यही वक्त है अब संस्मरण भी लिख दिया जाए .इतना माहौल हर दिल अज़ीज़ डॉ अरविन्द जी ने ,डॉ .तारीफ़ सिंह जी दराल साहब ने और स्नेह में सने सतीश जी सक्सेना साहब ने बना दिया है कि इतनी एड कोई लगा दे तो अड़ियल घोड़ा भी दौड़ने लगता है फिर हमारी क्या मजाल और अरविन्द जी अपेक्षा भी रखें हैं- हमें संस्मरण -खोर ,संस्मरणों की पोटली तक कह चुकें हैं अपने दिल्ली संस्मरणों की बयार में .अब वे तो मंद मंद समीर से बह लेतें हैं .चित्रों -छवियों से सज़ा उनका संस्मरण मेरे ब्लोगियों तक हो के गुजरा है.
.
आते ही पता चला हमारे भतीजे ने बताया किन्हीं अरविन्द साहब का फोन आया था आपकी पहुँच के बारे में दरयाफ्त कर रहे थे .कल सुबह दस बजे फिर काल करेंगे .हम पहले से ही उत्प्रेरित थे इस मेल मिलाप को .कई लोग ऐसे होतें हैं उनसे हम मिलते बाद में हैं लगाव -प्यार पहले ही हो जाता है फिर मिलना एक रिहर्सल मात्र होता है .एक बौद्धिक आकर्षण किसी भी दैहिक आकर्षण से कम नहीं होता ,फिर यहाँ तो दोनों थे .हम इन्हें बांचते ब्लॉग दर ब्लॉग इनकी टिपण्णी पढ़ते .हमने कब कहा ठीक से याद भी नहीं कि हमारा एक आलेख आप साइंस ब्लॉग पर अथिति पोस्ट के रूप में लगा दें -"नदियों के प्रति हमारा रवैया" .अरविन्द जी ने न सिर्फ वह लेख छापा ,हमारे लिए साइंस ब्लॉग की सदस्यता ही खोल सौंप दी .आदिनांक हम किसी संस्था से नहीं जुड़े .अकेले भाड़ झोंकते रहे .जाने माने विज्ञान लेखक डॉ. रमेश दत्त जी ने एक मर्तबा कहा था संस्था में बल होता है संस्था से जुड़ना चाहिए . मौक़ा था डॉ. रमेश दत्त शर्मा जी के सम्मानार्थ दिल्ली में आयोजित समारोह .अब इतनी सह्रदयता तो हमें कहीं से मिली नहीं जितनी अपने अरविन्द भैया ने दी और बस आप अपने से लगने लगे .एक उम्र के बाद आदमी अपना शौक तलाश लेता है .उधर बढ़ चलता है .शौक की कोई सीमा नहीं होती .संगीत ओर साहित्य और अपने से काबिल मुखर लोगों के साथ शिष्य भाव से मिल बैठना हमारा शौक रहा .अरविन्द जी ने ,दराल साहब ने सक्सेना साहब ने हमें यह शौक पूरा करने का मौक़ा दिया .हम चूके नहीं .एक बात और साफ़ कर दें शिष्य भाव का उम्र से कोई ताल्लुक नहीं है जैसे बालभाव ,बालपन कुछ लोगों केसाथ ता -उम्र चला आता है ,शिष्य भाव कुछ ऐसा ही गुड है .गुरु भाव आते ही आदमी का विकास अवरुद्ध हो जाता है .और हमें यह गुड खाने की सीखने की बुरी आदत है .जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए .और ये दराल साहब ,बहुत स्वप्निल हैं ,अन्दर रसलीन रहतें हैं ,स्नेह की अजस्र धारा बन बहतें हैं ,औरों को चुनिन्दा चीज़े खिला पिला के खुश होतें हैं .और सक्सेना जी उससे भी ज्यादा भावुक और समर्पित भाई है जैसा वह अपनी "माँ "कविता में या अन्यत्र लेखन में हाज़िर रहतें हैं .इन दोनों महानुभावों के निर्देशन में ही हम दिल्ली को नए सन्दर्भ और रूप में देख सके .अब इंडिया गेट के हमारे लिए मानी बदल गएँ हैं -यू हम दो साल तक ठीक इसके सामने "जोधपुर ऑफिसर्स होस्टिल" में रहें हैं .लेकिन दराल साहब के साथ सिविल सेवा मेस भी देखा अभी तक हम कोटा हाउस (नेवल ऑफिसर्स मेस )से ही वाकिफ थे .ये मुख़्तसर सी शाम कब सिमटी पता तब चला जब यू. पी. भवन के बाहर सतीशजी जी ने बाद डिनर गाडी रोकी .देखा अपने अरविन्द जी उतर रहें हैं ,ख़याल आया एक मर्तबा उतरके गले मिलू लेकिन मेरे लिए औरों का वक्त बहुत कीमती है और दिल्ली इतनी छूट नहीं देती देर रात कोई किसी से गले मिले ,चाहे वह फिर उसका सगा ही क्यों न हो ..
