वाइन गटक रहें हैं ब्रितानी मदरसों में पढने वाले बच्चे .
ब्रितानी सरकार की एक हालिया रिपोर्ट में बतलाया गया है बहुत बड़ी तादाद में स्कूल जाने वाले बच्चे वाइन बेहिसाब गटक रहें हैं ;हर हफ्ते औसतन वाइन के १९ ग्लास गले से नीचे उतार रहें हैं ये बच्चे .तिस पर तुर्रा यह कि ये पूरी नींद भी नहीं ले रहें हैं .और इसीलिए स्कूल के टाइम में कक्षा में उनींदे रहतें हैं ये नौनिहाल .
ब्रिटेन की ही स्कूल हेल्थ एज्युकेशन इकाई ने तीन अलग अलग अध्ययनों के अनंतर यह निष्कर्ष निकालें हैं .पहले अध्ययन से इल्म हुआ १२ साला स्कूल छात्र हफ्ते भर में वाइन के १९ ग्लासों से अपना गला तर करतें हैं .पानी कम वाइन ज्यादा .इस आयु वर्ग के ४%बच्चों ने गत सप्ताह हुए सर्वे में बतलाया बीते हफ्ते उन्होंने २८ या और भी ज्यादा यूनिट्स वाइन गटकी .पुरुषों के लिए तीन से लेकर चार यूनिट्स तथा महिलाओं के लिए रोजाना दो से तीन यूनिट्स की गाइड लाइंस (अनुदेशों )का अतिक्रमण करती है बच्चों द्वारा सप्ताह भर में ही पी जा रही वाइन की यह मात्रा .
कुछ बच्चों को इसी लत की वजह से पर्याप्त नींद भी मयस्सर नहीं हो रही है .
सेलेब्रिटी कल्चर जो करादे सो कम .
सेलेब्रिटी कल्चर जो करादे सो कम .
सेल्फ इमेज ,गुड लुक्स ,देह यष्टि का आकर्षण और मन्त्रमुग्धता अब प्राइमरी स्कूल की उम्र में ही रहने लगी है .एक बेचैनी इनमे "कैसी दिखती हूँ मैं "यानी अपनी छवि को लेकर साफ़ मुखरित हो रही है .कुछ भी करने को तैयार हैं इसके लिए ये लडकियां .१० -११ साल के दरमियान ही ये तौल के फंदे में फंसी तौल घटाने की जुगत में बेचैन रहतीं हैं .
स्कूल हेल्थ एज्युकेशन यूनिट ने संपन्न किया है यह अध्ययन .जिन ८३,००० लड़कियों से इस अध्ययन के दौरान बातचीत की गई उनमे से एक तिहाई दस साला लड़कियों ने यह साफ़ साफ़ बतलाया वह तौल कम करने के लिए नाश्ता ही नहीं करतीं हैं .बातचीत से पहले दिन २४%लड़कियों ने दोपहर का भोजन भी नहीं लिया था .
जैसे जैसे लड़कियों की उम्र आगे खिसकती जाती है यह प्रतिशत भी उम्र के साथ साथ पींग बढाता है .
१४-१५ साला लड़कियों में से दो तिहाई वजन कम करना चाहतीं हैं .एक ख़ास लुक के लिए कुछ भी करेगा .कई किस्म के पापड बेलेगा .यही फलसफा है इनका इरादा भी है .कक्षा छ :की तमाम लड़कियों और लड़कों में से भी ४०%ने बतलाया -हम सप्ताह के सातों दिन प्रोटीन का सेवन ही नहीं करतें हैं .लेकिन इनमे से एक चौथाई crisps ,sweets और chocolate बराबर खातें हैं .
ब्रितानी न्यूट्रीशन फाउनदेशन की साइंसदान Dr Laura Wyness कहतीं हैं यह सब जनप्रिय मीडिया का करा धरा है .पोप्युलर मीडिया बेतरह युवा भीड़ की बॉडी इमेज को प्रभावित कर रहा है .इसी के चलते एक जद्दोजहद एक दवाब आदर्श कद काठी ,छवि आइडियल बॉडी शेप को लेकर बन रहा है .
इसी फेड के चलते प्रेशर के तले कुचले जाने से सेहत को चौपट करने वाली आदतें पनप रहीं हैं .इनमे शरीक हैं -धूम्रपान ,खाना परहेजी ,स्किप्पिंग मील्स ,खासकर नाश्ता न करना ,दूध और दुग्ध उत्पादों से छिटकना .प्रोटीन के अन्य प्रमुख स्रोतों यथा रेड मीट यहाँ तक की आयरन ,जिंक और केल्शियम से भी छिटकाव बढ़ रहा है .लो एनर्जी और कथित न्युत्रीयेंट डाईट का चलन ज़ोरों पर है .सेलेब्रिटी कल्चर इस दौर में जो करादे सो कम .
माँ बाप को ऐसे घटाटोप में क्या करना चाहिए ?
सन्दर्भ -सामिग्री :Even 1o 0-yr -olds starving themselves to stay thin 'No Breakfast For 30%Girls ,24%Skipped Lunch'/TIMES TRENDS /TOI,OCTOBER 31 ,2011 P23 CAPITAL ED.
सोमवार, 31 अक्तूबर 2011
रविवार, 30 अक्तूबर 2011
कैसे जानू मैं अपने ही दिल की सेहत का हाल ,कैसे पता चले सब ठीक ठाक भी है ?
कैसे जानू मैं अपने ही दिल की सेहत का हाल ,कैसे पता चले सब ठीक ठाक भी है ?
