बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

कैकई के कपाट कौशल्या ने खुलवाए। कौशल्या ने कहा मैं बड़ी हूँ।हमेशा तेरी नहीं चलेगी- अर्गली खोल। कैकई पैरों में गिर गई। कौशल्या ने उसे उठाते हुए कहा -तेरा कोई अपराध नहीं है यह सब पहले से ही तय था। चलो चलो बात खत्म हो गई। मुझे सब पता था। लेकिन भरत कैकई से नहीं बोले। कौशल्या ने कहा -भरत प्रणाम करो माँ कैकई को , भरत हाथ पकड़ो कैकई का बिठाओ पालकी में। यदि तुम इनका आदर नहीं करोगे तो राम तुम्हें कभी नहीं मिल सकता। राम तुम्हें तभी मिलेंगे जब तुम कैकई की बात रखोगे। मान रखोगे कैकई का। किसी को पश्चाताप की अग्नि में जलते छोड़ देना इससे बड़ी कोई हिंसा नहीं हो सकती।



ईश्वर अंश जीव अविनाशी ,

चेतन अमल , सहज सुख राशि।

आप नहीं बदलें हैं आपकी देह बदली है जो परिवर्तन दिखाई दे रहा है वह देह का है। आप आनंद के धाम हैं। जिस दिन यह पता चल जाता है आप अपने मूल स्वभाव में लौट आते हैं। साधना का एक फल है द्व्न्द्व रहित हो जाना। जगदानन्द विषयानन्द एक पल का है। आनंद आपका स्वभाव है। ऐसे महापुरुष जिन्हें  द्व्न्द्व नहीं छूते ,प्रत्येक जीव के हित में जो रहते हैं जिनमें समता सिद्ध हो गई ऐसे महापुरुष  ही आपातकाल में  हमारे काम आते हैं।

रूप और नाम से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है। आप इन्द्रियों के आश्रय में जीने वाले प्राणि हैं।

अयोध्या में पातक काल है।राजा दशरथ का शरीर नहीं रहा। अयोध्या में अनाथता है। सुमंत अचेत हो गए हैं। वशिष्ठ तब राजपत्र उठाते हैं। लिखते हैं -प्रिय भरत (आशीष नहीं लिखते )अयोध्या में शीघ्र लौटो। अब वह ये भी नहीं लिख सकते -आपका शुभचिंतक। वह इतना ही लिखते हैं -आपका गुरु वशिष्ठ। सूतक काल में और कुछ लिख नहीं सकते थे।

न आशीष न शुभेच्छु।

भरत बार बार एक सपना देखते हैं। पूरी अयोध्या में अन्धेरा है। एक सुरंग है। वह राम के पीछे भागते हैं। भैया रुको रुको स्वप्न में वह जितना राम के नजदीक जाते हैं वह दूर दूर होते जाते हैं। लक्षमण को कहते हैं -भाई मेरी रक्षा करो। लक्ष्मण की आँखों में एक अविश्वास है। दूरी दिख रही है वह पिता को पुकारते हैं। पिता मेरी रक्षा करो। स्वप्न में पिता सिरहीन दिखलाई देते हैं। पास में भाई शत्रुघ्न सो रहे हैं। भरत छोटे भाई को (अनुज )को अपना दर्द नहीं बता सकते हैं। उन्हें लगा अपना दुःख किस्से बांटू। और माताएं कहाँ हैं। वे सिर  झुकाए रो रहीं हैं।

सपने सात प्रकार के होते हैं। रामायण  में , सबको सपने आते हैं। कौशल्या को भी सपना आया था। त्रिजटा सपना देखती है कोई वानर आएगा वह लंका को जला देगा।

सपने वानर लंका जारी।

सीता की रक्षा के लिए कोई वानर आएगा। वह हम सबको मार के जाएगा। ये सपना बहुत जल्दी सच होयेगा। अभी आये नहीं थे हनुमान। भोर के सपने प्राय :साकार होते हैं।

सरयू भी जैसे नीर बहा रही है आँखों से।जैसे ही सुबह होगी मैं शिव अभिषेक करूंगा। दुग्धाभिषेक करूंगा भरत सोच रहे थे मन में।

 विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन करवाऊंगा तब कुछ खुद ग्रहण करूंगा। रिपुदमन ने पूछा भैया क्या बात है आप बहुत उदास हैं। भरत इतना ही कहते हैं हम अकेले क्यों पड़े हैं यहां ननिहाल में ,हमें अपने माता पिता के पास चलना चाहिए। इतने में ही गुरु के हरकारे पहुँच गए -बड़ा सपाट पत्र है। लिखा है -भरत शीघ्र चले आओ।

