सतसंग के फूल
साधू चरित शुभ फूल कपासू ,
निरस विशद ,गुणमय फल जासु।
नीरस ,फीका सा होता है कपास का फूल वहां भ्रमर , तितलियाँ ,मधुमक्खियाँ नहीं पहुँचती हैं न उसमें कोई सिल्की छूअन है न गंध न मकरंद। कभी आपने कपास का फूल भगवान को नहीं चढ़ाया होगा। फूल वो चढ़ते हैं जिनमें रस हो सुगंध हो सौरभ्य हो ,सौकर्यता हो। जो सुन्दर हों। जिनमें आकर्षण होगा वहीँ तो तितलियाँ जाएंगी। राजा और सन्यासी को मधुमक्खी जैसा होना चाहिए -मकरंद लेने के बाद फूल का सौंदर्य गंध सुगंध कम नहीं होता है न वो जूठा न उच्छिष्ट होता है न आहत न ठगा हुआ सा महसूस करता है।न वह अधूरा है मकरंद ले लिए जाने के बाद। राजा को भी साधू जैसा होना चाहिए। जो दूसरों के दोष ढ़क लें।बहुत काम ले टैक्स के रूप में प्रजा से।
मुद मंगलमय ,जो जग जंगम ,
तीरथ राजू।
जो मोद और मांगल्य देता हो चलता फिरता हो। जो एक जगह न रहता हो ,यही गुण है साधु का ।यहां जंगम का अर्थ
मोबाइल है।
तीरथ जाए एक फल ,
संत मिलें फल चार ,(धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष )
सद्गुरु मिलें अनेक फल ,
कहत कबीर विचार।
मंदिर जाने से पहले अंतर की पवित्रता भी हो जब तक अंदर की पवित्रता नहीं होगी बाहर की प्रार्थना भी स्वीकृत नहीं होगी। हमारे यहां तीरथ की बड़ी महिमा बताई गई है। तीरथ जाने से अंतर्मन की पवित्रता मिलती है। तीरथ जाने से एक फल मिलता है अंत :करण की शुचिता।
मन बुद्धि चित्त अहंकार इनका नाम है अंत :करण।
सच्चा गुरु मिलने के बाद फलाकांक्षा रहती ही कहाँ है।संत जहां पहुँचते हैं वही स्थान तीरथ बन जाता है।
मनुष्य शरीर मिलना बड़ा दुर्लभ है और मानव तन मिल भी जाए तो उससे भी ज्यादा दुर्लभ है अच्छा संत मिलना।
अच्छे संतों का दीर्घावधि संग मिलना और भी दुर्लभ है। सच्चे गुरुओं से संवाद होना भी साधना है। सच जानने का एक
ही साधन है वह है कथा।
राम कथा सुन्दर करतारी ,
संशय विटप उड़ावन हारी।
गुरु बनाओ जानके ,
पानी पियो छान के।
जब भगवान भूतेश (राम )बनके आते हैं
तब वो (उमा )भूमिजा(विदेह की जानकी ) बनके आती हैं।
जब भगवान नारायण बनके आते हैं (क्षीर सागर में शेष शैया पर विराजमान विष्णु बनके )
तब वे नीरजा बनके आतीं हैं।
जब भगवान शैल शिखर पर विराजमान होते हैं -
तब वह शैलजा (हिमवान की कन्या )बनके आतीं हैं।
राम कथा शिव ने पार्वती को सुनाई है शर्त एक ही रखी है पार्वती के सामने कथा श्रवण के दौरान बीच में सोना नहीं है। सावधान रहकर कथा सुननी है।मूल राम कौन हैं। दशरथ के यहां जो पैदा हुए हैं क्या वह ही मूल राम हैं या कोई और भी हैं। उनका जन्म कब कहाँ और क्यों होता है। पूछती हैं पार्वती शिव से।
शिव नारद द्वारा विष्णु को दिए अभिशाप की कथा पार्वती को बतलाते हैं:
