शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

आत्म स्वरूप मिटटी का दीया.


साँझ ढले आज भी घर आँगन में ,घर के पूजा घर में ,नियमित पूजा अर्चना के समय मिटटी का दीप प्रज्जवलित किया जाता है .दीये का शरीर माटी के पुतले इंसान का रूपक रचता है ,और दीपक की लओ(फ्लेम ),ज्योति बिदु स्वरूप हमारी आत्मा का प्रतीक है .परमात्मा तो ज्ञान रूपी प्रकाश का ही दूसरा नाम है .वंश (आत्मा )और वंशी दोनों ही ज्योति बिन्दु स्वरूप हैं .स्वभाव तय ज्ञान स्वरूप ,आनंद स्वरूप ,सदा ही चेतन्य (चिन्मय ) हैं .प्रेम स्वरूप हैं .लेकिन देह अभिमान हमें प्रकाश से अन्धकार की और ले जाता है .दीपक का तेल -घी हमारी वासनाओं का और बाती(एहम ,अभिमान ,देहा -अभिमान का रूपक प्रस्तुत करता है ,परमात्मा की याद में जब सुबह -शाम दीपक जलाया जाता है ,तो उसी के ज्ञान से वासनाओं और एहम का विसर्जन हो जाता है ,क्षण भर को हमें अपने आत्मिक स्वरूप का स्मरण हो आता है .और हम ज्ञान के आगे झुक जातें है ,अपने ही मूल स्वरूप में अवस्थित होजाते हैं .ज्ञान ही तो सबसे बड़ी दौलत है ,ऐसी जो बांटने से बढती है .जैसे एक से अनेक दीप जलाते चलो ,ऊर्जा का क्षय नहीं होगा .अज्ञान से ज्ञान की और यात्रा है ,दीप प्रज्जवलन .इसीलिए सभी सांगीतिक ,साहित्यिक ,सामाजिक धार्मिक कार्य क्रमों की शुरुआत दीप प्रज्जवलन से होती है और समारोह के अंत तक यही दीप रोशन रहता है .यह हमारे भावो अनुभावों ,अच्छे बुरे को साक्षी भाव से देखता है .दीप की उपासना इश की ही उपासना है .

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आभार!!

संगीता पुरी ने कहा…

ज्ञान का प्रचार प्रसार करने के लिए धन्‍यवाद !!