क्या होता है किसी चीज़ की लत का पड़ना ,एडिक्सन ?
इतिहास के नज़रिए से देखें तो ,लत को कुछ ऐसे पदार्थों की आदत पड़ने से जोड़ा जाता रहा है जो साइको -एक्टिव होतें हैं जिनके बिना आप रह नहीं सकते क्योंकि इन पर न सिर्फ हमारे शरीर की बल्कि मन को भी (मनोवैज्ञानिकतौर पर )आदत पड़ जाती है ,फिजिकल और साइकोलोजिकल डिपेंडेंस(निर्भरता ) हो जाती हैइन चीज़ों पर .मसलन शराब (सोम रस ,अंगूर की कथित बेटी )तम्बाकू ,हेरोइन ,अफीम चरस ,गांजा ऐसे ही साइको -एक्टिव पदार्थ रहें हैं ।
क्योंकि यही वे साइको -एक्टिव पदार्थ हैं जो "ब्लड ब्रेन बेरीयर के पार "चले जातें हैं सेवन के बाद ,अस्थाई तौर पर ही सही ये हमारे दिमाग की रासायनिक हलचल को ,केमिकल माहौल कोही बदल देतें हैं ।
किसी भी ऐसे पदार्थ से ऐसी गतिविधि से चिपके रहना जो हमारे लिए नुकसान का सबब बन सकती है और फिर उसी में सुखानुभूति तलाशना ,धीरे धीरे महसूस भी करने लगना एडिक्सन है ।कवि,ग़ज़ल कार और लेखक दुष्यंत ने तो ज़िन्दगी को ही लत कह दिया था :"एक आदत सी हो गई है तू ,और आदत कभी नहीं जाती ,ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती ,ये जुबां हमसे सी नहीं जाती ".गांधीजी को सच बोलने की आदत हो गई थी ,नेताओं को भ्रष्ट होने की .
और इसके बाद इन्हीं चीज़ों का सेवन करना नोर्मल होने रहने दिखने के लिए भी ज़रूरी हो जाना लत पड़ना ,किसी चीज़ का आदी होना अभ्यस्त होना कहलाता है ।
असामान्य तौर परनिर्भरता होना किसी भी चीज़ पर मसलन जूए की ,कबाड़िया भोजन (जंक फ़ूड की ),सेक्स की ,पोर्नोग्रेफ़ी की ,कंप्यूटर ,इंटरनेट ,स्मार्टफोन्स ,ब्लेक्बेरीज़ ,क्रेक्बेरीज़ की ,काम करने करते ही रहने की ,पढने पढ़ते ही रहने की ,कसरत करते रहने की ,टीवी देखते रहने की ,आधाय्त्मिक प्रवचन पूजा पाठ करते रहने की ,शोपिंग की ,शॉप लिफ्टिंग की ,ओडचीज़ें(डर्ट,सिगरेट की राख ,चाक ,खडिया ,मिटटी ,कुल्हड़ के टुकड़े खाते रहने की ,पैंट ,पेपर यहाँ तक कि विष्टा (फीशिज़ )की )एडिक्सन है .
अमरीकीसोसायटी ऑफ़ एडिक्सन मेडिसन के अनुसार "एडिक्सन इज ए प्रा -इमेरी क्रोनिक डिजीज ऑफ़ ब्रेन रिवार्ड ,मोटिवेशन ,मेमोरी ,एंड रिलेटिड सर्किट्री ।
इन दिमागी सर्किटों ,न्यूरोन नेटवर्कों के प्रकार्य (फंक्शन )में खलल ख़ास जैविक ,मनोवैज्ञानिक ,सामाजिक और आध्यात्मिक क्रियाकलापों के रूप में प्रकट होती है ।
बस किसी ख़ास चीज़ में ही आदमी फिर सुकून तलाशने पाने लगता है उसे पाने पर ही सुख चैन महसूस करने लगता है न मिलने पर बे -चीनी ,बे -करारी ।
ऐसे में व्यक्ति का न अपने व्यवहार पे बस चलता है न पारस्परिक संबंधों पर जो खराब होते चले जातें हैं न तलब पर न ललक पर ,बे -खबर रहता है वह सब कुछ जानते हुए भी हर तरफ से ।
इलाज़ न होने पर बीमारी बढ़ते बढ़ते ला -इलाज़ होजाती है यहाँ तक कि व्यक्ति अ-सामयिक तौर पर ही चल बसता है .अच्छी बात यही है एडिक्शन का इलाज़ है लेकिन यह खुद से ठीक नहीं होता है अलबत्ता बीच बीच में दबता उठता रहता है इसकी तेज़ी कम ज्यादा होती रहती है ,रेमीशन का पीरियड भी होता है लेकिन रेमिशन और रिलेप्स के दुश्चक्र में व्यक्ति फंसा रहता है .(ज़ारी...)
रविवार, 3 अप्रैल 2011
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