रविवार, 22 मई 2011

"पिताजी".

"मेरा पेट हाउ और मैं ना जानू काऊ "यही मुहावरा सुनते सुनते हम कब बड़े हो गए खबर ही नहीं हुई .इस उपालम्भ का निशाना पिताजी होते थे .तीर -अंदाजी अम्मा करतीं थीं ।
बहर -सूरत हम अपना बचपन और किशोर मन यहींबुलन्दशहर में छोडके आगे पढ़ाई के लिए मामा के साथ सागर निकल आये थे .मामा यहाँ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थे और हम बी एससी सेकिंड ईयर के छात्र .साल में दो बार ही अब अपने शहर का चक्कर लगता था दशहरा से दिवाली तक और गर्मियों की छुट्टियों में ।चार साल तक यही दौर चला .
उस दौर में घर के एक आले में हमने दो चित्र फ्रेम में सजा के रखे हुए थे ,एक प्ले बेक सिंगर मुकेश का जिसके नीचे उनके हस्ताक्षर भी थे दूसरा रिचा श्रृंगी .उस दौर में हम इन दोनों के अनुगामी थे .दोनों के ही प्रति सम्मोहित थे .साथ में गणेशजी की मूर्ती भी उसी आले में रखी रहती थी .पिताजी नहाने के बाद इसी आले के सामने गणेश स्तुति करते थे .उन्होंने कभी भी इन चित्रों के बारे में नहीं पूछा .कौन है ये कन्या क्या है ?अल्प भाषी होने के अलावा पिताजी किसी के भी काम में दखल अंदाजी नहीं करते थे ,निस्संग बने रहते थे .देखते थे सब कहते कुछ नहीं थे ।
थोड़ा और पीछे की और लौटें तो एक घटना आज भी ज्यों की त्यों याद है .गर्मियों की छुट्टियों में अनूप शहर की गंगा की रेती के मीठे तरबूज मंडी में बहुत ज्यादा आते थे .एक एक बीस -बीस पच्चीस किलोग्रेम का और बड़ा भी .मजदूर लिए चला आरहा है सिर पे रखे पीछे पीछे पिताजी .तरबूज हाथ का सहारा दे उतरवाते .मजदूर को ढुलाई के अलावा बड़े प्यार से बिठाते कहते हुए गर्मी बहुत है -शरबत चीनी का बनवाते उसे पिलाते .रिक्शे तांगे वालों के प्रति भी हमने त़ा -उम्र यही भाव अनुभाव देखा उनका जो सहज ही हमारे संग भी चला आया ।
बेहद के संतोषी थे पिताजी .हमारा पहला पुत्र स्टिल बर्थ था (पेट में ही मर गया था ).पिताजी उसे गोद में समेटे चल रहे थे (नन्ने सफ़ेद कपडे में लिपटी काया को ),साथ में एक हाथ का पंखा भी था .काली नदी के पार खादर में पहुंचे थे हम लोग .हाथ में फावड़ा मेरे था लेकिन नरम जमीन की खुदाई पिताजी ने ही की थी .फिर उस नन्नी काया को सुपुर्दे ख़ाक करते हुए कहा-लेट जा बेटा ,खुश रहो जहां भी रहो .इतना ही संस्कार था हमारा तुम्हारा । प्रणाम किया पिताजी ने उसे बाकायदा .
ये दर्शन भी हमारे संग साथ चला आया ।
पत्नी एक खौफनाक हादसे में यूं चली गईं ,इसी फलसफे ने बचाया .एक आम आदमी को पागल करने के लिए काफी था वह हादसा .दर्द नाक मौत जिसमे पत्नी ९५ %झुलस गईं थीं .आखिरी क्षण तक डॉ .उन्हें बचाने की चेष्टा करते रहे जब की ऐसे मामलों में उम्मीद बचती कहाँ है .३५%झुलसना मौत के लिए काफी होता है ।
अभयदान देते रहे त़ा- उम्र पिताजी ।
