मंगलवार, 21 मई 2013

काल चक्र :अनादि विश्व नाटक


काल चक्र :अनादि विश्व नाटक 

काल चक्र की अपनी गति होती है कर्मों की अपनी .अपनी रफ़्तार से चलता 


है समय .मनुष्य सोचता कुछ और है होता कुछ और है .जब हो जाता 

मनुष्य कहने लगता है मेरे साथ ही क्यों होता है यह .मैं ने तो किसी का 

कुछ बुरा नहीं किया .इस प्रश्न का उत्तर न मिलने पर मनुष्य चिड़चिड़ा हो 

जाता है . 

फिर भी बिना समय के मिजाज़ को समझे आदमी समय की मेनेजिंग करता है .लिस्ट बना लेता है कब क्या करना है .बेशक ऐसा करने से समय का अधिकतम दोहन (उपयोग )तो हो जाता है लेकिन कई बार फिर भी ऐसा समय आ जाता है, दिवसांत में व्यक्ति कह उठता है आज कुछ नहीं किया आजका दिन यूं ही गया .

अचानक कुछ आकस्मिक घट गया .समय हमसे प्रतिउत्तर की मांग करने लगता है .समय बड़ा बलवान है .समय के आगे न चले किसी का जोर .

नर चाहत कुछ और ,होवत है कुछ और .

और हम कह उठते हैं :

समय करे नर क्या करे ,समय समय की बात ,

किसी समय के दिन बड़े ,किसी समय की बात .

समय की मांग है परिवर्तन 

परिवर्तन न किया तो समय महाकाल भी बन जाएगा 

अचानक  किसी के लिए कहने लगते हैं -उसे कोई नहीं बदल सकता .वह बड़ा हटी है ,जिद्दी है मनमाने की करता है .

समय का पंछी उड़ता जाए कहता जाए -इस संसार में हर चीज़ परिवर्तन शील है केवल परिवर्तन ही शाश्वत है .संसार परिवर्तन शील है यहाँ हर चीज़ एक चक्र में चलती है .

चक्र माने जिसका आदि और अंत न हो .जैसे दिन और रात .भोर कब आजाती है सहज रूप ,किसी को पता नहीं चलता .दिन के बाद रात ,रात के बाद फिर दिन .जन्म के बाद मृत्यु ,मृत्यु के बाद फिर जन्म .अनादि काल से यह हो रहा है। होता आया है, होता रहेगा .जैसे कार्बन -नाइट्रोजन साइकिल ,और जैसे -जल चक्र .

हर चक्र की चार अवस्थाएं हैं :

सुबह ,दोपहर ,शाम और रात्रि .रितु चक्र की अवधि एक साल है :ग्रीष्म ,बरसात ,शीतकाल ,बसंत .ऐसे ही काल चक्र की अवधि है ५ ० ० ० वर्ष .उसके बाद पुनरा -वृति ,रिपीटीशन चक्र का .अनादि काल से ऐसा ही हो रहा है होता रहेगा .

अंग्रेजी केलेंडर में साल सवा ३ ६ ५ दिनी है हिन्दू केलेंडर में ३ ५ ४ दिनी .माया केलेंडर की भविष्य वाणी को लेकर बड़ा हू हल्ला मचाया गया .कहा गया २ १ दिसंबर २ ० १ २ को दुनिया नष्ट हो जायेगी .हुआ कुछ नहीं .

२ २ दिसंबर से माया चक्र फिर शुरू हो गया .माया केलेंडर के हिमायतियों से जब पूछा गया उन्होंने कहा हमने विनाश  की बात की ही नहीं थी .परिवर्तन की बात की थी जो इस अवधि के बाद तेज़ी से होने लगेगा .प्राकृतिक तत्वों वायु ,जल ,अग्नि ,पृथ्वी आकाश की तात्विकता और भी अधिक तेज़ी से विनष्ट होने लगेगी .परिवर्तन की प्रक्रिया समाज में भी आरम्भ हो चुकी है .एक तरफ पाप कर्मों ने माया रावण ने उग्र रूप धरा है दूसरी तरफ कुछ लोग सुकर्म भी कर रहे हैं .

स्वास्तिक का चिन्ह (चित्र )काल गति (काल चक्र )को बा -खूबी समझाता है .


