स्वयं की पहचान
संबंधों के अभिमान में ही हम रहते हैं .हम कहते हैं मैं फलाने का पिता हूँ ,मेरा बेटा 'ये' है 'वो' है .रिटायर होने के बाद भी हम यही कहते हैं :मैं एक्स प्रोफ़ेसर हूँ ,डीएम हूँ ,'ये' हूँ, 'वह' हूँ .
यह कहते करते ,हम अपने आपकी पहचान ही भूल गए हैं .खुद को शरीर समझते हैं .
मैं ब्राह्मण हूँ ,वैश्य हूँ, कहीं यह जातिय अभिमान .कहीं भाषा की कानशस नेस ,लखनवी अंदाज़ है मेरा मैं यू पी का रहना वाला अभिजात्य वर्ग हूँ .कहीं धर्म की कानशसनैस रहती है .कहीं राष्ट्र की मैं अमरीकी हूँ ,मैं योरपीय .कुलमिलाकर हमारा जीवन देहअभिमान युक्त बन गया है .देह सम्बन्धियों के बीच ही खर्च हो रहा है .रोज़ हम ड्रेसअप होते हैं .सारे दिन कुछ खाते ,कुछ चबाते (विचार चर्वण )रहते हैं .पचास फीसद समय खाने पीने ड्रेस अप होने में ही खर्च हो रहा है .८ -१ ० घंटा नौकरी धंधे के पीछे खर्च हो जाता है .हमारा जीवन मटीरियल कांशस बन गया है .देह कांशस बन गया है .जबकि आत्म कल्याण स्वयं की उन्नति जीवन का वास्तविक ध्येय है .हम इस लक्ष्य को ही भूल चुके हैं .सोचने की आवश्यकता है क्या हम महज़ शरीर हैं पदार्थ चेतना तक सीमित .शरीर तो जड़ है निर्जीव है .पञ्च तत्वों का मेल है आज है, कल नहीं है .हम इसे ही अपना नाम रूप परिचय समझ रहें हैं .जबकि यह तो आत्मा का उपकरण है .
Human body +being=Humanbeing
शरीर परिवर्तनशील तत्व है .शरीर को हम देख सकते हैं .नाशवान है शरीर .शरीर से परे एक चैतन्य शक्ति भी है जिसे हम चर्म चक्षु से देख नहीं सकते .समझ सकते हैं .महसूस कर सकते हैं .जैसे ही यह चैतन्य शक्ति (चेतन ऊर्जा )निकल जाती है शरीर जड़ हो जाता है .जड़ शरीर को कोई रखना नहीं चाहता .विद्युत् शवडाह गृह में एक बटन दबाते ही शरीर स्वाह हो जाता है भस्म हो जाता है .सम्बन्ध तो चैतन्य शक्ति से था जो अब यह शरीर छोड़ गई .यही चैतन्य शक्ति कर्म करती है .ऊर्जा कहा ही जाता है काम करने की क्षमता को है .
चीज़ द्वारा दिया हुआ स्वाद उसे पुन : प्राप्त करने की इच्छा इसी चैतन्य शक्ति को होती है .आँखों देखी सुन्दरता याद करने वाली भी चैतन्य शक्ति यही है .इसे ही होती है लालसा बारहा देखने की .भोग करने की .
शरीर स्त्री होता है शरीर ही पुरुष होता है मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ यह कहना गलत है समीचीन नहीं है .क्यंकि चैतन्य शक्ति का कोई लिंग नहीं है .वह नर या नारी नहीं है .'HE 'और 'SHE 'नहीं है .
शरीर इस शक्ति का मकान है घर है .हर क्षण हम शरीर से ही काम लेते हैं करते हैं लेकिन मैं चैतन्य स्वरूपा आत्मा शरीर नहीं हूँ . मैं हाथ ,कान, नाक नहीं हूँ .
गीता में शरीर को 'रथ 'कहा गया है .चैतन्य शक्ति आत्मा को 'रथी'.देह का मालिक आत्मा देही कहलायेगा .देह से रथी (देही )चला गया तो शेष रह जायेगी अर्थी .वह अर्थी चली .वह देखो अर्थी जा रही है यही कहा जाता है .वह देखो आत्मा जा रही है यह कोई नहीं कहता .उसका जाना अगोचर बना रहता है .मुखरित होती है देही हीन देह बोले तो अर्थी .
