कुंती )का पुत्र है।
(१४ )परन्तप :जो शत्रुओं को झुलसाने (तपाने )वाला है।
(१५ )पुरुशाव्याघ्र"जो पुरुषों में बाघ ,टाइगर के समान है।
(१६ )सव्यसाँची (Savyasachin ):जो दोनों हाथों से तीर चला सकता है।
the one who can shoot arrows with both hands.
SRIMAD BHAGAVADGI:TA: CHAPTER -III(KARMA:YO:GA
VERSES 1 -15 )
श्रीमदभगवत गीता तीसरा अध्याय :कर्म योग
(१ )अर्जुन बोले -हे जनार्दन ,यदि आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं ,तो फिर हे केशव ,आप मुझे इस (युद्ध जैसे )भयंकर कर्म में क्यों लगा रहे हैं ?आप मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि को भ्रमित (विमोहित )कर रहें हैं। अत :आप उस एक बात को निश्चित रूप से कहिये ,जिससे मेरा कल्याण हो।
(२ )लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाले ,प्रसन्न करने वाले आप तो स्वभाव से ही कल्याण करने वाले हो मेरे लिए उस एक रास्ते को बता दो जिससे मैं अपने जीवन में कल्याण को प्राप्त हो सकूं। कभी आप कर्म को शिखर पे खड़ा कर देते हो कभी ज्ञान को।
(३ ) श्रीभगवान् बोले -हे निष्पाप अर्जुन ,इस लोक में दो प्रकार की निष्ठामेरे द्वारा पहले कही गई है। जिनकी रूचि ज्ञान में होती है ,उनकी निष्ठा ज्ञान योग से और कर्म में रूचि वालों की निष्ठा कर्म योग से होती है।
ज्ञान योग को सांख्य - योग या सन्यासयोग भी कहा जाता है। ज्ञानयोगी स्वयं को किसी भी कर्म का करता नहीं मानता है। ज्ञान का अर्थ है तात्विक अतीन्द्रीय ज्ञान। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि ज्ञान योग और कर्म योग दोनों ही परमात्मा की उपलब्धि के साधन हैं।जीवन में इन दोनों मार्गों का समन्वय श्रेष्ठ माना जाता है। हमें आत्म ज्ञान की साधना और नि :स्वार्थ सेवा दोनों को अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए।
(४ )मनुष्य कर्म का त्याग कर कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं होता। कर्म के त्याग मात्र से ही सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती।
(५ )कोई भी मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता ,क्योंकि प्रकृति के गुणों द्वारा मनुष्यों से परवश की तरह सभी कर्म करवा लिए जाते हैं। यहाँ तक की सांस लेना भी एक कर्म है। खाली दिमाग वैसे भी शैतान का घर कहा गया है। विचार ,शब्द और क्रिया से प्रसूत कर्म का पूर्ण त्याग किसी के लिए भी संभव नहीं है।
(६ )जो मंद बुद्धि मनुष्य इन्द्रियों को (प्रदर्शन के लिए )रोककर मन द्वारा विषयों का चिंतन करता रहता है ,वह मिथ्याचारी कहा जाता है।
(७ )परन्तु हे अर्जुन ,जो मनुष्य बुद्धि द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करके ,अनासक्त होकर ,कर्मेन्द्रियों द्वारा निष्काम कर्मयोग का आचरण करता है ,वही श्रेष्ठ है।
(८ )तुम अपने कर्तव्य का पालन करो ,क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
(९ )केवल अपने लिए कर्म करने से मनुष्य कर्म बंधन से बंध जाता है; इसलिए हे अर्जुन ,कर्मफल की आसक्ति त्यागकर सेवाभाव से भलीभाँति अपने कर्तव्यकर्म का पालन करो।
यज्ञ का अर्थ है त्याग ,नि :स्वार्थ सेवा ,निष्काम कर्म ,पुण्य कार्य ,दान ,देवों के लिए दी गई हवि -हवन के माध्यम से -की गई पूजा आदि।
