ग्लोबल हो गई रहीमा की तपेदिक व्यथा (गतांक से आगे ...)
तपेदिक मरीज़ की सोहबत से उसके खांसने से भी लग जाती है तपेदिक छूत .लेकिन हवाई जहाज जैसी तंग (बंद )जगहों पर यह ख़तरा तब और भी बढ़ जाता है जव सवारी करता हुआ कोई दवा रोधी मरीज़ भी वहां मौजूद हो .विश्वस्वास्थ्य संगठन की हिदायतें ऐसे लोगों के लिए यह हैं कि वह हवाई यात्रा न करें .
लेकिन रहीमा शेख के खाबिन्द और तीन बच्चे तपेदिक से बचे रहें हैं संग साथ के बावजूद .निष्क्रिय पड़ा रहता है तपेदिक का जीवाणु हम में से कितनों में ही .
संयुक्त राष्ट्र संघ पहल के तहत भारत ने खुद अपने को और दुनिया भर को यह भरोसा सन २००० में दिलाया था कि २०१५ तक हम तपेदिक के मामले और बीमारी से होने वाली मौतें घटाके आधी कर लेंगे .इस एवज १३ ,००० तपेदिक रोग निदान केंद्र भी खोले गए लेकिन अपने ही लक्ष्य से कोसों दूर है अभी भी भारत .
बेशक बीमारी की दर घटी भी है लेकिन अभी भी २३ लाख नए तपेदिक रोगी हर साल सामने आतें हैं .किसी भी और रोग संक्रमण से ज्यादा मौतें आज भी तपेदिक से ही हो रहीं हैं .(वजह जो भी हो गरीबी या कुव्यवस्था ,दवा बीच में छोड़ना ,कुपोषण आदि ).
जहां आम तपेदिक के मामले साल छ :महीने में (छ : से नौ माह ) में मात्र ५५० रुपया औसतन खर्च के साथ निपट जातें हैं वहीँ दवा रोधी तपेदिक के प्रबंधन में कमसे कम साल दो लग जातें हैं खर्ची आती है एक लाख दस हज़ार रुपया कमसे कम भी .
जुलाई २००६ में तपेदिक के पहले लक्षण प्रगट हुए रहीमा शेख में तब जब वह अपने गाँव रामपुर में ही थी नेपाल सीमा के नजदीक .उसकी खांसी लगातार बनी हुई थी .ठीक होके न देती थी .
सितम्बर ८ ,२०० ६ से एक सरकारी क्लिनिक से उसने तपेदिक की दवा लेनी शुरु की . मानक छ :महीने के इलाज़ पर उसे रखा गया .एक महीने के बाद ही उसे खांसी के साथ खून भी आया .वह बेहद खौफ खाने लगी .सहम गई .यही भय उसे मुंबई ले आया जहां उसका खाबिन्द (पति )दर्जी का काम करता था .लेकिन जल्दी ही उसे अपने गाँव लौटा आना पड़ा .उसे बताया गया भारत में तपेदिक का इलाज़ यकसां हैं .शहर और गाँव में .
एक महीने तक वह इसी गफलत में दवा न खा सकी .डायरेक्ट ओब्ज़र्वेशन ट्रीटमेंट (DOT )के तहत मरीज़ को स्वास्थ्य कर्मी की मौजूदगी में ही दवा खानी पड़ती है .
दवा छोडके फिर से शुरू करना दवा रोधी तपेदिक की वजह बन जाता है .
विशेष भारत के सन्दर्भ में :
अमीर देश इसीलिए पहले ड्रग रेजिस्टेंस टेस्ट करतें हैं मरीज़ का फिर ख़ास उसीके लिए तैयार(टेलर मेड ) इलाज़ शुरू होता है .ऐसे में ड्रग रेजिस्टेंस का जोखिम कम रहता है .
लेकिन अभी हमारे यहाँ ऐसी पहल कहाँ ?
१९९० में तपेदिक कार्यक्रम जब शुरू हुआ था ,यहाँ दवा रोधी तपेदिक का नामो निशाँ भी नहीं था ,रहा होगा कोई इक्का दुक्का मामला .
रहीमा दवा लेने के बाद भी लगातार पोजिटिव बनी रही .नवम्बर २००६ में प्रोग्राम दोबारा शुरू करने पर तब उसका स्तर ३+ था एक से चार अंक वाले रोग सूचक पैमाने पर.
इसके नौ महीने बाद भी पुन : जांच करने पर रोग का स्तर पाया गया २+.
स्थानीय टी बी वर्कर रामदयाल तिवारी कहतें हैं इस दरमियान रहीमा आती जातीं रहीं हैं लेकिन उन्हें रोग मुक्त कभी नहीं देखा गया .
तिवारी और उनके साथियों ने उसे एक नजदीकी अस्पताल में छाती के रोगों के माहिर डॉ .एम.पी .सिंह को दिखलाने की सलाह दी .
यहाँ से शुरू होती है एक अंतहीन व्यथा कथा .
पढ़िए अगले पोस्टांक में .
(ज़ारी )
1 टिप्पणी:
waiting for next post
regarding drug trials India needs to make good law
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