Right-facing swastika in the decorative form, used to evoke sacred force
The swastika (卐) (Sanskritस्वस्तिक) is an equilateral cross with four arms bent at 90 degrees. The earliest archaeological evidence of swastika-shaped ornaments dates back to the Indus Valley Civilization as well as the Mediterranean Classical Antiquity. Swastikas have also been used in various other ancient civilizations around the world including China, Japan, India, and Southern Europe. It remains widely used in Indian religions, specifically in HinduismBuddhism, and Jainism, primarily as a tantric symbol to evoke shakti or the sacred symbol of auspiciousness. The word "swastika" comes from the Sanskrit svastika - "su" meaning "good" or "auspicious," "asti" meaning "to be," and "ka" as a suffix. The swastika literally means "to be good". Or another translation can be made: "swa" is "higher self", "asti" meaning "being", and "ka" as a suffix, so the translation can be interpreted as "being with higher self".[1]
The symbol has a long history in Europe reaching back to antiquity. In modern times, following a brief surge of popularity as a good luck symbol in Western culture, a swastika was adopted as a symbol of the Nazi Party of Germany in 1920, who used the swastika as a symbol of the Aryan race. After Adolf Hitler came to power in 1933, a right-facing 45° rotated swastika was incorporated into the Nazi party flag, which was made the state flag of Germany during Nazism. Hence, the swastika has become strongly associated with Nazism and related ideologies such as antisemitism, hate, violence, death, and murder in many countries, and is now largely stigmatized there due to the changed connotations of the symbol.[1] Notably, it has been outlawed in Germany and other countries if used as a symbol of Nazism in certain instances . Many modern political extremists and Neo-Nazi groups such as the Russian National Unity use stylized swastikas or similar symbols.


स्वस्तिक का अर्थ है: सु +अस्ति का संधि योग है स्वास्तिक 

बोले तो हर घड़ी शुभ है ,निश्चिन्त रहो जो कार्य करना चाहते हो श्री गणेश करो .

यहाँ स्वास्तिक की दाएँ भुजा का अर्थ है सतयुग .दायाँ बोले तो शुभ ,सत्य ,१ २ ५ ० वर्ष की सतयुगी कालावधि में सूर्य वंशी आत्माओं का सुशासन है राज्य है .मुखिया हैं श्री नारायण और नारायणी श्री लक्ष्मी .यहाँ आत्मा की कलाएं (गुण )कम जास्ती नहीं होते .यहाँ सब कुछ सोलह आने सच है .सच खंड है सत  युग .यहाँ सब देवात्माएँ हैं जिन्हें हम भगवान भगवती समझते हैं .लेकिन इनका हेड कौन है हम नहीं जानते .हेड है निराकार शिव परमात्मा .वह जो पिताओं का भी पिता है .देवात्माओं का भी वही पिता है सर्वोच्च सत्ता है वह परमधाम वासी जन्ममरण से परे .काल चक्र से परे .

सूर्य वंशी देवता स्वेच्छा से अपना प्रकाश मय शरीर छोड़ते हैं . संकल्प सृष्टि है यहाँ .अ -मैथुनी सृष्टि है यहाँ . 

यहाँ कोई असुर नहीं है कोई हिंसा नहीं है .असुर नहीं है तो देवासुर संग्राम भी नहीं है .शेर और बकरी एक ही नदी घाट पानी पीते हैं .

इसके बाद आता है १ २ ५ ० वर्ष कालावधि का ही त्रेता युग जहां चन्द्र वंशी आत्माओं का सुराज्य है .लेकिन स्वास्तिक की भुजा नीचे की और मुड़ गई है .है सच खंड ही लेकिन थोड़ा कम तीव्रता लिए सुख की .

यहाँ श्री रामचन्द्र और श्री सीता का सुराज्य है .सतयुग में नारायण कृष्ण का ही रूप हैं .श्री लक्ष्मी राधा का .इसीलिए कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं .

कृष्ण का ही नौवां जन्म है श्री रामचन्द्र ,चन्द्रवंशी .उनके नाम के आगे ही चन्द्र जड़ा  हुआ है .१ २ ५ ० वर्ष की कालावधि में यहाँ चन्द्र वंश की बारह पीढियां हैं .ये सभी देवात्माएँ १ २ कला संपन्न हैं .आत्मा की शक्ति थोड़ी सी क्षीण ज़रूर हो जाती है .फिर भी सुख शान्ति है सर्वत्र .सब आत्माएं कर्म फल का भोग कर रहीं हैं .इनका कर्म अ-कर्म  कहलाएगा .जिसकी आगे सजा नहीं हैं .वह अ -कर्म है .