(१० )सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि के आदि में यज्ञ (अर्थात नि :स्वार्थ सेवा )के साथ प्रजा का निर्माण कर कहा -"इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों को इष्ट फल देने वाला हो।"
(११ )तुम लोग यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और देवगण तुम लो गों को उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त होगे।
देव का अर्थ है परमप्रभु का प्रतिनिधि ,अलौकिक शासक ,दिव्य पुरुष ,वह शक्ति, जो इच्छाओं की पूर्ती करता है ,जो नियंता और रक्षक है। सुधिजन अपना जीवन दूसरों की सेवा करके सफल बनाते हैं ,जबकि मूर्ख लोग दूसरों को हानि पहुंचाकर भी अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। अकेले प्रवेश करने वालों की इच्छा के लिए स्वर्ग के द्वार भी बंद रहेंगे। वेदों के अनुसार दूसरों की सहायता करना व्यक्ति के लिए श्रेष्ठतम पुण्य कर्म है। "एक दूसरे की सेवा करना "सृष्टि कर्ता ब्रह्मा का प्रथम आदेश है ,जिसे भगवान् कृष्ण ने गीता में पूर्ण रूप से बताया है।
(१२ )यज्ञ द्वारा पोषित देवगण तुम्हें इष्ट फल प्रदान करेंगे। देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो मनुष्य उन्हें बिना दिए अकेला सेवन करता है ,वह निश्चय ही चोर है।
यहाँ प्रभु ने देवगण और मानवों में,मानव और मानव में ,राष्ट्र और राष्ट्र में तथा विभिन्न आध्यात्मिक संस्थाओं में प्रतिद्वंद्विता -विहीन सहयोग भाव की ओर संकेत किया है। जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती अन्य लोगों की त्यागमयी सेवाओं से होती है। हमारा जन्म ही एक दूसरे पर निर्भर होने के लिए हु आ है। व्यक्ति और समाज दोनों की प्रगति में प्रतिद्वंद्विता की अपेक्षा सहयोग अधिक लाभदायक है। सहयोग और दूसरों की सहायता के बिना किसी भी सार्थक काम की सिद्धि नहीं हो सकती। भगवान् राम को भी अपने काम में दूसरों की सहायता लेनी पड़ी थी। यह विश्व श्रेष्ठतम स्थान होगा ,यदि परस्पर लड़ने या हौड़ करने की अपेक्षा इसके सारे निवासी एक दूसरे को सहयोग और सहायता दें। स्वार्थपूर्ण उद्देश्य ही आध्यात्मिक संस्थाओं को भी पारस्परिक सहयोग से रोकता है,जिसके कारण सनातन (आदिदेवी देवता )धर्म का विश्व में विशेष रूप से प्रचार -प्रसार नहीं हो पाता।
(१३) यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाते हैं ;परन्तु जो लोग केवल अपने लिए ही अन्न पकाते हैं ,वे पाप के भागी होते हैं।
भोजन भगवान के लिए पकाया जाना चाहिए ,उसकी याद में रहते हुए पकाया जाना चाहिए ,और उपभोग से पूर्व प्रेम पूर्वक भगवान् को अर्पित किया जाना चाहिए (भोग लगाना चाहिए भगवान् का ).बच्चों को भोजन से पूर्व प्रार्थना करना सिखाया जाना चाहिए। भोजन को हाथ जोड़ो और कहो भगवान् तुम्हारी भंडारी से भोग प्राप्त हुआ फिर ग्रहण करो। उसमें सात्विक तत्व बढ़ जाएगा। विटामिन जल्दी रिलीज़ होंगें खनिज लवण भी।प्रभु को धन्यवाद देने से पहले भोजन ग्रहण न करना गृहस्थ का नियम होना चाहिए।
(१४ -१५ )समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं ,अन्न वृष्टि से उत्पन्न होता है ,वृष्टि यज्ञ से ,यज्ञ कर्म से। कर्म वेदों में विहित है और वेद को अविनाशी ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जानो। इस तरह सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ (अर्थात सेवा )में प्रतिष्ठित है। .
