पहले मूल पोस्ट पढियेगा :
मानव में मष्तिष्क ही एक ऐसी चीज है जो उन्हें सम्पूर्ण प्राणियों में श्रेष्ठ बनाता
है। इसी मष्तिष्क से इंसान धरती से तक के अध्ययन ही नहीं बल्कि असंभव मानी जाने
वाली उपलब्धियों को प्राप्त कर पा रहा है।
आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर इस विषय में कुछ
कहने और बताने के बारे में सोचा है क्योंकि आज भी इतनी प्रगति के बाद में हमारे मेडिकल के
क्षेत्र में ही इस मानसिक स्वास्थ्य की गुत्थियों को सुलझाने में विशेषज्ञ कहे जाने वाले लोग भी
समझ नहीं पा रहे हैं . इस विषय में जब तक बच्चे के विषय में जानकारी प्राप्त होती तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है। चिकित्सा विज्ञानं में मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धी कोई विशेष
शिक्षा सम्बद्ध नहीं है बल्कि डॉक्टर भी इसके विषय में पूरी तरह से वाकिफ नहीं होते हैं।
इस विषय में अध्ययन करते और उसके निदान के विषय में शोध की
दिशा में प्रयासरत होने के नाते स्पष्ट रूप कह सकती हूँ कि ये जरूरी नहीं की कि बाल रोग
चिकित्सक चिकित्सक को इस विषय में जानकारी होती है , हाँ वे अपने विषय के तो
विशेषज्ञ होते है लेकिन इस विषय को नहीं समझ पाते हैं।*
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कहा जा सकता है कि जब बच्चा पैदा
होता है तो वह सामान्य ही दिखलाई देता है . उसका विकास धीरे धीरे होने पर घर वाले
कम ध्यान देते हैं। बुजुर्ग और घर के बड़े अपने अनुभव के आधार पर कहने लगते हैं कि
कोई कोई बच्चा देर से चलता या बोलता है या फिर बाकी क्रियायों के विषय में सुस्त होता है।
उनके पास इस विषय में उदहारण भी तैयार होते हैं कि उसका बच्चा इतने दिन में बोला या
चला लेकिन वे ये जाते हैं की उनके समय और आज के समय में बच्चों के विकास और उनकी
आई क्यू में बहुत अंतर हो चुका है। एक सामान्य बच्चा से विकास की और अग्रसर होता है।
अज आज भी बच्चे के दो साल तक उसके सामान्य विकास का किया जाता है और जब वे
इसा और सजग होते हैं तो बाल रोग विशेषज्ञ के पास जाते हैं और बाल रोग विशेषज्ञ में इतनी
जागरूकता और जानकारी का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है और फिर भी वे बच्चे को अपने हाथ से
मरीज निकल न जाय जाय उसके ऊपर अपने प्रयोग करते रहते हैं। बहुत स्थिति हुई तो
बच्चे को बगैर उसके विषय में ज्ञान उसको एम आर (Mentally Retarded ) घोषित कर
देते हैं। इसके बाद उनको ये भी नहीं पता होता है कि बच्चों को कहाँ और कैसे भेजा जाता है ?
वे जो बच्चे अधिक सक्रिय होते हैं , उनको स्ट्रोइड दे देते हैं जिससे बच्चा या तो सोता रहता
है या फिर वह निष्क्रिय पड़ जाता है . इसको उसके माता पिता ये समझते है कि बच्चे में
सुधार हो रहा है , जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होता है। बच्चे के माता पिता डॉक्टर को भगवान
समझ कर विश्वास करते रहते हैं और डॉक्टर उस विश्वास का फायदा उठाते रहते है।
मानसिक अस्वस्थता की कई श्रेणी होती हैं। बच्चों को एक श्रेणी में नहीं
रखा जा सकता है। इसका सीधा सम्बन्ध मनोचिकित्सक से हो सकता है . इस विषय की
जानकारी वह रखता है , लेकिन समाज में मनोचिकित्सक से इलाज कराने में आदमी पागल
घोषित कर दिया जाता है या फिर मनोचिकित्सक को पागलों का डॉक्टर। हम बहुत आगे बढ़
चुके हैं और निरंतर बढ़ भी रहे हैं लेकिन हम विश्वास पूर्वक ये नहीं कह सकते हैं कि हमें हर क्षेत्र में पूर्ण ज्ञान है।
बच्चे में 1 साल से पूर्व मानसिक स्थिति को समझने का पैमाना नहीं है,
हाँ अगर शारीरिक लक्षण प्रकट हो रहे हैं तब इस दिशा में हम सक्रिय हो जाते हैं। फिर भी
हम मानसिक तौर पर अस्वस्थता को पकड़ने का प्रयास नहीं कर पाते हैं और कर भी नहीं
सकते हैं।यह बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि यह बच्चों की अस्वस्थता की डिग्री
पर निर्भर करता है कि उसके सुधार होने की कितनी संभावना है ? इस तरह के बच्चों को स्पेशल चाइल्ड कहते हैं .