पूछा जा सकता है जब हर तरफ सुख शान्ति है पवित्रता है तब देवात्माएँ सतयुग से नीचे त्रेता में क्यों चली आईं .और फिर वाम मार्गी बन द्वापर में जहां स्वास्तिक की भुजा बाएँ मुड़ गई है .

उत्तर :ये सारी  कायनात  ,सृष्टि व्यवस्था से अ -व्यवस्था की ओर  बढ़ रही है . ऑर्डर से डिस -ऑर्डर की ओर .यही है ऊष्मा गति विज्ञान का दूसरा नियम है .(Second law of thermodynamics:There is more dis -order in the universe than order .Enotropy ,a measure of dis -order   in the universe thus tends to increase.)

हर चीज़ पहले सु -व्यवस्थित होती है फिर अ -व्यवस्थित हो जाती है .पूर्णिमा अमावस्या में बदल जाती है .पूर्णता अ -पूर्णता में .

अगले १ २ ५ ० वर्षों में देवात्माएँ उतर कर द्वापर में चली आती हैं .द्वापर वासी अपने ही पूर्वज देवताओं की प्रतिमा मंदिर में स्थापित कर उन्हें ही पूजने लगतीं हैं .अपने ही देव स्वरूप की प्रतिमाएं बना उनकी पूजा करने लगतीं हैं .पूज्य से पुजारी बन जाती हैं .सत्य के साथ असत्य मिक्स हो जाता है .धर्म संस्थापक धर्मात्माएं द्वापर में ही पहले इस्लाम फिर बौद्ध , ईसाई,संन्यास ,फिर मोहम्मदी (मुस्लिम धर्म वंश ),सिख आदि धर्म की स्थापना करतीं हैं .लेकिन आत्मा की गिरावट यह पूजा पाठ ,धार्मिक कर्मकांड रोक नहीं पाता  है . 

दुख आता है क्योंकि किसी ने सुख में भगवान को याद ही नहीं किया था .भगवान का परिचय ही नहीं था देवात्माओं को .वह तो सभी कर्म फल के रूप में सिर्फ सुख भोग रहे थे .

सुख में सुमिरन न किया ,दुःख में करता याद रे ,

कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद रे .

और कलियुग  आते आते तो लोग खुद को ही भगवान घोषित कर अपनी  ही पूजा करवाने लगे .तत्वों को ही पूजने लगते हैं .कोई जल पूजता है कोई अग्नि .मठ और मठाधीशों ने आमजन को मूंडना शुरू किया .व्यभिचार आज अपने चरम को छूने लगा है .अब विकृतियाँ ही राज करतीं हैं न कोई राजा है न प्रजा .कैसा प्रजा तंत्र ?माया तन्त्र है माया रावण का राज्य है .

अब लोग गांधी को तो मानते हैं गांधी की नहीं मानते .बुद्ध को तो मानते हैं बुद्ध की नहीं मानते .ईसा को तो मानते हैं ईसा की नहीं मानते .आज हर आदमी के अन्दर अहंकार का रावण है .माया रावण का ही राज्य है विश्व पर .मनुष्य जो सब प्राणियों में श्रेष्ठ था विकारों का गुलाम बन गया है .उसे अब न खुद का परिचय है न खुदा का .अपने  रूहानी स्वरूप को ही वह भूल चुका है .खुद को रूह मान अल्ला से रूह रूहान (बात चीत )करे तो कैसे करे ?

ठीक लिखा था यह गीत किसी ने -

रामचन्द्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आयेगा ,

हंस चुगेगा दाना भैया ,कौवा मोती खायेगा .

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान ,

कितना बदल गया इंसान ,

सूरज न बदला चाँद न बदला ,न बदला रे आसमान ,

कितना बदल गया इंसान .