वीरुभाई .
९० /२० सैनी पूरा ,रोहतक-१२४ ००१ .
वीरुभाई .
९० /२० सैनी पूरा ,रोहतक-१२४ ००१ .
21 टिप्पणियां:
अगर मौका अच्छा और रुचिकर रहा हो तो संस्मरण इसलिए भी लिखना आवश्यक है कि बहुत सी बातें, जो कम समय के कारण, हम लोग बाँट नहीं सके , वे लिख कर व्यक्त की जा सकती हैं !
जहाँ तक मेरा सवाल है अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण, जितना समय देना चाहिए, नहीं दे पाता मगर फिर भी उस समय को खुश होकर जीना चाहता हूँ !
मेरी एक रचना का यह पार्ट मुझे बहुत अच्छा लगता है ...पेश है
हम रोज नए जोश में
मगरूर थे , बहुत !
यह समय कब गया
हमें खुद ही पता नहीं
चुपचाप आती मौत में , आवाज तक नहीं !
उस तीर और समय का, हमें कुछ पता नहीं !
लोगों का क्या है रस्म
निभाकर निकल पड़े
मौत आएगी मिलन
को , हमें ही पता नहीं
कब जायेंगे घर छोड़ कर, सोंचा नहीं सनम ,
मरने का समय तय है, पर हमको पता नहीं !
उस दिन अपने अपने क्षेत्रो के बेहतरीन जानकार हमारे साथ थे , स्वाभाविक है कि आनंद तो आना ही था ! आपकी जिन्दादिली एक मिसाल है वीरू भाई !
भुला नहीं पाऊंगा ! आभार ....
आपके संस्मरण से एक नया पक्ष पढ़ने को मिला.
परम आदरणीय वीरेन्द्र जी
प्रिय वीरू भाई :)
सादर सस्नेहाभिवादन !
प्रणाम !
दराल जी के ब्लॉग पर भी इस लाजवाब मिलन के बारे में पढ़ा ,
सतीश जी के यहां भी …
शायद अरविंद जी ने भी लिखा होगा , वहां अब जाऊंगा
… लेकिन सबसे पहले कमेंट आपको लिख रहा हूं … ।
आप चारों के साथ मेरा एक अलग ही रिश्ता है अपनत्व और स्नेह का …
बहुत अच्छा लगा … काश ! आप सबके दर्शन का सौभाग्य मुझे भी मिलता कभी
आप चारों के लिए हृदय से शुभकामनाएं ! मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
देर आयद दुरुस्त आयद!
रिश्ते ही रिश्ते --
आत्मीयता का रस
सराबोर कर गया बरबस ||
मधुरता बढती रहे ||
चौकड़ी नए सोपान चढ़ती रहे --
समाजोत्थान की रचनाये सदैव ऐसे ही गढ़ती रहे ||
( मन में इतनी ईर्ष्या रखते हुए इतना लिख कैसे गया मैं ?