इसके लिए और किसी शहर की बात तो नहीं कह सकती हूँ लेकिन इस
दिशा में दिल्ली में कई सेंटर हैं पर इसके विषय में बच्चों पर काम हो रहा है और उनकी
स्थिति में सुधार हो रहा है। इस दिशा में सब से सार्थक कदम ये हो सकता है कि इस
स्थिति की ओर भी ध्यान दिया जाय और हर अस्पताल में और मेडिकल कॉलेज में इस क्षेत्र
में प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। वहां पर ऐसे बच्चों के लिए भी जगह होनी चाहिए और इसके विशेषज्ञ होने चाहिए।
*ये लेख मानसिक स्वास्थ्य के लिए कार्यरत विशेषज्ञ डॉ प्रियंका श्रीवास्तव से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है।
रेखा श्रीवास्तव जी आपने इस विषय और इस दिवस की याद दिलाई ,शुक्रिया .इस आलेख के लिए बधाई भी .
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस !
चित्र गूगल के साभार |
मानव में मष्तिष्क ही एक ऐसी चीज है जो उन्हें सम्पूर्ण प्राणियों में श्रेष्ठ बनाता
है। इसी मष्तिष्क से इंसान धरती से तक के अध्ययन ही नहीं बल्कि असंभव मानी जाने
वाली उपलब्धियों को प्राप्त कर पा रहा है।
आज विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर इस विषय में कुछ
कहने और बताने के बारे में सोचा है क्योंकि आज भी इतनी प्रगति के बाद में हमारे मेडिकल के
क्षेत्र में ही इस मानसिक स्वास्थ्य की गुत्थियों को सुलझाने में विशेषज्ञ कहे जाने वाले लोग भी
समझ नहीं पा रहे हैं . इस विषय में जब तक बच्चे के विषय में जानकारी प्राप्त होती तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है। चिकित्सा विज्ञानं में मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धी कोई विशेष
शिक्षा सम्बद्ध नहीं है बल्कि डॉक्टर भी इसके विषय में पूरी तरह से वाकिफ नहीं होते हैं।
इस विषय में अध्ययन करते और उसके निदान के विषय में शोध की
दिशा में प्रयासरत होने के नाते स्पष्ट रूप कह सकती हूँ कि ये जरूरी नहीं की कि बाल रोग
चिकित्सक चिकित्सक को इस विषय में जानकारी होती है , हाँ वे अपने विषय के तो
विशेषज्ञ होते है लेकिन इस विषय को नहीं समझ पाते हैं।*
मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कहा जा सकता है कि जब बच्चा पैदा
होता है तो वह सामान्य ही दिखलाई देता है . उसका विकास धीरे धीरे होने पर घर वाले
कम ध्यान देते हैं। बुजुर्ग और घर के बड़े अपने अनुभव के आधार पर कहने लगते हैं कि
कोई कोई बच्चा देर से चलता या बोलता है या फिर बाकी क्रियायों के विषय में सुस्त होता है।
उनके पास इस विषय में उदहारण भी तैयार होते हैं कि उसका बच्चा इतने दिन में बोला या
चला लेकिन वे ये जाते हैं की उनके समय और आज के समय में बच्चों के विकास और उनकी
आई क्यू में बहुत अंतर हो चुका है। एक सामान्य बच्चा से विकास की और अग्रसर होता है।
अज आज भी बच्चे के दो साल तक उसके सामान्य विकास का किया जाता है और जब वे
इसा और सजग होते हैं तो बाल रोग विशेषज्ञ के पास जाते हैं और बाल रोग विशेषज्ञ में इतनी
जागरूकता और जानकारी का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है और फिर भी वे बच्चे को अपने हाथ से
मरीज निकल न जाय जाय उसके ऊपर अपने प्रयोग करते रहते हैं। बहुत स्थिति हुई तो
बच्चे को बगैर उसके विषय में ज्ञान उसको एम आर (Mentally Retarded ) घोषित कर
देते हैं। इसके बाद उनको ये भी नहीं पता होता है कि बच्चों को कहाँ और कैसे भेजा जाता है ?