आत्मा को पंछी कहा जाता है .आध्यात्मिक जगत का पहला सत्य यही है .आत्मा किसको कहते हैं ?आत्मा माने क्या ?जैसे शरीर माने पांच कर्मेन्द्रियाँ वैसे ही आत्मा माने मन ,बुद्धि और संस्कार .
मन में अनेक विचार आते हैं लहरें उठती हैं मन भटकता रहता है .आत्मा की मनन शक्ति को ही मन कहते हैं .मन का कार्य ही है सोचना .प्रत्येक सेकिंड दो विचार उत्पन्न होते हैं मन में .एक दिन में बीस हज़ार .मन को आप विचार शून्य नहीं कर सकते .मन की विचार की दिशा बदल सकते हैं .चिंतन बदल सकते हैं .मन को मारना नहीं है सुधारना है .मन को श्रेष्ठ चिन्तन में लगाकर सु -मन (सुमन )बनाना है .
हम दिन भर में व्यर्थ चिंतन में ही समय बर्बाद करते रहते हैं .पांच मिनिट आत्म चिंतन में बिताने की बात आती है सत्संग में बैठने की बात आती है तो हम सो जाते हैं .कारण हमें अपने आप में दिलचस्पी ही नहीं है .हम खुद में नहीं हैं .कौन हैं हम ?कहाँ से आये हैं ?कहाँ हमें जाना है कहाँ मेरा घर है ?हमें कुछ पता नहीं है .हमारा जीवन 'पर 'चिंतन में दौड़ा चला जाता है .अब उसे अच्छी चीज़ों में लगाना है .
मन के अनेक विचारों पर आप निर्णय करते हैं .आत्मा की निर्णय शक्ति को ही बुद्धि कहा जाता है .मन घोड़े सा चंचल है बुद्धि उसकी लगाम है .बुद्धि को ही दिव्य बनाना है ."स्व " चिंतन से,आत्म चिंतन से , श्रेष्ठ चिंतन से .
हमारे कर्म ही हमारे संस्कार बनते हैं .बुद्धि को श्रेष्ठ कर्मों में लगाना है .कर्मों का सूक्ष्म प्रभाव हमारी चैतन्य शक्ति पर पड़ता है .वही कर्म बार बार करते रहने से वह हमारा स्वभाव बन जाता है .गुस्सा करते रहतें हैं तो गुस्सैल बन जाते हैं .हँसते रहते हैं तो हसौड़ .
हम जो कर्म करते रहतें हैं उसका संस्कार हमारी आत्मा में संचित हो जाता है रिकार्ड हो जाता है .डिलीट नहीं कर सकते इस रिकार्डिंग को .इसलिए जो भी करना है सोच समझके करना है .शरीर छोड़ने पर यह कर्म ही आत्मा के साथ जाता है .
विचार ही कर्म का बीज है .वीडियो कैमरा लगा है आत्मा में .सारा व्यर्थ चिंतन दिन भर का रिकार्ड होता रहता है .खुद को देखना है स्वदर्शन करना है .
'You Are Being Observed.'
हरेक आत्मा मूल रूप में शुद्ध है सत्य है .हम यह स्मृति रखेंगे -मैं आत्मा शांत स्वरूप हूँ .शुद्ध हूँ .सत्य हूँ .मेरा स्वधर्म मेरा मूल स्वभाव शान्ति है .मेरी स्मृति में रहे शान्ति मेरा स्वधर्म है कोई कित्ता भी गुस्सा करे मैं शांत रहूँ उसका अ -नुकरण कर मैं अपनी स्थिति खराब क्यों करूँ ?
आत्मा सुख स्वरूप है .इसलिए दुःख में भी हम सुख ढूंढते हैं .कोई हमें प्रेम करे तो हमें अच्छा लगता है क्योंकि आत्मा प्रेम स्वरूप है .हमें हरेक बात जानना अच्छा लगता है क्योंकि आत्मा ज्ञान स्वरूप है .
ॐ शान्ति
आत्मा की खुराक है ख़ुशी .खुश और मौज में रहना इसीलिए हमें अच्छा लगता है .जो खुश नहीं रहता है उसे भी बार बार हम खुश करने की कोशिश करते हैं .ख़ुशी से बड़ी कोई दौलत नहीं है .
