शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
भारतीय संस्कृति में नारिअल का बहुविध पूजन -अर्पण क्यों ?
नारिअल एक बहु -उपयोगी वृक्ष है ,जिसका अंग -प्रत्यंग आदमी के काम आता है ,नारिअल का पानी शरीर के इलेक्त्रोलितिक बेलेंस को बनाए रखने के अलावा आवश्यक खनिज लवण एवं कबोहैद्रेट (शर्करा ),गरी (कर्नेल या गिरी ) तेल तथा बाहरी आवरण (रेशे )चटाई (मेट्स )से लेकर रस्सी ,गरीब का छप्पर तक डालने में काम आते हैं .वृक्ष के पत्ते दक्षिण भारतीय थाली बने हुए है ,जो खाने की शुचिता तथा हाइजीन बनाए रखने में मदद गार हैं ,इतना ही नहीं नारिअल का वृक्ष खारे पानी में भी उग आता है ,जड़े खारे पानी को धरती से खीचकर कर्नेल में विद्यमान मीठे सुपाच्य मिनरल वाटर में तब्दील कर देती हैं .नारिअल (फल )साफ़ करने यानी बाहरी रेशा हठाने के बाद हमारी खोपडी (कपाल) सा लगता है .इस पर बने चिन्ह त्रिनेत्री शिव (शंकर )का आभास कराते हैं .जल से भरे ,आम्र पत्तियों से सज्जित कलश पर जब यही नारिअल रखा जाता है ,तब यह हमारे ही शिव रूप का स्मरण कराता है ,पूज्य हो जाता है ,आदर योग्य महानुभावो के स्वागत अभिनन्दन का प्रतीक बन जाता है ,कलश मुख शोभित नारिअल .मांगलिक अवसरों पर नारिअल फोड़ने ,इश अर्पण के बाद प्रसाद स्वरूप बांटने का अलग महत्व है .गर्भ प्रदेश में मौजूद नारिअल पानी हमारी वासनाओं का ,गिरी हमारे दिमाग (ब्रेन ) का प्रतीकहैं इश अर्पण के बाद यही वासना मुक्त हो प्रसाद बन जाता है ,नारिअल का फूटना हमारे एहम का विसर्जन है ,एहम से छुटकारा है (मृत्यु के समय भी कपाल किर्या करके आत्मा को इस शरीर से मुक्त किया जाता है ,घडा फोड़ा जाता है ,ताकि घट में मौजूद आकाश यानि आत्मा ,महा आकाश यानि परमात्मा में विलीन होजाए ).सबसे बड़ी बात :हव्य सामिग्री में आज नारिअल होम किया जाता है .कल तक पशु बलि की प्रथा प्रचलित थी (आज भी कुछ अंचलों में इसका पाशविक चलन है,जैसे कल तक सटी प्रथा भी एक बुराई के रूप में मौजूद थी ,बल -विवाह की प्रथा थी ),नारिअल -अर्पण ने अब पशु बलि का स्थान लेकर हमें हमारी एक आदिम animalstic (पाशविक )प्रवृति -परम्परा से बच्चा लिया है .निस्स्वार्थ सेवा से लेकर समाज शिक्षण का वायस बन गया है ,नारिअल .
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2 टिप्पणियां:
बढिया लिखा !!
अच्छी जानकारी!
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