वे जो बच्चे अधिक सक्रिय होते हैं , उनको स्ट्रोइड दे देते हैं जिससे बच्चा या तो सोता रहता
है या फिर वह निष्क्रिय पड़ जाता है . इसको उसके माता पिता ये समझते है कि बच्चे में
सुधार हो रहा है , जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होता है। बच्चे के माता पिता डॉक्टर को भगवान
समझ कर विश्वास करते रहते हैं और डॉक्टर उस विश्वास का फायदा उठाते रहते है।
मानसिक अस्वस्थता की कई श्रेणी होती हैं। बच्चों को एक श्रेणी में नहीं
रखा जा सकता है। इसका सीधा सम्बन्ध मनोचिकित्सक से हो सकता है . इस विषय की
जानकारी वह रखता है , लेकिन समाज में मनोचिकित्सक से इलाज कराने में आदमी पागल
घोषित कर दिया जाता है या फिर मनोचिकित्सक को पागलों का डॉक्टर। हम बहुत आगे बढ़
चुके हैं और निरंतर बढ़ भी रहे हैं लेकिन हम विश्वास पूर्वक ये नहीं कह सकते हैं कि हमें हर क्षेत्र में पूर्ण ज्ञान है।
बच्चे में 1 साल से पूर्व मानसिक स्थिति को समझने का पैमाना नहीं है,
हाँ अगर शारीरिक लक्षण प्रकट हो रहे हैं तब इस दिशा में हम सक्रिय हो जाते हैं। फिर भी
हम मानसिक तौर पर अस्वस्थता को पकड़ने का प्रयास नहीं कर पाते हैं और कर भी नहीं
सकते हैं।यह बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि यह बच्चों की अस्वस्थता की डिग्री
पर निर्भर करता है कि उसके सुधार होने की कितनी संभावना है ? इस तरह के बच्चों को स्पेशल चाइल्ड कहते हैं .
इसके लिए और किसी शहर की बात तो नहीं कह सकती हूँ लेकिन इस
दिशा में दिल्ली में कई सेंटर हैं पर इसके विषय में बच्चों पर काम हो रहा है और उनकी
स्थिति में सुधार हो रहा है। इस दिशा में सब से सार्थक कदम ये हो सकता है कि इस
स्थिति की ओर भी ध्यान दिया जाय और हर अस्पताल में और मेडिकल कॉलेज में इस क्षेत्र
में प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। वहां पर ऐसे बच्चों के लिए भी जगह होनी चाहिए और इसके विशेषज्ञ होने चाहिए।
*ये लेख मानसिक स्वास्थ्य के लिए कार्यरत विशेषज्ञ डॉ प्रियंका श्रीवास्तव से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है।
रेखा श्रीवास्तव जी आपने इस विषय और इस दिवस की याद दिलाई ,शुक्रिया .इस आलेख के लिए बधाई भी .
यह नहीं है की जन्म से मानसिक विकलांगता लिए आ रहे बच्चों के रोगनिदान और शिनाख्त की दुनिया भर में व्यवस्था नहीं है .ऑटिज्म (आत्म विमोह
)से ग्रस्त बच्चों के लिए संस्थाएं भी हैं इनके लिए संरचनात्मक शिक्षा स्ट्रक्चरल एज्युकेशन मुहैया करवाने वाले विशेष स्कूल भी हैं .लेकिन जनमानस में
जानकारी का बेहद अभाव है .
मानसिक आरोग्यशालाएं भी हैं .मनो -रोग विभाग भी .मनो -विकलांगों के लिए शिक्षण संस्थाएं भी हैं .मैं कहता हूँ सब कुछ है ,लेकिन समाज आज भी मनो -रोगों को साधारण रोंगों की तरह लेने के लिए राजी नहीं है .इन्हें छिपाता है .अभिशाप मानता है .मरीज़ को पागल समझता है .
इधर उधर ओझा फकीरों ,मौलवियों के पास भटकता रहता है .बाला जी जाता है भूत भगवाने ,कहतें हैं वहां दरबार लगता है तारीख पड़ती है .