पानी का गुण जैसे शीतलता है वैसे आत्मा का गुण पवित्रता है आनंद है .जैसे पानी आग के पास आकर अपना स्वधर्म छोड़ उबलने लगता है वैसे ही आत्मा विकारों में आकर अपना स्वधर्म छोड़ अ -पवित्र बन जाती है .विकारों में आ जाती है .विकृति विकार है आत्मा के गुणों में आने वाला .अगर मैं आनंद में नहीं हूँ तो मुझे वैभव में आकर,वैभव प्राप्त करके भी आनंद नहीं आता है .आत्मा शरीर में आकर ही कर्म करती है फिर कर्म फल भोगती है अच्छा या बुरा .जैसा कर्म वैसा फल .
करनी ,अन -करनी पहचान ,कहनी अन -कहनी ले जान ,
बहुत हो चुका गोलगपाड़ा ,अपनी हद बंदी पहचान .
मन तेरा हो फूल सरीखा ,खुश्बू हो तेरी पहचान ,
अपनों के तो सब होते हैं ,गैरों पे हो जा कुर्बान .
प्रकृति के पांच तत्वों से बनी दुनिया को ही साकारी दुनिया Corporeal world कहते हैं .हमारे लिए यह दुनिया ही कर्म क्षेत्र है .कुरुक्षेत्र है .वर्क प्लेस है .लेकिन यह हमारा असली घर नहीं है .इसीलिए यहाँ आत्मा को मुसाफिर खाना कहा गया है .
यह दुनिया खुद मुसाफिर है ,सफर कोई घर नहीं होता ,
सफर तो आना जाना है ,सफ़र कमतर नहीं होता .
यह सृष्टि एक रंग मंच है हम सब एक्टर हैं यहाँ .
निर्वाण धाम (जहां वाणी नहीं है ),मुक्ति धाम (जहां शरीर का बंधन नहीं है ),अखंड ज्योति ब्रह्मतत्व (परमधाम )हमारा ,हम आत्माओं का असली घर है .इस दुनिया में रहकर भी हम अनासक्त भाव लिए रह सकते हैं .साक्षी भाव से दृष्टा बन हर कर्म कर सकते हैं तो जीवन मुक्ति हो सकती है जीते जी मरजीवा (शरीर से मर सकते हैं हम ,विकारों का संन्यास कर यही मुक्ति ,जीवन मुक्ति है )बन सकते हैं हम .
इस शरीर में आत्मा मस्तक में निवास करती है भ्रू -मध्य में (भृकुटी के बीच ).ज्योति स्वरूप है आत्मा .स्मृति स्वरूप है आत्मा .जो आत्म ज्ञान है वही तीसरा नेत्र है .मैं कौन हूँ ?मेरा पिता कौन है ?गीता ज्ञान किसने किसको सुनाया .ब्रह्मा तन में बैठ निराकार शिव ने सुनाया जिसे सुन हमारा स्वभाव संस्कार बदला .यही ज्ञान ,तीसरा ज्ञान नेत्र है .तब हम बन जाते हैं ब्रह्मा- कुमार,ब्रह्मा - कुमारीज़ .
ॐ शान्ति .
संबंधों के अभिमान में ही हम रहते हैं .हम कहते हैं मैं फलाने का पिता हूँ ,मेरा बेटा 'ये' है 'वो' है .रिटायर होने के बाद भी हम यही कहते हैं :मैं एक्स प्रोफ़ेसर हूँ ,डीएम हूँ ,'ये' हूँ, 'वह' हूँ .
यह कहते करते ,हम अपने आपकी पहचान ही भूल गए हैं .खुद को शरीर समझते हैं .
