ग़ज़ल
चौराहा :एहतियातन वो, इधर से कम गुजरता है
बदनाम न हो कोई ,इतना वो डरता है
नाप कर दिखाए , उसको सही -सही
वो दरिया है रोज़ रस्ता बदलता है
दिखा के आशियाँ अपना ,बादल किधर गए ,
खूब बरसे इतना कि सारे राज़ धुल गए
बिजलियों को कैद ,कर रखा है जिसने
जुगनुओं के डर से सहमा हुआ है
आशियाँ उसका कहाँ ,यह भी ख़बर नहीं
पुन्नों को छुऊँ फट ना जाए कहीं
अब इबारत आखिरी धंधली सी हो चली
हर्फों को जोड़ता हूँ ,तो चौराहा सा लगता है । सह भाव :चरण गोपाल शर्मा (भौतिक शिक्षा निदेशक ,सेवा निवृत्त ,राजकीय महाविद्यालय ,गुडगाँव ) डाक्टर .नन्द लाल मेहता वागीश
शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
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