आज दुनिया कैसे नष्ट होगी इसे लेके किताबें लिखी जा चुकी हैं।

Eagle Editions Limited से प्रकाशित एक किताब का शीर्षक है :

DOOMSDAY -WRITTEN BY NIGEL CAWTHORNE 

इस किताब में हमारे दौर की उन तमाम समस्याओं का ज़िक्र है जो दुनिया के महा विनाश का कारण बन सकतीं हैं .ओजोन होल से लेकर ,न्यूक्लियर विंटर ,जलवायु परिवर्तन ,बढ़ते कार्बन फुटप्रिंट सभी का किताब में ज़िक्र है .जैविक अस्त्रों से विनाश का भी .

विश्व का तापमान ४ सेल्सियस ऊपर होने की देर है ,जलप्लावन में देर न होगी फिर न होगा नोहाज़ आर्क (Noah's Ark)वहां . एक सनकी शासक की ज़रुरत है जो एटमी असलाह के रिमोट का ट्रिगर दबा दे .विनाश अब हुआ के तब हुआ .

इसलिए परमात्मा कहतें हैं :

योगी बनो ,पवित्र बनो,योगी जीवन है प्यारा 

तभी भगवान की मदद मिलेगी .हमारे वक्त की द्रौपदियां ,सीताएं तभी  दुर्योधन  और दुश्शासन  से बच सकेंगी .सदा काल ये संसार भोग बल से नहीं चला है .सतयुग और त्रेता तक सृष्टि योग बल और संकल्प से ही संचालित थी .

द्वापर से मैथुनी सृष्टि का आरम्भ हुआ जो अब अपने शिखर को छू  रही है ,भोगवाद के रूप में भोगावती के रूप में सिर्फ एक लास वेगस नहीं है अनेक हैं .

आखिर जीसस का जन्म भी भोग से नहीं हुआ था .कैसे हुआ था सब जानते हैं .पांडव और कौरव भी  योग बल से पैदा हुए थे .मन्त्र की शक्ति से जन्मे थे .श्री कृष्ण योग बल से पैदा हुए थे इसीलिए योगेश्वर श्री कृष्ण कहलाए .

मोर आज भी पवित्र विधि से प्रजनन करता है .
इसीलिए मोर पंख श्री कृष्ण के मुकुट में सु -शोभित है .इसी घोर कलियुग के भी घोरतम समय पर परमात्मा नै दुनिया की रचना सलेक्शन से करते हैं इलेक्शन से नहीं .जो योग युक्त है वह एक बार फिर सतयुग में जाएगा .

इसलिए यह मत कहो मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ मैं ने तो किसी का बुरा नहीं किया .पिछले चौरासी जन्मों से आत्मा पे मेल चढ़ा है न जाने कौन से जन्म का कर्म फल सजा के रूप में कब हमारे सामने आये इसका कोई निश्चय नहीं इसलिए अच्छे कर्म करो भैया .ताकि आपका कल अच्छा हो .

और एक बात याद रखो -जो हुआ वह अच्छा हुआ ,जो अब हो रहा है वह भी अच्छा है जो आगे होगा वह भी अच्छा ही होगा .परफेक्ट ड्रामा है यह काल चक्र है .कर्मों की गुह्य गति का परिणाम है .चाहे हंसके भोगो या रोके .या जीवन को आगे साक्षी भाव से दृष्टा भाव से देखो .

(   ज़ारी .....)

8 टिप्‍पणियां:

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

सर जी ,वक्त के मिजाज़ और नब्ज़ को
को टटोलती अमूर्त से मूर्त का संकेत देती
एक ब्व्हतारीन प्रस्तुति

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

vividh rangon se bharpoor thode me bahut sameta hai ...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

मेरा मानना है कि जो भी होता है अच्छे के लिए
होता है,,,,
उम्दा प्रस्तुति ,,,
Recent post: जनता सबक सिखायेगी...

Madan Mohan Saxena ने कहा…

Well said. Good one . Plz visit my blog.

Unknown ने कहा…

सर जी ,कल चक्र में लिप्त मानव जीवन से जुड़े अनेक संदर्भो की तरफ स्पस्ट संकेत करती सुन्दर रचना (नई प्रस्तुति = बातें करें )

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

पोस्ट पढकर अतीव शांति महसूस हो रही है. गहन अंतर्तम की और, बहुत आभार आपका.

रामराम.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काल का भी एक व्यक्तित्व है, उसे भी साधना होता है।

राहुल ने कहा…

योगी बनो..पवित्र बनो.. उम्दा