मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

'बहुत नहीं सिर्फ चार कौवे थे काले'- कविता -संग्रह ' जी हाँ मैं गीत बेचता हूँ किस्म -किस्म के गीत बेचता हूँ। '

बहुत  नहीं सिर्फ  चार कौवे थे काले ,उन्होंने ये तय किया कि सारे उड़ने वाले ,

उनके ढंग से उड़ें ,रुकें ,खाएं और गायें ,वे जिसको  त्यौहार कहें सब उसे मनायें  .

कभी -कभी जादू हो जाता  दुनिया में ,दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया  में ,

ये औगुनिये चार बड़े सरताज हो गये  ,इनके नौकर चील गरुण और बाज़ हो गए।

हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में ,हाथ बाँध कर खड़े हो गए सब विनती में ,

हुक्म हुआ चातक पंछी रट  नहीं लगाएं ,पिऊ -पिऊ को छोड़ कांव -कांव ही गाएँ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को ,खाना पीना मौज़ उड़ाना छुटभैयों को ,

कौओं की ऐसी बन आई पाँचों घी में ,बड़े बड़े मनसूबे आये उनके जी में।

उड़ने तक के नियम बदल कर  ऐसे ढाले ,उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले।

आगे क्या हुआ सुनाना बहुत कठिन है ,यह दिन कवि  का नहीं चार कौओं का दिन है ,

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना ,लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह  सुनाना।

                          -----------------------  (भवानी प्रसाद मिश्र )

कविता -संग्रह ' जी हाँ मैं गीत बेचता हूँ किस्म -किस्म के गीत बेचता हूँ। ' से साभार।

                               ----------------------------------(भवानी प्रसाद मिश्र )
प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरु भाई )

भावसार :भवानी भाई की ये कविता आपातकाल में तब लिखी गई थी जब इस देश की तमाम संविधानिक व्यवस्थाओं  के ऊपर एक इंद्रा -जी  पालती मारकर  बैठ गईं थीं।महज़ अपनी कुर्सी बचाने के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय के फैसले को धता बताते हुए तब उन्होंने जो सन्देश दिया था भारत के जन-मन को उसका खुलासा यह कविता बेलाग होकर करती है। यह वह दौर था जब  तमाम छद्म मेधा उनकी हाँ में हाँ भयातुर होकर मिलाने लगी  थी। लेकिन उस दौर में भी दुष्यंत कुमार और भवानी दा जैसे लोग थे जिन्होंने अपनी अस्मिता को बचाके रखा था और ये कविता दागी थी उस समय की दुर्दशा से संतप्त होकर:

इंदिराजी इंद्रा -व्यवस्था की  मारफत यही सन्देश दे रही थीं कौवों की कांव -कांव ही संगीत होता है। संगीत -फंगीत इसके अलावा और कुछ नहीं होता।
गौरैयाओं को (इस देश की जनता को )यही कहा था -तुम खाओ पीयो बस इतना बहुत है तुम्हारे लिए इस देश की चिंता तुम मत करना। सुप्रीम कोर्ट भी अब उसे ही दिन कहेगा जिसे हम दिन कहना चाहेंगे और कहते हैं।

ये वो लोग थे जो यह कहते समझते थे -जब हम पैदा हुए थे तभी से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है । उस व्यववस्था के ध्वंश अवशेष आज भी अपने बेटे का नाम प्रभात रखके ये समझते हैं हमने सूरज को पाल लिया है। वह भी तभी निकलेगा जब हम चाहेंगे।

इसी इंद्रावी तंत्र के कुछ अवशेष और चंद कट्टर पंथियों की गोद  में पोषण पाते हमारे रक्तरँगी लेफ्टिए आज मोदी को फूंटी आँख नहीं देख पा रहे हैं। जानते हैं किसलिए :

वह इसलिए अब सूरज नियमानुसार उदित हो रहा है किसी का पालतू नहीं है। 

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