मंगलवार, 21 जुलाई 2009

आरती वंदन क्यों ?


प्रत्येक पूजा अर्चना का आखिरी मुकाम होता है ,आरती ,तभी मांगलिक अवसरों की पूजा संपन होती है ,चाहें किसी विशेष अतिथि के स्वागतार्थ हो या महात्मा के आगमन पर ,आरती घंटियों अन्य वाद्यों की ताल पर गाईजाती है .पूजा के सोलह चरणों (षोडश उपचारों )मैं से एक है ,आरती .इसीलिए इसे ,मंगला -निराजानाम (मंगला निरंजन )पावन-प्रखरतम ज्योति भी कहा जाता है .आरती की थाली में जलती दीप शिखा को ,दाहिने हाथ में थाली थामे क्लोक -वाइज़ ,वेव (तरंगायित )किया जाता ,दक्षिणा वर्त घुमाते हुए आराध्य के ,परमात्मा के अंग प्रत्यंग को आलोकित किया जाता है ,इ दरमियाँ भावावेश में या तो हमारी पलकें बंद हो जाती हैं या फ़िर हम सस्वर पाठमें शरीक हो जातें हैं ,कई मन्त्र जाप करने लागतें हैं .उसकी सुंदर छवि हमारी प्राथना को एक सात्विक आवेग प्रदान करती है .आरती संपन होने पर थाली सबके सामने लाइ जाती है ,बारी बारी से हम अपनी हथेलियों में उस प्रकाश को लेकर अपने नेत्रों ,मस्तक ,और सर पर लगातें हैं .यही खुली आंखों का मेडिटेशन है ,उसके अप्रतिम स्वरूप का स्मरण है ,धुप दीप फल फुल उसे अर्पित करने ,मूर्तियों को सुंदर पोशाकों से सज्जित से कर हम उसके रूप की आराधना करतें हैं .हमारा मन बुद्धि ,सम्भासन प्रखर हो उसके तेज से आलोकित हो इसीलियें हम उसके मूर्त रूप को आलोकित करतें हैं ,उसका रिफ्लेक्शन ही हमारा प्राप्य है .इसीलियें हाथ को आँख मस्तक सर तक लातें हैं ,आरती के शिखर से ,लो से .सामूहिक गायन ,वादन ,शंख धवनी ,घंटीकी माधुरी हमें अन्दर तक आंदोलित कर देती है ,आप्लावित करदेती है ,प्रेम से .कपूर (केम्फर )जलने का ,आरती के वक्त आरती की थाली में कपूर के जलाने का एक विशेष महत्व है ,ज्ञान की ज्योति से आलोकित हो हमारी तमाम वासनाएं पुरी तरह दहन हो जाती हैं ,कपूर का जलना ,पूर्ण दहन है ,कपूर जलकर भी अपने आस पास सुरभि फैला देता है .समाज और अध्यात्म सेवा में कपूर की तरह जल कर भी सुवास फैलाओ .आरती के वक्त कईयों की पलकों के कोटर बंद हो जातें हैं ,यह अपने ही दिव्य रूप का अन्तर मन की आंखों से दर्शन का सोपान है .परमेश्वर को आरती की लो से आलोकित करना ,आत्म रूप ज्योति ,परमात्म रूप परम ज्योति ,का अभिनन्दन स्मरण है .इसी ज्योति से तारा चन्द्र ,सूर्य आलोकित हैं ,चाँद हमारे मन मस्तक का ,सूर्य बुद्धि तत्व (इन्तेलेक्त ) का ,और अग्नि ,लो ,सम्भासन का देवता है .ज्ञान अग्नि से ही वाणी में सरस्वती का वास आता है .वागीश बनाती है ,ज्ञान अग्नि .परम चेतना है परमेश्वर ,मन बुद्धि सम्भासन से परे है ,उसीके नूर से सूरज ,चाँद तारा ,आलोकित हैं ,सिमित स्रोत हैं प्रकाश के ,और इश्वर का प्रकाश वहाँ भी है (ज्ञान ज्योति )जहाँ चाँद तारा सूरज नहीं हैं ,नहीं पहुँच सकते .में इस लघु दीप से उसे कैसे आलोकित कर सकता हूँ .सभी और उसी का प्रताप है ,इसीलिए दुष्यंत कुमार जी ने कहा होगा ,देखिये उस तरफ़ ,उजाला है ,जिस तरफ़ ,रौशनी नहीं जाती .

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अच्छा आलेख.