उस दौर में सब कुछ अपने आप होता था .मसलन हम व्याख्याता बन गए,शादी भी हो गई और तीन बच्चे भी कोई आयोजना नहीं कोई उड़ान नहीं कौन क्या करेगा आगे बस एक वर्तमान ही शाशवत सत्य बना रहा हमारे लिए .घर छोड़कर वापस जाते नौकरी पर पिताजी बस दो बातें कहतें -परदेश में रहते हो सब से मिलके रहना .कोई दो बात कहे तो सुन लेना .झगडा नहीं करना किसी से भी ।
अलावा इसके याद नहीं पड़ता उन्होंने हम एक अदद भाई -बहिन को कभी और कुछ हिदायत दी हो .
एक और घटना बचपन की -मदन भाई को दूसरी बीबी से एक बेटा हुआ .इससे पूर्व मदन मामाजी (हम बुलंदशहर में सबको मामा ही कहते थे ,हमारी ननिहाल जो थी ) को कोई संतान नहीं थी .
मदन मेडिकल स्टोर्स के मालिकमदन मोहन जी पिताजी के दोस्त थे .दांत काटी रोटी जैसा याराना था .जसूठंन की दावत रात को थी .हम बाल भाव से पंगत में बैठे जीम रहे थे .उम्र रही होगी हमारी १०-१२ साल .पिताजी जिमा रहे थे .रात को रोज़ मदिरा पान करते थे पिताजी उस रात भी की हुई थी .यह वह दौर था जब मुंह से बॉस आना शराब की ,बुरी बात समझा जाता था ।शराब पीने वाले को शराबी .
पिताजी ने शायद थोड़ा इफरात से पिली थी .हमारे बगल से बैठा लाला कह रहा था -साले ने पी हुई है .मदनजी ने यह बात सुन ली थी उस वक्त पिताजी वहां नहीं थे -मामा मदन ने बतलाया यह आदमी एक कार हवा में उड़ा चुका है शराब में .लेकिन हीरा है हीरा .आज तक इसने किसी का अहित नहीं किया सब की हर मौके पर मदद ही की है ।
इस एक एब ने घर में हमारे पिता श्री को माँ की निगाह में एबदार,एबी बना दिया है .अम्मा कहती थी -मेरा पेट हाउ और मैना जानू काहू ।
इस आदमी को बस शराब से मतलब है .निखट्टू है यह पूरा निखट्टू ।
बचपन में हम कितनो को ही अपनी नहीं अपने बड़ों की निगाह से देखने लगतें हैं .बड़ा अहित होता है इस घरेल्लू ओपिनियन बिल्डिंग का .हमारा नाम अम्मा ने रख दिया था नारद मुनि .हमारे बच्चे भी क्योंकि उस हादसे की वजह से जिसमे पत्नी चली गईं थीं अम्मा ने ही पाले थे इसलिए वह भी हमें नारद मुनि और बे -पैंदी का लौटा समझने लगे थे .हमारी बहिन का भी हमारी इस छवि मार्जन (या मर्दन )में बड़ा हाथ रहा ।
पिताजी को तो इन लोगों ने एक दम से नाकारा ही घोषत कर दिया था .लेकिन पिताजी नाकारा नहीं थे ,जब वो चले गए थे अम्मा ही सबसे ज्यादा फफक फफक के रोई थी .हमें तो पिताजी सिखा गये थे -इतना ही संग साथ था हमारा तुम्हारा जहां रहो खुश रहो ।
ताज़ी तरकारी फल और इफरात से मौसमी सलाद खाना भी पिताजी सिखा गए थे ।
बचपन में इतनी सलाद और मौसमी फल जितने हमने खाए थे कम ही नौनिहालों को नसीब हुए होंगें .पिताजी के वक्त घर आमों से भरा रहता था .टोकनी भर भर आम खाएं हैं हमने .और सबसे बड़ी सौगात दे गए पिताजी सेहत के मामलों में दिल चस्पी रखना .हम आज उसी धरोहर को संभाले हैं ।
(ज़ारी ...)

1 टिप्पणी:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

प्रेरक संस्मरण। धीरे-धीरे कहानी की तरह आगे बढ़े तो और भी अच्छा हो..तेजी से भगा दे रहे है, ऐसा लगा।