गुरूजी ने क्यों लिखा यह पत्र ?पत्र तो पिता लिखते। पिता कहाँ हैं। भरत आशंकित हैं। इसमें सीमान्त प्रदेश के भी कोई समाचार नहीं है। इस पत्र में न कुशलता है न आशीर्वाद। भरत समझ गए कुछ ऐसा हो गया है जो बहुत अघटित हो।
रिपुदमन के मन में विचार आया -कहीं राक्षसों ने अयोध्या पे हमला तो नहीं कर दिया। मेरे पिता को तो बंधक नहीं बना लिया।
कुछ ऐसे लोग भी थे अयोध्या में जो कह रहे थे ये सब भरत का किया हुआ है। कुछ लोगों ने कहा हम ये बात नहीं सुन सकते। ये बात ही झूठी है। कुछ लोगों ने कहा हो सकता है चन्द्रमा अग्नि बरसाए लेकिन भरत स्वप्न में भी राम के विरुद्ध नहीं हो सकते। भरत तो खेल में भी बालपन के खेलों में भी,बालपन में भी राम के खिलाफ खड़े भी नहीं हो सकते।  अलग दल नहीं बना सकते। भरत गुरु के कहने पर राम के आनंद के लिए दल बना लेते हैंखेलबे को।सिर्फ राम के आनंद के लिए।  रिपु दमन और लक्षमण ऐसा नहीं करते थे। राम जानकार हारने का अभ्यास करते।

एक दिन भरत ने जब पूछा भैया ये क्या है आप हर बार हार जाते हो। बोले राम में तेरे आनंद के लिए हार जाता हूँ। परिवार में हारना ही आनंद बनता है।खड़े होना चाहिए दाव में लगाना चाहिए खुद को ,कुछ हारने के लिए दूसरों के आनंद के लिए।अपशकुन हुए -

खर श्यार बोले प्रतिकूल।

कैकई ने ऐसी योजना बनाई कि किसी भी ढंग से भरत गुरु से न मिल पाए। सीधा मेरे पास आये। भरत अयोध्या में प्रवेश करने के बाद किसी से नहीं पूछते कि घर में क्या चल रहा है किसी चाकर दास से वह कुछ नहीं पूछते। गुप्तचर इस तरह से भरत को लेकर गए कि वह सीधे कैकई के पास पहुंचे।

जिसके पति की लाश घर में पड़ी हो वह आरती का थाल कैसे सजा सकती है। सज कैसे सकती है। भरत भारी मौन में है भरा हुआ है भरत का मन ,वह कहता है इस वक्त माँ आरती नहीं टीका नहीं मुझे समाचार दो यहां के समाचार बताओ। कैकई बोलीं हमारे यहां (ननिहाल में) तो सब कुशल हैं। भरत कहते हैं मेरे सवाल का ज़वाब दो पहले। माँ बोली मैंने तेरी बात बना दी। ये राजमुकुट तेरा है ये धरा तेरी है। तू राजा है। भरत पूछते हैं भइया कहाँ हैं राम कहाँ हैं। वह भटक रहा होगा जंगल में। मैंने भगा दिया। और तेरे पिता -देवताओं ने काम बिगाड़ दिया हमारा -तेरे पिता की मृत्यु हो गई।

तेरे रोम रोम को धरती से अग्नि निकल के भस्म क्यों नहीं कर गई। तेरी जिभ्या कट क्यों नहीं गई। मैं तुझे मातृत्व पद से वंचित करता हूँ -बोले भरत माँ कैकई से।  तुझे जीवन भर माँ नहीं कहूँगा। तूने अपने पति  के प्राण छीने। रिपुदमन का हाथ खींचते हैं भरत भागे कौशल्या के महलों की ओर। कौशल्या ने भरत को देखा। कौशल्या को ऐसे लगा जैसे राम वन से लौट आये। तू अपनी माँ के प्रति द्वेष मत रखना। कैकई यंत्र बन गई है। कोई यंत्र बना रहा है उसे। कैंची तो नहीं जानती क्या काट रही है। वह तो खंड खंड काटना जानती है। अलग अलग करना जानती है। अपनी माँ के प्रति द्वेष मत रखना। किसी के प्रति द्वेष रखने से अपनी दिव्यता नष्ट होती है पुण्य क्षीण होते हैं।

किसी की निंदा करने से अपना चित्त म्लान होता है।अपनी दिव्यता खोती  है। माँ उसने मुझे  कलंकित किया है-बोले भरत। गिर पड़े कौशल्या के पांवों में। मुझे पातकी बनाया है उसने। जिसने अपने पति के प्राण छीने। वह कह रही है देवताओं ने हमारा काम बीच में ही बिगाड़ दिया। वह उन्हें पति भी मानने को तैयार नहीं है। कौशल्या ने माथे पे चुंबन लेते हुए कहा तेरी माँ क्या है ,कुछ दिन के बाद  पता चलेगा।

कछु काज विधि बीच बिगाड़ो।

पिता के शरीर के पास जाकर बिलखने लगे भरत। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा  से उनका दाह संस्कार किया गया तिलांजलि श्रद्धांजलि   दी गई। सभा बुलाई गई।