हम वहां सशरीर गएँ हैं एक ऐसे मनो -रोगी के साथ जिसे पी जी आई चण्डीगढ़ के मनो -रोग विभाग से मनो -चिकित्सा भी मुहैया करवाई जा रही थी .रोगी की खुद की पेशकश पर .
बतलादूं आपको रोगी और कोई नहीं मेरी अपनी बिटिया थी जो उस वक्त गोमेंट कोलिज आफ आर्ट्स चण्डीगढ़ में पढ़ रही थी .उसकी किसी सहेली ने बताया बाला जी जाओ वहां सब ठीक हो जाता है .
उसने हमें बतलाया .हम तैयार हो गए .इसलिए नहीं की हमें भरोसा था बल्कि इसलिए कि इन चीज़ों का प्लेसिबो असर भी होता है .मेडिकल एज्युकेशन में एक चैपटर होता है -placebo effect of the drug .
Placebo effect is a sense of benfit felt by a patient that arises solely from the knowledge that treatment has been given .
यानी मरीज़ आश्वस्त हो जाता है उसे इलाज़ मिल गया है अब वह ठीक हो जाएगा .डॉ ,कहता है कोई ख़ास बात नहीं दो तीन दिन में आप ठीक हो जायेंगे और मरीज़ ठीक भी हो जाता है ,भले नुसखा गलत ही लिखा गया हो .
तो इसे आजमाने ही हम ले गए .नतीजा वाही ढाक के तीन पात .
हाँ वहां जाके हमने कई लोगों से बातचात की .एक से पूछा -आप यहाँ पहली बार आयें हैं ज़वाब मिला नहीं मैं यहाँ आता रहता हूँ .एक लड़की जैसे ही वहां जय जय जय हनुमान गुंसाई आरती शुरू हुई बाल खोलके गोल गोल घूमने लगी .हमने पूछा यह यहाँ इसी वक्त आती है .ज़वाब मिला तीन सालों से मैं इसे यहीं देख रहा हूँ .आरती के वक्त आती है ऐसे ही नांचती है .
अब इन मरीजों को यहाँ कोई छेड़ता तो है नहीं लड्डू खाने को मिलते हैं ये यहीं के होके रह जाते हैं .ऐसे कितने ही मरीज़ यहाँ ला -वारिश पड़ें हैं .जिसे यकीन न हो आके देख ले ये सब समाज द्वारा ठुकराए गए वे लोग हैं जिन्हें आधुनिक मनो -चिकित्सा की ज़रुरत है .
आप सोच रहे होंगें मेरी बेटी का क्या हुआ ?वह अकेली निर्बंध रहती है .दिल्ली में मज़े से जॉब कर रही है नियमित दवा खाती है .उसकी पसंद की शादी भी की .जोड़ीदार वही ढूंढ के लाई सब कुछ बतलाके .एक साल बाद तलाक हो गया .उस अधेड़ के साथ भी समस्याएं थीं .यह उसकी दूसरी शादी थी .तलाक शुदा था .
मानसिक विकारों को लेकर भारत में बहुत गफलत है .लोग सोचते हैं चुपचाप शादी कर दो सब ठीक हो जाएगा .चुपचाप आप शादी नहीं कर सकते .मरीज़ उम्र भर चोरी छिपे दवा नहीं खा सकता .एक नहीं दो परिवार बर्बाद हो जातें हैं .
यहाँ तो दोनों पक्षों की रजा मंदी से सबकुछ का संज्ञान लेने के बाद शादी हुई थी वह भी प्रेम विवाह .
सोचिये झूठ फरेब के साथ शादी कर दी जाती है चुपके से बिना बताये वहां क्या न होता होगा .
मनो रोगों को लेकर समाज हीनत्व से ग्रस्त है उससे बाहर आकर इन्हें अन्य रोगों की तरह लिए जाने की ज़रुरत है .इनका बा -कायदा इलाज़ है आधुनिक मनो -रोग चिकित्सा के पास .
ब्लॉग राम राम भाई के आर्काइव्ज़ में आपको तमाम मनो -रोगों के बारे में विस्तार से पढने को मिलेगा .चेक करके देखिये .
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस :एक प्रतिक्रिया
1 टिप्पणी:
अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है, कुछ लोगों को समझ कम है, कुछ को बहुत अधिक समझ है।
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