शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

आत्मानम् रथितं विद्वि शरीरं रथमेव तु , बुद्धिम तु सारथिं विद्धि मन : प्रग्रहमेव च। -----------(कठोपनिषद ,प्रथम अध्याय ,दूसरी वाली तीसरा श्लोक )

आत्मानम् रथितं विद्वि शरीरं रथमेव तु ,

बुद्धिम तु सारथिं विद्धि मन : प्रग्रहमेव च। 

               -----------(कठोपनिषद ,प्रथम अध्याय ,दूसरी वाली तीसरा श्लोक )

तू आत्मा को रथी जान ,शरीर को रथ समझ ,बुद्धि को सारथि और मन को लगाम समझ।

यहां यम नचिकेता संवाद में यम कहते हैं :(रथ के रूपक के माध्यम से )

इस शरीर रुपी कोच में रथ रुपी गाड़ी (शरीर )में ,आत्मा को इसमें बैठा सवार (मुसाफिर )जान। इन्द्रियाँ (Organ of knowledge )अपने विषयों की और भागतीं हैं (आँखें रूप देखना चाहतीं हैं कान मधुर संगीत ,प्रियोक्ति ही सुनना चाहते हैं ,जिभ्या रस चाहती हैं ,नासिका सुगंध )और वाणी मनचाहा सम्भाषण करना चाहती हैं )इन घोड़ों को  काबू में रखना मन रूपा लगाम का काम है इस मन पे  नियंत्रण का काम  हमारी बुद्धि करती है।

अब शरीर तो जड़ है यह खुद कुछ नहीं कर सकता इसे चलाने वाला गाड़ी  का कोचवान सारथि या बुद्धि ही है। इन्द्रियाँ अपने विषयों की और बे -लगाम हो दौड़ना चाहती हैं ,मन के हाथ से लगाम न छूटे मन बुद्धि को ही न भटका दे इसलिए कोचवान विवेकी होना चाहिए ,नीर -क्षीर विवेक संपन्न। हर दम सावधान। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। और रथ गढ्ढे में।

ये मन बड़ा चंचल है इसके हाथ से लगाम छूट सकती है ,ज्ञानेन्द्रिय इस लगाम को छुड़ाकर अपने -अपने विषयों की ओर लगाम छुड़ाकर भाग सकतीं हैं और ये मन उनके आकर्षण और बहकावे में  बंधा बुद्धि को भी भटका सकता है। यात्री (मुसाफिर )अपने गंतव्य पर तभी पहुंचेगा जब बुद्धि की पकड़ मन पर मजबूत बनी रहे। जीवात्मा की यात्रा इसी चौकड़ी (इन्द्रियाँ ,मन ,शरीर ,सारथि )की मार्फ़त चलती है।


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