मार्क्सवादी भकुओं के कच्चे चिठ्ठे : डॉ। नन्द लाल मेहता "वागीश "डी.लिट
(पूर्व फेलो संस्कृति मंत्रालय )
एक ख़ास तरीके से साहित्य अकादमी पुरुस्कारों को वापस करने की होड़ लगी है। ये पुरुस्कार वापस करने वाले लोग कई खेमों के एक संयुक्त झंडे के नीचे आ गए हैं। इनका मुख्य उद्देश्य भारत भाव को बदनाम करना है। मोदी तो बहाना भर हैं ,अपनी कुंठाओं को छिपाकर ये लोग भारत भाव के विरोध में किसी भी सीमा तक पहले भी जाते रहे हैं। इन तथाकथित साहित्यकारों में कुछ तो ढंग के लेखक भी नहीं है। इनकी कई श्रेणियाँ हैं ,ज्यादातर मार्क्सवाद के बौद्धिक गुलाम हैं। कुछ जिहादी तबीयत के हैं। तो कइयों की मानसिकता जाति और मज़हब की खिचड़ी पकाना है। इनका सूत्र गुलाम वंशी नेहरू कांग्रेस के हाथ में है। साहित्य अकादमी में पहले तो जवाहरलाल नेहरू ने और बाद में इंदिरा गांधी ने इन मार्क्सवादी बौद्धिक गुलामों को प्रतिष्ठित किया था। इनमें से एक अशोक बाजपाई नाम के एक आईएएस अफसर रहे हैं। जिन्होनें भोपाल के भारत भवन को लगभग बाजपाई भवन बना लिया था। इन्होनें सकारी संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए स्वयं को साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करने का षडयंत्र किया। ये जनसत्ता में 'कभी कभार' नाम से एक कालम भी लिखा करते थे। जो नितांत अरुचिकर और अपठनीय होता था। इनके बोझिल लेखन से जनसत्ता की पठनीयता भी आहिस्ता -आहिस्ता कम होने लगी थी।इस मार्क्सवादी बौद्धिक गुलाम को कैसे एक कृति पर अकादमी पुरूस्कार मिला वह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। डॉ. नामवर सिंह की दोस्ती इनके काम आई और ये आकदमी पुरुस्कृत लेखक हो गए। ये नहीं भूलना चाहिए कि भारत भवन के करता धर्ता रहते हुए इन्होनें साहित्यिक दृष्टि से कई धत कर्म किये। हिंदी व्यंग्य के प्रख्यात लेखक शरद जोशी को भोपाल छोड़ने के लिए इन्होनें मजबूर कर दिया। वे स्वाभिमान वश इनके सामने कभी झुके नहीं। इन्होनें पूरी कोशिश ये ज़ारी रखी कि उनकी रचनाएँ छपने न पाएं ,ये खुन्नस निकालने में निपुण हैं।
संस्कृति मंत्रालय के एक सचिव श्री सीताकांत महापात्र की चरित पत्रिका में विपरीत टिप्पणियाँ दर्ज करके इन्होनें उन्हें त्याग पत्र देने के लिए मजबूर कर दिया। सत्ता की चाटुकारिता करते हुए वे तत्कालीन प्रदेश मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पक्ष में खड़े रहे। ताकि वे भोपाल गैस काण्ड के अपराधी दोषी एंडरसन को भारत से साफ़ निकल जाने का रास्ता बनाने में सहायक रहे। इससे ज्यादा नैतिक अपराध क्या हो सकता है कि बीसहज़ार से ज्यादा अधिक निरपराध लोगों की मृत्यु का कारण बने मिस्टर एंडरसन सुरक्षित रूप से भारत छोड़कर चले गए। जहां तक इनकी साहित्यिक पात्रता का सम्बन्ध है सुबुद्ध पाठक जानते हैं कि इनकी कवितांए स्वाभाविक कवितायेँ न होकर गद्य को आगे पीछे करके लिखी गई कवितायेँ हैं। जिसे ये वैचारिक कविताएं कहते हैं वे नितांत रसहीन कविताएँ हैं। दरसल बौद्धिक गुलामी करने वाला कोई भी शख्स अच्छा कवि हो भी कैसे सकता है।