मैं ब्राह्मण हूँ ,वैश्य हूँ, कहीं यह जातिय अभिमान .कहीं भाषा की कानशस नेस ,लखनवी अंदाज़ है मेरा मैं यू पी का रहना वाला अभिजात्य वर्ग हूँ .कहीं धर्म की कानशसनैस रहती है .कहीं राष्ट्र की मैं अमरीकी हूँ ,मैं योरपीय .कुलमिलाकर हमारा जीवन देहअभिमान युक्त बन गया है .देह सम्बन्धियों के बीच ही खर्च हो रहा है .रोज़ हम ड्रेसअप होते हैं .सारे दिन कुछ खाते ,कुछ चबाते (विचार चर्वण )रहते हैं .पचास फीसद समय खाने पीने ड्रेस अप होने में ही खर्च हो रहा है .८ -१ ० घंटा नौकरी धंधे के पीछे खर्च हो जाता है .हमारा जीवन मटीरियल कांशस बन गया है .देह कांशस बन गया है .जबकि आत्म कल्याण स्वयं की उन्नति जीवन का वास्तविक ध्येय है .हम इस लक्ष्य को ही भूल चुके हैं .सोचने की आवश्यकता है क्या हम महज़ शरीर हैं पदार्थ चेतना तक सीमित .शरीर तो जड़ है निर्जीव है .पञ्च तत्वों का मेल है आज है, कल नहीं है .हम इसे ही अपना नाम रूप परिचय समझ रहें हैं .जबकि यह तो आत्मा का उपकरण है .
Human body +being=Humanbeing
शरीर परिवर्तनशील तत्व है .शरीर को हम देख सकते हैं .नाशवान है शरीर .शरीर से परे एक चैतन्य शक्ति भी है जिसे हम चर्म चक्षु से देख नहीं सकते .समझ सकते हैं .महसूस कर सकते हैं .जैसे ही यह चैतन्य शक्ति (चेतन ऊर्जा )निकल जाती है शरीर जड़ हो जाता है .जड़ शरीर को कोई रखना नहीं चाहता .विद्युत् शवडाह गृह में एक बटन दबाते ही शरीर स्वाह हो जाता है भस्म हो जाता है .सम्बन्ध तो चैतन्य शक्ति से था जो अब यह शरीर छोड़ गई .यही चैतन्य शक्ति कर्म करती है .ऊर्जा कहा ही जाता है काम करने की क्षमता को है .
चीज़ द्वारा दिया हुआ स्वाद उसे पुन : प्राप्त करने की इच्छा इसी चैतन्य शक्ति को होती है .आँखों देखी सुन्दरता याद करने वाली भी चैतन्य शक्ति यही है .इसे ही होती है लालसा बारहा देखने की .भोग करने की .
शरीर स्त्री होता है शरीर ही पुरुष होता है मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ यह कहना गलत है समीचीन नहीं है .क्यंकि चैतन्य शक्ति का कोई लिंग नहीं है .वह नर या नारी नहीं है .'HE 'और 'SHE 'नहीं है .
शरीर इस शक्ति का मकान है घर है .हर क्षण हम शरीर से ही काम लेते हैं करते हैं लेकिन मैं चैतन्य स्वरूपा आत्मा शरीर नहीं हूँ . मैं हाथ ,कान, नाक नहीं हूँ .
गीता में शरीर को 'रथ 'कहा गया है .चैतन्य शक्ति आत्मा को 'रथी'.देह का मालिक आत्मा देही कहलायेगा .देह से रथी (देही )चला गया तो शेष रह जायेगी अर्थी .वह अर्थी चली .वह देखो अर्थी जा रही है यही कहा जाता है .वह देखो आत्मा जा रही है यह कोई नहीं कहता .उसका जाना अगोचर बना रहता है .मुखरित होती है देही हीन देह बोले तो अर्थी .
आत्मा को पंछी कहा जाता है .आध्यात्मिक जगत का पहला सत्य यही है .आत्मा किसको कहते हैं ?आत्मा माने क्या ?जैसे शरीर माने पांच कर्मेन्द्रियाँ वैसे ही आत्मा माने मन ,बुद्धि और संस्कार .
मन में अनेक विचार आते हैं लहरें उठती हैं मन भटकता रहता है .आत्मा की मनन शक्ति को ही मन कहते हैं .मन का कार्य ही है सोचना .प्रत्येक सेकिंड दो विचार उत्पन्न होते हैं मन में .एक दिन में बीस हज़ार .मन को आप विचार शून्य नहीं कर सकते .मन की विचार की दिशा बदल सकते हैं .चिंतन बदल सकते हैं .मन को मारना नहीं है सुधारना है .मन को श्रेष्ठ चिन्तन में लगाकर सु -मन (सुमन )बनाना है .