ब्रह्म के सृष्टा रूप का नाम ब्रह्मा है। ब्राह्मण भारत में बौद्धिक वर्ग का
नाम है।
ॐ शान्ति
अर्थ
Appellations in the Bhagavad Gita :For Shri Krishna and Arjuna
(१)अच्युत :जिससे कभी चूक न हो ,जो कभी भूलें न करें ,अमोघ ,सदैव अभीष्ट की पूर्ती करने वाला (Infallible )
(२ )अरिसूदन :शत्रुओं का संहार (विनाश )करने वाला।
(३ )भगवान् :परमपुरुष (the Supreme Divine Personality )
(४ )गोविन्द :इन्द्रियों को परम सुख देने वाला ,गउओं का शौक़ीन ,गऊ प्रेमी ,गऊ जिसे प्रिय हों।
(५ )ऋषिकेश (हृषिकेश ):इन्द्रियों का देवता ,घुंघराले बालों वाला।
(६ )जगन्निवास :जिसमें समस्त संसार वास करता है।
(७ )जनार्दन :जो जन का रखवाला है ,कल्याण करने वाला हैजन जन का ।
(८ )केशिनिसूदन :केशी दैत्य को मारने वाला।
(९ )माधव :योगमाया का पति।
(१० )मधुसूदन :मधु राक्षस का वध करने वाला।
(११ )पुरुषोत्तम :परमपुरुष (पुरुषों में सर्वोत्तम ),परमात्मा ,पुरुष का एक अर्थ आत्मा भी है ,सर्वोत्तम आत्मा अर्थात परमात्मा ,सर्व -आत्माओं का पारलौकिक पिता (the Supreme Divine Personality.)
(१२ )वार्ष्णेय :वृष्णि कुल(गोत्र ,वंश ) का।
(१३ )वासुदेव :वसुदेव का पुत्र।
(१४ )विष्णु :the Supreme Lord Vishnu
(१५ )यादव :यदु कुल में उत्पन्न।
(१६ )योगेश्वर :योग का ईश्वर (कृष्ण की उत्पत्ति योग से भी बतलाई गई है )
गीता में अर्जुन के लिए प्रयुक्त (व्यक्तित्व वाचक ,गुणवाचक ,विशेषण
)संबोधन :
(१)अनघ :निष्पाप
(२)भारत श्रेष्ठ (भरतशभा ):the best of Bhartas (Bharatarshabha)
(3 )भारत सत्तमा :
(Bharata Sattama )-the best of the Bharatas
(4 )धनज्जय :जिसने धन को जीत लिया है।
(५)गुड़ाकेश :निद्रा जीत (जिसने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली है ).
(६ )कपिध्वज :जिसके ध्वज पे श्री हनुमान शोभायमान हैं।
(७ )कौन्तेय :जो कुंती का पुत्र है।
(८ )Kiriti :he who wears a diadem.जो हीरे का मुकुट पहने है किरीट
धारी है। किरीटि।
(९ )कुरु नंदन :जो कुरुओं का आनंद है।
(१० )कुरु श्रेष्ठ :कुरुओं में जो श्रेष्ठ है।
(११ )महाबाहु :शक्तिशाली भुजाओं वाला है जो। जिसके बाहुबल का सब
लौहा मानते हैं।
(१२ )पांडव :पांडू पुत्र
(१३ )पार्थ :जो पृथा (कुंती )का पुत्र है।
(१४ )परन्तप :जो शत्रुओं को झुलसाने (तपाने )वाला है।
(१५ )पुरुशाव्याघ्र"जो पुरुषों में बाघ ,टाइगर के समान है।
(१६ )सव्यसाँची (Savyasachin ):जो दोनों हाथों से तीर चला सकता है।
the one who can shoot arrows with both hands.
