बुधवार, 7 अक्टूबर 2015

देखिये श्यामा औ सुरभि ,नंदिनी लालुओं से मुंह छिपाने आ गईं

राजनीति की फसल पकने लगी ,

आज़मों को बदजुबानी आ गई. 

देखिये श्यामा औ सुरभि ,नंदिनी 

लालुओं से मुंह छिपाने आ गईं। 

टकटकी ललुवा की जब से है लगी ,

कामधेनु की भी शामत आ गई। 

कृष्ण आकर कंस का फिर वध करो ,

महाठगनी रजनीति फिर आ गई। 

बेहतरीन ग़ज़ल शास्त्री जी की 

एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
सभ्यता बातें बनाने आ गयी
दाग़ दामन में लगाने आ गयी

पड़ गयीं जब पेट में दो रोटियाँ 
मस्जिदों में भी अजाने आ गयीं 

मन्दिरों में आरती होने लगीं
बेजुबानों में जुबानें आ गयीं
बस गयीं अब बीहड़ों में बस्तियाँ
चल के शहरों से दुकानें आ गयीं
कंकरीटों की फसल उगने लगीं
नस्ल नूतन कहर ढाने आ गयीं
“रूप” को पर्वत बदलने लग गये 
नग्नता सूरत दिखाने आ गयी

कोई टिप्पणी नहीं: