गुरुवार, 23 जुलाई 2009

हाँ समझूँ या न समझूँ ?


दोस्तों जायका बदल के लियें आज दो गेस्ट रचनाएं प्रस्तुत कर रहाहूँ .रचनाकार हैं मेरे अजीम्तर दोस्त और गुरुसमान सेवा कालीय सहयोगी डॉक्टर .नन्द लाल मेहता वागीश (प्रखर आलोचक ,व्यंग्यकार ,वैयाकरण कार ,कवि ,ग़ज़लगो )(१)प्रिय तुम्हारे दीर्घ मौन को क्या समझूँ ,हाँ समझूँ या न समझूँ ./अतिमुखर की सीमा भी है मौन ,/यही क्या भाव तुम्हारा /तड़प लहर की कब बुझती ,पा शांत किनारा /इन शांत तटों में ,मर्यादा या उद्वेलन है ,क्या समझूँ ,/हाँ समझूँ या न समझूँ (२)विस्फोटों के विकट जाल में ,मौन छिपा है /संबंधों की बलिवेदी पर ,मौन सजा है /मौन कौन सा तुमने धारा,क्या समझूँ /हाँ समझूँ या न समझूँ (३)रजनी के हाथों में अपनी नींद धरोहर रखकर /घर से निकल पड़ी है ,श्यामा मौन इशारा पाकर /सुखद मिलन की इन घड़ियों को ,क्या प्रीतम की जय समझूँ /हाँ समझूँ या न समझूँ (४)स्पर्श निकट या रक्षा के हित ,तरु शिखरों से आलिंगित /लतिका के उस मिलन भावः को ,शरणागत या प्रेम पगी है क्या समझूँ /हाँ समझूँ ,या न समझूँ । दोस्तों दूसरी रचना उस राजनीती पर सटीक व्यंग्य है जहाँ संवेदनाएं मर चुकीं हैं ,और अब व्यक्ति और समाज की मर्यादा पर भी राजनीती होने लगी है ,ताजा प्रकरण रीता बहुगुणा -मायावती विवाद है ,रचना प्रस्तुत है :सामने दर्पण के जब तुम आओगे /अपनी करनी पर बहुत पछताओगे /कल चला सिक्का तुम्हारे नाम का /आज ख़ुद को भी चला न पाओगे (२)आंधियां अब चल पड़ी हैं ,आग की /ख़ुद को हरगिज़ ढूंढ भी ,ना पाओगे (३)सपने जिनको आज तक बेचा किया /आँख अब उनसे ,मिला क्या पाओगे (४)दांत पैने हैं सियासत में ,किए /क्या पता था अदब को ही ,खाओगे .प्रस्तुति :वीरेन्द्र शर्मा (वीरुभाई ))

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

कल चला सिक्का तुम्हारे नाम का
आज ख़ुद को भी चला न पाओगे
बहुत अच्छी और सच्ची ग़ज़ल...प्रस्तुति के लिए आभार.
नीरज