हम दिन भर में व्यर्थ चिंतन में ही समय बर्बाद करते रहते हैं .पांच मिनिट आत्म चिंतन में बिताने की बात आती है सत्संग में बैठने की बात आती है तो हम सो जाते हैं .कारण हमें अपने आप में दिलचस्पी ही नहीं है .हम खुद में नहीं हैं .कौन हैं हम ?कहाँ से आये हैं ?कहाँ हमें जाना है कहाँ मेरा घर है ?हमें कुछ पता नहीं है .हमारा जीवन 'पर 'चिंतन में दौड़ा चला जाता है .अब उसे अच्छी चीज़ों में लगाना है .
मन के अनेक विचारों पर आप निर्णय करते हैं .आत्मा की निर्णय शक्ति को ही बुद्धि कहा जाता है .मन घोड़े सा चंचल है बुद्धि उसकी लगाम है .बुद्धि को ही दिव्य बनाना है ."स्व " चिंतन से,आत्म चिंतन से , श्रेष्ठ चिंतन से .
हमारे कर्म ही हमारे संस्कार बनते हैं .बुद्धि को श्रेष्ठ कर्मों में लगाना है .कर्मों का सूक्ष्म प्रभाव हमारी चैतन्य शक्ति पर पड़ता है .वही कर्म बार बार करते रहने से वह हमारा स्वभाव बन जाता है .गुस्सा करते रहतें हैं तो गुस्सैल बन जाते हैं .हँसते रहते हैं तो हसौड़ .
हम जो कर्म करते रहतें हैं उसका संस्कार हमारी आत्मा में संचित हो जाता है रिकार्ड हो जाता है .डिलीट नहीं कर सकते इस रिकार्डिंग को .इसलिए जो भी करना है सोच समझके करना है .शरीर छोड़ने पर यह कर्म ही आत्मा के साथ जाता है .
विचार ही कर्म का बीज है .वीडियो कैमरा लगा है आत्मा में .सारा व्यर्थ चिंतन दिन भर का रिकार्ड होता रहता है .खुद को देखना है स्वदर्शन करना है .
'You Are Being Observed.'
हरेक आत्मा मूल रूप में शुद्ध है सत्य है .हम यह स्मृति रखेंगे -मैं आत्मा शांत स्वरूप हूँ .शुद्ध हूँ .सत्य हूँ .मेरा स्वधर्म मेरा मूल स्वभाव शान्ति है .मेरी स्मृति में रहे शान्ति मेरा स्वधर्म है कोई कित्ता भी गुस्सा करे मैं शांत रहूँ उसका अ -नुकरण कर मैं अपनी स्थिति खराब क्यों करूँ ?
आत्मा सुख स्वरूप है .इसलिए दुःख में भी हम सुख ढूंढते हैं .कोई हमें प्रेम करे तो हमें अच्छा लगता है क्योंकि आत्मा प्रेम स्वरूप है .हमें हरेक बात जानना अच्छा लगता है क्योंकि आत्मा ज्ञान स्वरूप है .
ॐ शान्ति
आत्मा की खुराक है ख़ुशी .खुश और मौज में रहना इसीलिए हमें अच्छा लगता है .जो खुश नहीं रहता है उसे भी बार बार हम खुश करने की कोशिश करते हैं .ख़ुशी से बड़ी कोई दौलत नहीं है .
पानी का गुण जैसे शीतलता है वैसे आत्मा का गुण पवित्रता है आनंद है .जैसे पानी आग के पास आकर अपना स्वधर्म छोड़ उबलने लगता है वैसे ही आत्मा विकारों में आकर अपना स्वधर्म छोड़ अ -पवित्र बन जाती है .विकारों में आ जाती है .विकृति विकार है आत्मा के गुणों में आने वाला .अगर मैं आनंद में नहीं हूँ तो मुझे वैभव में आकर,वैभव प्राप्त करके भी आनंद नहीं आता है .आत्मा शरीर में आकर ही कर्म करती है फिर कर्म फल भोगती है अच्छा या बुरा .जैसा कर्म वैसा फल .
करनी ,अन -करनी पहचान ,कहनी अन -कहनी ले जान ,
बहुत हो चुका गोलगपाड़ा ,अपनी हद बंदी पहचान .
मन तेरा हो फूल सरीखा ,खुश्बू हो तेरी पहचान ,
अपनों के तो सब होते हैं ,गैरों पे हो जा कुर्बान .
प्रकृति के पांच तत्वों से बनी दुनिया को ही साकारी दुनिया Corporeal world कहते हैं .हमारे लिए यह दुनिया ही कर्म क्षेत्र है .कुरुक्षेत्र है .वर्क प्लेस है .लेकिन यह हमारा असली घर नहीं है .इसीलिए यहाँ आत्मा को मुसाफिर खाना कहा गया है .
यह दुनिया खुद मुसाफिर है ,सफर कोई घर नहीं होता ,
सफर तो आना जाना है ,सफ़र कमतर नहीं होता .
यह सृष्टि एक रंग मंच है हम सब एक्टर हैं यहाँ .
निर्वाण धाम (जहां वाणी नहीं है ),मुक्ति धाम (जहां शरीर का बंधन नहीं है ),अखंड ज्योति ब्रह्मतत्व (परमधाम )हमारा ,हम आत्माओं का असली घर है .इस दुनिया में रहकर भी हम अनासक्त भाव लिए रह सकते हैं .साक्षी भाव से दृष्टा बन हर कर्म कर सकते हैं तो जीवन मुक्ति हो सकती है जीते जी मरजीवा (शरीर से मर सकते हैं हम ,विकारों का संन्यास कर यही मुक्ति ,जीवन मुक्ति है )बन सकते हैं हम .
इस शरीर में आत्मा मस्तक में निवास करती है भ्रू -मध्य में (भृकुटी के बीच ).ज्योति स्वरूप है आत्मा .स्मृति स्वरूप है आत्मा .जो आत्म ज्ञान है वही तीसरा नेत्र है .मैं कौन हूँ ?मेरा पिता कौन है ?गीता ज्ञान किसने किसको सुनाया .ब्रह्मा तन में बैठ निराकार शिव ने सुनाया जिसे सुन हमारा स्वभाव संस्कार बदला .यही ज्ञान ,तीसरा ज्ञान नेत्र है .तब हम बन जाते हैं ब्रह्मा- कुमार,ब्रह्मा - कुमारीज़ .
ॐ शान्ति .
10 टिप्पणियां:
सर जी ,यही अभिमान क्षण भर के लिए
मुछों को ऊपर तो कर देता है ,लेकिन
दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में जीवन में अपार
और अंतहीन दुखों को विस्फोट करदेता
है ,अभिमान से निरंतर बचना ही श्रेष्ठ है
वीरू भाई राम-राम ...
स्वयं से पहचान करने का आभार ! बड़ा अच्छा लगा |
ॐ शांति ॐ !
बहुत सार्थक और ज्ञानवर्धक ....आभार .
मन की शांति सबसे बड़ी नेमत...
बहुत बढ़िया आलेख सर!
~सादर!!!
आत्मा की खुराक है ख़ुशी .खुश और मौज में रहना इसीलिए हमें अच्छा लगता है .जो खुश नहीं रहता है उसे भी बार बार हम खुश करने की कोशिश करते हैं .ख़ुशी से बड़ी कोई दौलत नहीं है .sacchi bat ...dhanyavad nd aabhar ....
आत्मा की खुराक है ख़ुशी .खुश और मौज में रहना इसीलिए हमें अच्छा लगता है .जो खुश नहीं रहता है उसे भी बार बार हम खुश करने की कोशिश करते हैं .ख़ुशी से बड़ी कोई दौलत नहीं है .sacchi bat ...dhanyavad nd aabhar ....
हम जो कर्म करते रहतें हैं उसका संस्कार हमारी आत्मा में संचित हो जाता है रिकार्ड हो जाता है ...
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इस पीस की जितनी भी तारीफ़ की जाए, वो कम है....बेहद ही कम....
बहुत ही सार्थक और ज्ञानवर्धक आलेख,ईमानदारी की अहम भी बाद में दुःख देती है.
अत्यंत शांति दायक आलेख, यह तीसरा नेत्र ही सत्य को खोजने वाला साधन बन जाता है. ध्यान में इसीलिये भृकुटी (भ्रू-मध्य) पर ध्यान केंद्रित किया जता है. बहुत आभार.
रामराम.
उपाधि की व्याधि
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