मार्क्सवादी भकुओं के कच्चे चिठ्ठे -(सहभावी )वीरेन्द्र शर्मा
(पूर्व फेलो संस्कृति मंत्रालय )
एक ख़ास तरीके से साहित्य अकादमी पुरुस्कारों को वापस करने की होड़ लगी है। ये पुरुस्कार वापस करने वाले लोग कई खेमों के एक संयुक्त झंडे के नीचे आ गए हैं। इनका मुख्य उद्देश्य भारत भाव को बदनाम करना है। मोदी तो बहाना भर हैं ,अपनी कुंठाओं को छिपाकर ये लोग भारत भाव के विरोध में किसी भी सीमा तक पहले भी जाते रहे हैं। इन तथाकथित साहित्यकारों में कुछ तो ढंग के लेखक भी नहीं है। इनकी कई श्रेणियाँ हैं ,ज्यादातर मार्क्सवाद के बौद्धिक गुलाम हैं। कुछ जिहादी तबीयत के हैं। तो कइयों की मानसिकता जाति और मज़हब की खिचड़ी पकाना है। इनका सूत्र गुलाम वंशी नेहरू कांग्रेस के हाथ में है। साहित्य अकादमी में पहले तो जवाहरलाल नेहरू ने और बाद में इंदिरा गांधी ने इन मार्क्सवादी बौद्धिक गुलामों को प्रतिष्ठित किया था। इनमें से एक अशोक बाजपाई नाम के एक आईएएस अफसर रहे हैं। जिन्होनें भोपाल के भारत भवन को लगभग बाजपाई भवन बना लिया था। इन्होनें सकारी संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए स्वयं को साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करने का षडयंत्र किया। ये जनसत्ता में 'कभी कभार' नाम से एक कालम भी लिखा करते थे। जो नितांत अरुचिकर और अपठनीय होता था। इनके बोझिल लेखन से जनसत्ता की पठनीयता भी आहिस्ता -आहिस्ता कम होने लगी थी।इस मार्क्सवादी बौद्धिक गुलाम को कैसे एक कृति पर अकादमी पुरूस्कार मिला वह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। डॉ. नामवर सिंह की दोस्ती इनके काम आई और ये आकदमी पुरुस्कृत लेखक हो गए। ये नहीं भूलना चाहिए कि भारत भवन के करता धर्ता रहते हुए इन्होनें साहित्यिक दृष्टि से कई धत कर्म किये। हिंदी व्यंग्य के प्रख्यात लेखक शरद जोशी को भोपाल छोड़ने के लिए इन्होनें मजबूर कर दिया। वे स्वाभिमान वश इनके सामने कभी झुके नहीं। इन्होनें पूरी कोशिश ये ज़ारी रखी कि उनकी रचनाएँ छपने न पाएं ,ये खुन्नस निकालने में निपुण हैं।
संस्कृति मंत्रालय के एक सचिव श्री सीताकांत महापात्र की चरित पत्रिका में विपरीत टिप्पणियाँ दर्ज करके इन्होनें उन्हें त्याग पत्र देने के लिए मजबूर कर दिया। सत्ता की चाटुकारिता करते हुए वे तत्कालीन प्रदेश मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पक्ष में खड़े रहे। ताकि वे भोपाल गैस काण्ड के अपराधी दोषी एंडरसन को भारत से साफ़ निकल जाने का रास्ता बनाने में सहायक रहे। इससे ज्यादा नैतिक अपराध क्या हो सकता है कि बीसहज़ार से ज्यादा अधिक निरपराध लोगों की मृत्यु का कारण बने मिस्टर एंडरसन सुरक्षित रूप से भारत छोड़कर चले गए। जहां तक इनकी साहित्यिक पात्रता का सम्बन्ध है सुबुद्ध पाठक जानते हैं कि इनकी कवितांए स्वाभाविक कवितायेँ न होकर गद्य को आगे पीछे करके लिखी गई कवितायेँ हैं। जिसे ये वैचारिक कविताएं कहते हैं वे नितांत रसहीन कविताएँ हैं। दरसल बौद्धिक गुलामी करने वाला कोई भी शख्स अच्छा कवि हो भी कैसे सकता है।
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