एक मर्तबा नारद जी को बड़ा अहंकार हो गया। बड़ा भारी तप करके नारद ने काम को जीत लिया। काम का अर्थ सिर्फ रूप के प्रति आकर्षण ही नहीं है कामका मतलब है कामना -हर प्रकार की एषणा ही काम है। नारद जी स्वर्ग में जहां भी जाते कहते देखो मैं कामजयी हो गया। काम ,क्रोध ,लोभ ,मत्सर आदि को मैंने जीत लिया। पिता ब्रह्माजी के पास पहुंचे। पिता बड़े खुश हुए -हर पिता चाहता है उसका बेटा उससे आगे निकले। ब्रह्मा बोले जो काम मैं न कर सका वह तूने कर दिया। कथा है ब्रह्मा ने एक बार सरस्वती का रूप देखकर उसका हाथ चूम लिया था।
अंतर्यामी शिव ने इसे अनैतिक मानकर उनका एक सिर उड़ा दिया अब वह पंचानन से चतुरानन रह गए ,ऊपर की और भी उनका मुख था ताकि वह सरस्वती को हर दिशा में देख सकें।
ब्रह्मा जी ने कहा नारद पिता होने के कारण मैं तुम्हें एक सीख देता हूँ ,शिव लोक मत जाना। उनके पास ये खबर पहुँच चुकी है कि चौदह लोकों में तुम ये कहते डोल रहे हो देखो शिव को तो काम को अपना तीसरा नेत्र खोलके भस्म करना पड़ता है। मैंने उसे जीत लिया।
माने नहीं नारद विश्व का पहला संवाददाता होने के कारण पहुँच ही गए शिव लोक। शिव ने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने उस आदर में रस लिया।जब बड़े हमारा आदर करने लगें और हम उस सम्मान में रस लेने लगें तब समझ लेना हमारे पतन के दिन आ गए।
शिव के पास जाकर भी नारद ने वही कहा। शिव नाराज नहीं हुए अपने भक्त पर वह तो आशुतोष हैं जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। लेकिन जाते हुए नारद को उन्होंने एक सीख दे दी -बोले नारद इस समय तुम्हारी बॉडी लैंग्विज ठीक नहीं है तुम विष्णु के पास मत जाना।
नारद ठहरे खबरची (न्यूज़ बोले तो NEWS यानी नार्थ -ईस्ट -वेस्ट -साउथ की खबर रखने वाले चैनलिए )माने नहीं। विष्णुलोक (वैकुण्ठ )पहुँच ही गए। विष्णु भगवान ने उन्हें (नारद को )अपनी तमाम मर्यादाओं को तोड़ते हुए अपने ही आसन पर बिठा दिया। नारद रस लेने लगे -लक्ष्मी जी को उनकी बॉडी लैंग्विज अच्छी नहीं लगी।
नारद के जाने के बाद भगवान से उमा ने शिकायत की -ये नारद तो अब खुद को भगवान ही समझने लगे। भगवान ने कहा -मैं तुमसे सहमत हूँ। भगवान तो सदैव अहेतुक भक्त वत्सल हैं। अपने भक्त का भला ही चाहते है सब कालों मे.उन्होंने लक्ष्मी जी को अपनी योगमाया दिखलाने की छूट दे दी।
नारद चले गए -लक्ष्मीजी ने अपनी योगमाया से अगले ही पल एक माया नगरी रच दी नारद ने अपने आप को अगले ही क्षण उस अद्भुत नगरी में पाया जो चौदह लोकों से न्यारी थी। जिसका शिल्प देखते ही बनता है। नारद को पता चला नगर के राजा की कन्या का स्वयंवर है इसीलिए नगर को सावधानी पूर्वक सजाया गया है। नारद आशीर्वाद देने पहुंचे राजा को। देखा हल्का सा अपना मुंह छिपाए एक कन्या बैठी है राजा के निकट। नारद ने कहा ज़रा दिखलाओ इसका चेहरा देखें इसके भाग्य में क्या है।