धत रविकर ! तू बड़ा धूर्त है ||)
बहुत बहुत आभार ||
.
Glad to know you enjoyed . May such occasions be repeated in your life.
Best wishes.
.
रोचक संस्मरण.
शिष्य भाव का भी एक ज्ञान मिला आपसे.
इस रोचक संस्मरण के लिये बेहद आभार ।
.बहुत अच्छा रहा होगा .हमें भी पढ़कर आनंद आ गया
ब्लॉगजगत को एक नई दिशा देता पोस्ट .
बौद्धिक आकर्षण में अधिक रस है।
थोड़ा अलग हटके इस बार ...
रोचक संस्मरण!
दिलचस्प संस्मरण का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण........
सारे हिन्दुस्तान पर ही कब्ज़ा है जहां से निकले बड़ें कौन रोक टोक सकता है
beautifully written
संस्मरण कैसा भी क्यों न हो बाँटने से मन हल्का होता है..अगर संस्मरण रुचिकर हो तो बाँटने से हिम्मत और चाहत बढ़्ती है..संस्मरण का ये पक्ष भी सुन्दर है ....इस रोचक संस्मरण के लिये बेहद आभार ।
आदरणीय वीरेन्द्र जी
नमस्कार
रोचक संस्मरण के लिये बेहद आभार ।
भाई साहब एक बात तो जरुर सही है की शिष्य बनते ही मनुष्य महान हो जाता है !अतः अधूरापन ही मनुष्य को महान बनाता है ! इसी तरह लोगो से मिलते रहे और अपने अनुभव हमें बाँटें , इसकी कामना करते हुए , बहुत - बहुत बधाई !
Sadar Pradam,
bahut khoob.... laga ham bhi sath-2 hain.
Hamre yaha bhi aye...padhe aur kux hame bhi kahen.
Abhar
"...शिष्य भाव कुछ ऐसा ही गुड है .गुरु भाव आते ही आदमी का विकास अवरुद्ध हो जाता है .और हमें यह गुड खाने की सीखने की बुरी आदत है .जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए...".
वाह वाह वाह...वीरू भाई आपने तो हमारे दिल की बात लिख दी...हम भी कुछ ऐसी प्रकृति के इंसान हैं...गुरु बनाने में उम्र नहीं देखते...इसीलिए अभी भी कुछ न कुछ नया सीखते रहते हैं...आपका संस्मरण बहुत रोचक शैली में पढने को मिला , बहुत आनंद आया...डा.तरल साहब से मिला नहीं हूँ लेकिन जैसा आपने उनके बारे में बताया है मेरी कल्पना में भी वो वैसे ही व्यक्ति लगे थे...कभी कभी किसी इंसान से मिले बिना सिर्फ उसकी तस्वीरें और बातें देख/पढ़ कर हम कई बार उस व्यक्ति के बारे में सही अंदाज़ा लगा लेते हैं...अरविन्द जी और सतीश जी से भी मिलने की तमन्ना है क्या पता कब पूरी होगी...
नीरज
सुंदर संस्मरण.... यह जुड़ाव भी नया उत्साह देता है.....
संगीत ओर साहित्य और अपने से काबिल मुखर लोगों के साथ शिष्य भाव से मिल बैठना हमारा शौक रहा --
वीरुभई , आपसे तो बरसों बाद हमें भी एक पाठ सीखने का अवसर मिला, नम्रता का . आप जैसा व्यक्ति यदि खुद को शिष्य कह सकता है तो फिर हमें तो अभी बहुत कुछ सीखना है .
एक छोटी सी मुलाकात को आपने बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पेश किया है . इसे पढ़कर और लोगों का भी मिलने मिलाने का मूढ़ बनेगा .
एक टिप्पणी भेजें