SRIMAD BHAGAVADGI:TA: CHAPTER -III(KARMA:YO:GA
VERSES 1 -15 )
श्रीमदभगवत गीता तीसरा अध्याय :कर्म योग
(१ )अर्जुन बोले -हे जनार्दन ,यदि आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं ,तो फिर हे केशव ,आप मुझे इस (युद्ध जैसे )भयंकर कर्म में क्यों लगा रहे हैं ?आप मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि को भ्रमित (विमोहित )कर रहें हैं। अत :आप उस एक बात को निश्चित रूप से कहिये ,जिससे मेरा कल्याण हो।
(२ )लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाले ,प्रसन्न करने वाले आप तो स्वभाव से ही कल्याण करने वाले हो मेरे लिए उस एक रास्ते को बता दो जिससे मैं अपने जीवन में कल्याण को प्राप्त हो सकूं। कभी आप कर्म को शिखर पे खड़ा कर देते हो कभी ज्ञान को।
(३ ) श्रीभगवान् बोले -हे निष्पाप अर्जुन ,इस लोक में दो प्रकार की निष्ठामेरे द्वारा पहले कही गई है। जिनकी रूचि ज्ञान में होती है ,उनकी निष्ठा ज्ञान योग से और कर्म में रूचि वालों की निष्ठा कर्म योग से होती है।
ज्ञान योग को सांख्य - योग या सन्यासयोग भी कहा जाता है। ज्ञानयोगी स्वयं को किसी भी कर्म का करता नहीं मानता है। ज्ञान का अर्थ है तात्विक अतीन्द्रीय ज्ञान। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि ज्ञान योग और कर्म योग दोनों ही परमात्मा की उपलब्धि के साधन हैं।जीवन में इन दोनों मार्गों का समन्वय श्रेष्ठ माना जाता है। हमें आत्म ज्ञान की साधना और नि :स्वार्थ सेवा दोनों को अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए।
(४ )मनुष्य कर्म का त्याग कर कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं होता। कर्म के त्याग मात्र से ही सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती।
(५ )कोई भी मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता ,क्योंकि प्रकृति के गुणों द्वारा मनुष्यों से परवश की तरह सभी कर्म करवा लिए जाते हैं। यहाँ तक की सांस लेना भी एक कर्म है। खाली दिमाग वैसे भी शैतान का घर कहा गया है। विचार ,शब्द और क्रिया से प्रसूत कर्म का पूर्ण त्याग किसी के लिए भी संभव नहीं है।
(६ )जो मंद बुद्धि मनुष्य इन्द्रियों को (प्रदर्शन के लिए )रोककर मन द्वारा विषयों का चिंतन करता रहता है ,वह मिथ्याचारी कहा जाता है।
(७ )परन्तु हे अर्जुन ,जो मनुष्य बुद्धि द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करके ,अनासक्त होकर ,कर्मेन्द्रियों द्वारा निष्काम कर्मयोग का आचरण करता है ,वही श्रेष्ठ है।
(८ )तुम अपने कर्तव्य का पालन करो ,क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
(९ )केवल अपने लिए कर्म करने से मनुष्य कर्म बंधन से बंध जाता है; इसलिए हे अर्जुन ,कर्मफल की आसक्ति त्यागकर सेवाभाव से भलीभाँति अपने कर्तव्यकर्म का पालन करो।
यज्ञ का अर्थ है त्याग ,नि :स्वार्थ सेवा ,निष्काम कर्म ,पुण्य कार्य ,दान ,देवों के लिए दी गई हवि -हवन के माध्यम से -की गई पूजा आदि।
(१० )सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि के आदि में यज्ञ (अर्थात नि :स्वार्थ सेवा )के साथ प्रजा का निर्माण कर कहा -"इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों को इष्ट फल देने वाला हो।"
(११ )तुम लोग यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और देवगण तुम लो गों को उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त होगे।
