गेस्ट पोस्ट ,गज़ल :आईने की मार भी क्या मार है
जब आदमी उम्र की बुलंदियों पर पहुंचता है ,उसे एहसास होता है उम्र यूं ही बीत गई ,मुझे कुछ
करना चाहिए था .उसका नश्वरता बोध ज्यादा जागृत होने
लगता है .जब तक शरीर ठीक रहता है यह बोध ही नहीं होता ,जब इस ठीक होने की बुलंदी से
नीचे उतरता है आदमी यह एहसास और भी मुखरित होता
जाता है .कुछ ऐसा ही एहसास संजोये है यह ग़ज़ल डॉ .वागीश मेहता जी की .
गज़ल :आईने की मार भी क्या मार है
-डॉ .वागीश मेहता ,1218 ,शब्दालोक ,सेक्टर 4 ,अर्बन इस्टेट ,गुडगाँव
(हरियाणा )122 001
आईने की मार भी क्या मार है ,
अक्स में उभरी सी एक दरार है .
(2)
फूल जिनको आज तक बांटा किए ,
कर रहे मैसूद वापिस ख़ार हैं,
(3)
पुख्ता वो मीनार जिसपे नाज़ था ,
ढह रही ज्यों रेत की दीवार है .
(4)
खेल में तैरा किए कई समंदर ,
करना कतरा पार अब दुश्वार है .
(5)
उम्र की तहरीर में जुड़ता था साल,
अब एक दिन जुडना हुआ मुहाल है .
प्रस्तुती :वीरू भाई (वीरेंद्र शर्मा )
4 टिप्पणियां:
khubsurat gazle...
आदरणीय वागीश जी को सादर -
विजयादशमी की शुभकामनाएं |
फूल जिनको आज तक बांटा किए ,
कर रहे मैसूद वापिस ख़ार हैं।
लाजवाब ग़ज़ल का लाजवाब शेर।
पाठक की अनुभूति से मेल खाते भाव उसे अंतस् की गहराई तक प्रभावित करते हैं।
आभार आपके और मेहता जी के प्रति।
आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे।
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