संत कहते ही उन्हें हैं जो देखते ही जान लेते हैं माथे पे लिखा क्या है ,हाथों में छपा क्या है और छाती(हृदय ) में छिपा क्या है।स्वयं लक्ष्मी जी योगमाया से राजा की मोहिनी कन्या बनी हुई थीं। बस नारद ने देखा तो सम्मोहित हो गए। हर हाल में उन्हें हासिल करने का मन बना लिया। विष्णु जी के पास पहुंचे कहा भगवन मुझे सुंदर से भी सुन्दर बना दो। मैं अब गृहस्थ बनना चाहता हूँ जस्ट फॉर ए चेंज। अपनी योगमाया से विष्णुजी ने नारद का चेहरा बंदर का बना दिया। लेकिन नारद स्वयं अपने इस शाखामृगमुख को नहीं देख पाते थे उन्हें खुद को अपना चेहरा सुन्दर ही दिखलाई देता था।
वही हुआ जो होना था। सभा में मौजूद ब्राह्मण वेश में आये शिव के गणों ने भी नारद का खूब मज़ाक उड़ाया।
नारद आगे बढ़े देखा वही कन्या विष्णु का हाथ पकड़े सामने से आ रही है। नारद कुपित हुए भगवान को शाप दे दिया। शिव के दोनों गणों को भी शाप दे दिया।
त्रेता में तुम मानव रूप राम बनकर आओगे विष्णु -तुम्हें भी अपनी प्रियतमा का बिछोड़ा भोगना सहना पड़ेगा ।
राम कथा जड़ चेतन का ,शुचि अशुचि का ज्ञान करा देती है। वही आदमी कथा सुन सकता है जो सावधान है अलर्ट है।
संशय आत्मा विनश्यति -कोई और आपको नहीं मारता ,अपनों से दूर यह शक ही करता है यह एक ऐसा कीड़ा है जो आपको खा जाता है।
रामकथा सुन्दर करतारी ,
संशय विटप उड़ावन हारी।
एक बार युद्ध के मैदान में अर्जुन ने भगवान से पूछा था -वह कौन सी चीज़ है जो मनुष्य को नष्ट कर देती है उसे अवसाद में ले आती है। तब भगवान ने कहा -संशय।
जब फसल पाक जाती है खेत में से विहगों को उड़ानें के लिए खेत का रखवाला ताली बजाता है। फसल आ जाने पर खरपतवार चुन चुनकर निकालता है। ये अवांछित खरपतवार ही हमारे जीवन में संशय बनके आते हैं। राम कथा का श्रवण हमें संशय मुक्त करता है।
कुछ लोग ऐसा कटु बोलते हैं चुभन पैदा करते हैं जैसे नागफणी हो। अज्ञानता ही दुःख और संशय की कोख है। दूसरों से परिवर्तन की अपेक्षा करना आपके लिए आपके दुःख का कारण बन जाती है। परिवर्तन के हम आकांक्षी हैं अन्य में नहीं खुद में लाएं ये परिवर्तन। बंधू ,बांधव ,पड़ोसी बदलें हमारे लिए ऐसा हम चाहने लगते हैं । साधक वह है जो स्वयं में परिवर्तन चाहता है अन्य में नहीं।
वृक्ष कबहू न फल भखें , नदी न संचे नीर
परमारथ के कारणे , साधुन धरा शरीर।
अगर आप दूसरोँ का दर्द लेकर मंदिर में गए हैं प्रार्थना करने तो देवता की मूर्ती आँख खोल देगी। लेकिन अगर अपने स्वार्थ को लेकर गए तो आप स्वयं ही आँख बंद रखेंगे स्वार्थ के वशीभूत होकर मूर्ती आँख नहीं खोलेगी।
संत कहते उन्हें हैं जो देखते ही जान लेते हैं माथे पे लिखा क्या है ,हाथों में छपा क्या है और छाती(हृदय ) में छिपा क्या है।
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