देव का अर्थ है परमप्रभु का प्रतिनिधि ,अलौकिक शासक ,दिव्य पुरुष ,वह शक्ति, जो इच्छाओं की पूर्ती करता है ,जो नियंता और रक्षक है। सुधिजन अपना जीवन दूसरों की सेवा करके सफल बनाते हैं ,जबकि मूर्ख लोग दूसरों को हानि पहुंचाकर भी अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। अकेले प्रवेश करने वालों की इच्छा के लिए स्वर्ग के द्वार भी बंद रहेंगे। वेदों के अनुसार दूसरों की सहायता करना व्यक्ति के लिए श्रेष्ठतम पुण्य कर्म है। "एक दूसरे की सेवा करना "सृष्टि कर्ता ब्रह्मा का प्रथम आदेश है ,जिसे भगवान् कृष्ण ने गीता में पूर्ण रूप से बताया है।
(१२ )यज्ञ द्वारा पोषित देवगण तुम्हें इष्ट फल प्रदान करेंगे। देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो मनुष्य उन्हें बिना दिए अकेला सेवन करता है ,वह निश्चय ही चोर है।
यहाँ प्रभु ने देवगण और मानवों में,मानव और मानव में ,राष्ट्र और राष्ट्र में तथा विभिन्न आध्यात्मिक संस्थाओं में प्रतिद्वंद्विता -विहीन सहयोग भाव की ओर संकेत किया है। जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती अन्य लोगों की त्यागमयी सेवाओं से होती है। हमारा जन्म ही एक दूसरे पर निर्भर होने के लिए हु आ है। व्यक्ति और समाज दोनों की प्रगति में प्रतिद्वंद्विता की अपेक्षा सहयोग अधिक लाभदायक है। सहयोग और दूसरों की सहायता के बिना किसी भी सार्थक काम की सिद्धि नहीं हो सकती। भगवान् राम को भी अपने काम में दूसरों की सहायता लेनी पड़ी थी। यह विश्व श्रेष्ठतम स्थान होगा ,यदि परस्पर लड़ने या हौड़ करने की अपेक्षा इसके सारे निवासी एक दूसरे को सहयोग और सहायता दें। स्वार्थपूर्ण उद्देश्य ही आध्यात्मिक संस्थाओं को भी पारस्परिक सहयोग से रोकता है,जिसके कारण सनातन (आदिदेवी देवता )धर्म का विश्व में विशेष रूप से प्रचार -प्रसार नहीं हो पाता।
(१३) यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाते हैं ;परन्तु जो लोग केवल अपने लिए ही अन्न पकाते हैं ,वे पाप के भागी होते हैं।
भोजन भगवान के लिए पकाया जाना चाहिए ,उसकी याद में रहते हुए पकाया जाना चाहिए ,और उपभोग से पूर्व प्रेम पूर्वक भगवान् को अर्पित किया जाना चाहिए (भोग लगाना चाहिए भगवान् का ).बच्चों को भोजन से पूर्व प्रार्थना करना सिखाया जाना चाहिए। भोजन को हाथ जोड़ो और कहो भगवान् तुम्हारी भंडारी से भोग प्राप्त हुआ फिर ग्रहण करो। उसमें सात्विक तत्व बढ़ जाएगा। विटामिन जल्दी रिलीज़ होंगें खनिज लवण भी।प्रभु को धन्यवाद देने से पहले भोजन ग्रहण न करना गृहस्थ का नियम होना चाहिए।
(१४ -१५ )समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं ,अन्न वृष्टि से उत्पन्न होता है ,वृष्टि यज्ञ से ,यज्ञ कर्म से। कर्म वेदों में विहित है और वेद को अविनाशी ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जानो। इस तरह सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ (अर्थात सेवा )में प्रतिष्ठित है। .
ब्रह्म के सृष्टा रूप का नाम ब्रह्मा है। ब्राह्मण भारत में बौद्धिक वर्ग का
नाम है।
ॐ शान्ति
5 टिप्पणियां:
भगवान के अनन्त गुण हैं, अतः नाम भी अनन्त होंगे। सुन्दर संग्रहण।
सर जी "हरी अनंत हरी कथा अनन्ता सुनहिं गुनहिं गावहिं जेहिं संता ,बहुत खूब
बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय-
आभार आपका-
बहुत सुंदर संग्रहणीय प्रस्तुति ,,,|
RECENT POST : समझ में आया बापू .
इन अनंत नामों को कई बार पढते हैं ... नए अर्थ खोजते हैं ... आज शाब्दिक अर्थ स्पष्ट हो गए ... राम राम जी ...
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