वशिष्ठ ने सभा बुलाई। पहली बार उनकी आँखों में अश्रु दिखाई दिए।

सुनहु भरत भावी प्रबल , बिलख कहेउ  मुनिहु   नाथ

हानि लाभ जीवन मरण ,यश अपयश विधि हाथ।

जो नियंता की नियति है वह इतनी प्रबल है उसे हम पढ़ नहीं पाते। जान नहीं पाते। क्या नियत हुआ है हमारे लिए ,हमारा भवितव्य क्या है हम जान नहीं पाते।

अब यह समझ नहीं आ रहा गुरुदेव को करें क्या ?पहली बार उनकी आँखों में अश्रु दिखे। उन्होंने साहस करके कहा -शास्त्र ऐसा कहते हैं -

सद ग्रन्थ ऐसा कहते हैं पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। बोले भरत मेरे पिता की यह आज्ञा नहीं है उनसे तो छल करके सत्ता छीनी गई। भरत ने कुछ ऐसी बातें कहीं गुरु निरुत्तर हो गए। गुरु देव मुझे धर्म न सिखाओ मैं मोक्ष नहीं चाहता ,मुझे तो राम के चरण चाहिए।जिसका यह राजमुकुट है उसे ही सौंपा जाना चाहिए। मुझे धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष कुछ भी नहीं चाहिए। मैं हमेशा उनका अनुचर बनके आऊँ ,यही चाहता हूँ।

इस समय जो मेरा दैन्य है अभाव है उसे आप मिटाइये। और वह है राम दरश। मुझे राम से मिला दीजिये। जब तक राम नहीं मिल जाएंगे मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगा। शरीर निर्वाह के लिए फल फूल जल ही लूंगा। सब तैयार हो गए वन को जाने को। कौशल्या भी निकल आईं। कहा मैं भी चलूंगी  ,सुमित्रा भी।  कौशल्या ने कहा हमसे कुछ भूल हो रही हैं। तीन पालकियां सजाई जाती हैं तीसरी कहाँ हैं उन्होंने सुमित्रा को बुलाकर कहा पहली बार आपसे अपराध हुआ है। हमारी तीन पालकियां चलतीं हैं। सुमित्रा घबराईं । उन्होंने कहा पालकी  सुमंत ने लगवाईं  हैं।तीसरी पालकी मैं अभी लगवाती हूँ। सारी सेनाएं तैयार हो गईं।
सुमंत ने और दासियों सेवकों ने बताया कैकई के तो महल के कपाट बंद हैं। जैसे ही भरत निकले भवन से देवता भी कैकई के भवन से निकल गए ,घबराए से ।

 कैकई को पता चला मुझसे तो बहुत बड़ा अपराध हो गया। मैंने अपने पति की जान ले ली। कपाट नहीं खुलेंगे। जब राम आएंगे तभी कपाट खुलेंगे। दीया नहीं जलेगा। मैं प्रायश्चित करूंगी।

कैकई के कपाट कौशल्या ने खुलवाए। कौशल्या ने कहा मैं बड़ी हूँ।हमेशा तेरी नहीं चलेगी- अर्गली  खोल।  कैकई पैरों में गिर गई। कौशल्या ने उसे उठाते हुए कहा -तेरा कोई अपराध नहीं है यह सब पहले से ही तय था। चलो चलो बात खत्म हो गई। मुझे सब पता था। लेकिन भरत कैकई से नहीं बोले। कौशल्या ने कहा -भरत प्रणाम करो माँ कैकई को , भरत हाथ पकड़ो कैकई का बिठाओ पालकी में। यदि तुम इनका आदर नहीं करोगे तो राम तुम्हें कभी नहीं मिल सकता। राम तुम्हें तभी मिलेंगे जब तुम कैकई की बात रखोगे। मान रखोगे कैकई का। किसी को पश्चाताप की अग्नि में जलते छोड़ देना इससे बड़ी कोई  हिंसा नहीं हो सकती।

लक्षमण का मन डोला था। भरत चतुरंगणी सेना लेकर आ रहा है। बाण तुरीण  पर रखा था तरकश का सबसे भयानक तीर। राम ने कहा तू भरत का मन नहीं पढ़ सका -भरत सब कुछ सौंपने आ रहा है तेरे मन में इतना भी भरोसा नहीं रहा भैया के लिए । लक्षमण ने कहा मैं हमेशा से स्वभाव से ही कटु हूँ ,बहुत जहर लिए बैठा हूँ।  आवेश में रहता हूँ। हज़ार हज़ार फन वाला शेषनाग ही तो हूँ। आपके लिए मैं सदैव सब कुछ करने को तत्पर रहता हूँ।आपके लिए मैं मर जाऊंगा। मैं आपकी चिंता में ही तो रहता हूँ। मैं अति कर बैठा। राम के समझाने पर लक्ष्मण शांत हो गए।

कोई टिप्पणी नहीं: