बुधवार, 23 सितंबर 2009

मुगालते ही मुगालते .

अरस्तु (अफलातून )को मुगालता था -पृथ्वी सृष्ठी का केन्द्र बिन्दु है .मानव आत्माओं की यह प्राकृत निवास स्थली है ,देवासुर संग्राम का कुरुक्षेत्र है .कोपरनिकस और उनके शिष्य गेलीलियो ने यह मुगालता भी दूर किया -पता चला ,पृथ्वी तो स्वयं अपने पेरेंट सितारे की परिक्रमा करती है (एक जिओसेंत्रिक सिस्टम है ।).
आदमी को एक और मुगालता था -अपने परमात्म स्वरूप का ,डार्विन ने यह मुगालता भी तोड़ दिया .विकासात्मक कड़ी में आदमी का होना एक इत्तेफाक भी हो सकता है ,एक विचलन भी ,आदमी का होना कोई कास्मिक मजबूरी नहीं हैं ।
सच भी सापेक्षिक अवधारणा मात्र है .यहाँ तो द्रव्य की कथित मूल भूत कणिकाओं का ही सिर पैर नहीं हैं ,यह ख़ुद अपने से भी ज्यादा बुनियादी कणोंकी बनी हो सकतीं हैं .आज की स्तिथि यह है -ना यह कण हैं और ना ही बुनियादी ,इन अल्पकालिक कणों का स्वरूप लगातार बदलता है ,शिफ्तीं हैं ये कणिकाएं .ये उस कार की तरह हैं जो ट्रायल के दौरान ही फेक्ट्री गेट पर क्रेश हो जाती है ।
सच के ऊपर से धुंध की एक चादर और छंटी है ,अभी तक हम प्रकृति को एक बेक्द्राप एक केनवास भर मानते थे ,और इतिहास को एक मानव केंद्रित आख्यान ,आनुवंशिक विज्ञान ने हमारे श्रेष्ठता बोध को चुनौती दी है ।
पता चला है ,कीडे -मकोडे और आधुनिक मानव की आनुवंशिक बनावट में कोई ख़ास अन्तर नहीं हैं ,२-४ जींस का ही भेद है .आदमी चूहा भी हो सकता था आदमी का कायनात में होना कोई कायनात की मजबूरी (कास्मिक नेसेसिटी नहीं है )महज एक इतीफाक है ,एक विचलन भी हो सकता है ,कास्मिक एबेरेशनभी ।
बेशक आदमी की मेधा दुर्जेय है ,लेकिन उतनी भी नहीं ,वह चंद्रमा को ही अपना उपनिवेश बनाने की सोचने लगे ,अपनी ही दृश्य -श्रव्य सीमाओं का अतिक्रमण कर साईबोर्ग (आंशिक मशीन और आंशिक मानव ),साइबरनेतिक ओर्गेनिज्म ही बनने की ठान ले (केविन वारविक से क्षमा याचना सहित -"आई -साईं -बोर्ग "किताब के लेखक और दुनिया के पहले साईबोर्ग )।
एक तरफ़ जीवन की निस्सारता का रोना ,नश्वरता का विलाप -"पानी केरा बुदबुदा ,अस मानस की जात देखत ही बूझ जाएगा ,ज्यों तारा परभात ",सिर पर लटकी ग्लोबल वार्मिंग की तलवार -एक और मुगालता "हम जायेंगे तो हमारे साथ यह सृष्ठी भी नष्ट हो जायेगी "
पारिस्तिथि -की तंत्र और प्राकृत दुर्घटनाओं का जाय जा भी हम जान माल की क्षति के हिसाब से लगातें हैं .दिव्यता को एक मानव केद्रित जामा पहनाने की यह एक और कोशिश मात्र है .जैव मंडल के सभी प्राणियों से इतर हम अपने को इस्वरीय रूप मानने का मुगालता पालें हैं ।
यहाँ एक कवि के उदगार गौर तलब हैं ,यदि मच्छियों को ख्वाब में स्वर्ग दिखलाई देगा तो उनका ईश्वर मतस्य स्वरूप ही होगा ।
वनस्पति जीवाश्म शास्त्री स्टेफेन जे गौल्ड ने कहा था ,पृथ्वी हिम युग ,उल्का पात से दो चार होती रही है -मानव निर्मित आपदाओं से भी मुकाबला कर लेगी ,लेकिन पृथ्वी या फ़िर किसी भी ग्रह की करवट आदमी को चलता कर देगी ।
आदमी का यूँ जाना एक कास्मिक नॉन इवेंट ही होगी ,कोई नैतिक संकट नहीं खडा होगा .बड़े गुमान से दार्शनिकों की एक पूरी वंश वेळ कहती आई है -यह कायनात एक अदाम्मय इच्छा शक्ति (विल )एक आइडिया का खेल है ,जिन पर सिर्फ़ मानव का एका -अधिकार है ।
चेतना से परे कायनात का कोई अस्तित्व नहीं है ,पृथ्वी पर जीवन बाद को आया -यह विचार भी एक मेंटल कांस्त्रक्त है ।
जबकि हकीकत कुछ और है -सभी ज्ञान विज्ञान धर्म दर्शन एक ही जगह पर आकर मिल जातें हैं -वास्तविकता मिथ्या है ,न्यूट्रिनो कण की तरह इलुसिव है .जगत मिथ्या है .क्वांटम फिजिक्स भी केवल प्रागुक्ति ,संभावना से आगे नहीं बढ़ पाती है -ऐसा ऐसा हो सकता है ,यह तो कहा जासकता है ,लेकिन ऐसा ही है ,कहना नामुमकिन है ,फ़िर इतना मान गुमान ,मुगालता क्यों ?
प्रकृति की अपनी व्ययवस्था है अपना ऑर्डर है ,अपनी स्वायत्तता है ,आदमी की चिंताओं से उसका विशेष लेना देना नहीं है ।
पास्कल ने एक बार कहा था -स्थूल (मेक्रो )और अति सूक्ष्म हमारे सूक्ष्म बोध से परे हैं ,आंशिक दर्शन ही कर सकतें हैं ,हम मेक्रो और इन्फिनितेसिमल का ,पूर्ण अवलोकन नहीं ।
फ़िर भी आदमी अपने से ही कायनात को नाप रहा है .ऐसे में सच से उसका सामना हो तो कैसे ?

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