कैसे जानू मैं अपने ही दिल की सेहत का हाल ,कैसे पता चले सब ठीक ठाक भी है ?
जानतें हैं मेरा छोटा भाई सिर्फ ३५ साल का था दिल का दौरा उसे अचानक लील गया .धूम्रपान के अलावा और कोई एब ,ज्ञात रिस्क फेक्टर का हमें इल्म भी न था .मृत्यु से दो सप्ताह पूर्व एको और टी एम् टी परीक्षण भी सब कुछ नोर्मल दर्शा रहे थे .
मेरी खुद की उम्र ३८ बरस है .धूम्र पान का शौक है मुझे .दिल की सेहत का हाल जानने को बेहद उत्सुक और बे -चैन हूँ .कैसे जानू सब ठीक तो है .ऐसे किस्से और सवालों से आपका साबका पड़ता होगा .
भाई साहब दिल का मुआयना कार्डिएक चेक अप करवाओ .और क्या .बस आपको इसी के ज़रिए अपना पारिवारिक पूर्व वृत्तांत बताना होगा दिल की बीमारियों के बाबत .हाई ब्लड प्रेशर ,हाईब्लड सुगर परिवार में कब किसको रहा आया है बतलाना होगा .हाई कोलेस्ट्रोल का यदि इतिहास रहा है परिवार में तो वह भी अपने दिल के माहिर को बतलाना होगा .
अपने बारे में स्मोकिंग के अलावा ,वेट ,जीवन शैली से जुडी सक्रियता ,निष्क्रियता का ईमानदार ब्योरा हासिल करवाना होगा .इसी के आधार पर आपको हाई ,मीडियम या लो रिस्क केटेगरी में रखा जाएगा .
जिन लोगों में तीन या इससे भी ज्यादा रिश्क फेक्टर रहतें हैं उन्हें हाई रिस्क केटेगरी में जिनमे दो और क्रमश :एक ही रिश्क फेक्टर मिलता है उन्हें मीडियम और लो केटेगरी में रखा जाता है .
रक्त अध्ययन परीक्षणों के अलावा नॉन इन्वेज़िव परीक्षण (शल्य हीन ,बिना चीड फाड़ के )टी एम् टी ,एको आदि किए जातें हैं .ज़रुरत के मुताबिक़ हाई रिस्क ग्रुप के लिए कोरोनरी एंजियोग्रेफ़ी भी तजवीज़ क़ी जाती है .
कब आतें हैं एको और टी एमटी के नतीजे सामान्य ?
उन मामलों में जब कोरोनरी आर्टरी (परिहृदय धमनियों )में मात्र ४०% -५०%ही प्लाक चर्बी जमा होजाने से बन जाता है .यानी ब्लोकेड मात्र इतना रहता है उक्त परीक्षणों के नतीजे नोर्मल रहतें हैं .
लेकिन कई मर्तबा जब यह प्लाक फट जाता है तब आकस्मिक तौर पर दिल का दौरा पड़ जाता है .
आपके छोटे भाई के साथ यही हुआ हो सकता है .
बेशक भरोसे मंद और सस्ते नॉन इन्वेज़िव परीक्षण जिनके करवाने से खतरे का पहले से ही भान हो जाए भनक पड़ जाए इल्म हो जाए फिलवक्त उपलब्ध नहीं हैं .
सी टी एन्जियोग्रेफी की भी सीमाएं मुखरित हो चुकीं हैं :
जिन लोगों में किडनी फंक्शन हाई बना रहता है ,तेज़ और अनियमित रफ़्तार चलती है दिल की धौंकनी ,इर्रेग्युलर और फास्ट रहती है हार्ट बीट उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं यह सी टी एन्जियोग्रेफी .उच्च स्तर विकिरण के अलावा इसमें व्यक्ति को ८०-१०० मिलीलीटर डाई झेलनी पड़ती है जिसके बिना नतीजे अच्छे नहीं आतें हैं .इसके अपने खतरे हैं सेहत के लिए .वही बात हो गई न -काणी /काणे के ब्याह को सौ झोखों ,सौ झंझट .
लेदेकर विकल्प बचता है -गोल्ड स्टेंडर्ड कन्वेंशनल कोरोनरी एन्जियोग्रेफी .इसका अपना भय व्याप्त है जन समुदाय में .वजह अस्पताल में भर्ती होने की ज़रुरत /मजबूरी ,असुविधा ,शारीरिक कष्ट,डाई का रिएक्शन ,पेशाब का बंद लगना या पेशाब /मूत्र त्याग में परेशानी पेश आना आदि .
ज़वाब है -मेट्रो कोरोनरी स्क्रीनिंग :
मेट्रो अस्पतालों के मुखिया पद्म विभूषण तथा डॉ बी सी रॉय नॅशनल अवार्ड से सम्मानित डॉ .पुरुषोत्तम लाल ने ईजाद किया था यह परीक्षण १९९७ में .इसमें बाजू से एक मिनी केथितरप्रवेश कराके धमनियों तक पहुंचाकर ही धमनियों का हाल जान लिया जाता है .
इस परीक्षण की खूबी यह है इसमें डाई की न्यूनतम मात्रा का स्तेमाल कर लिया जाता है .इस एवज फ्लुइड डाईनेमिक्स के एक सूत्र की मदद ली जाती है .साथ ही एकोकार्डियोग्रेफ़ी भी इस परीक्षण के साथ साथ भी की जाती है रक्त परीक्षण भी चलतें हैं .
खूबसूरती इस परीक्षण की यह है कि इसे आउट पेशेंट के बतौर ही करवा लिया जाता है .न अस्पताल में भर्ती होने का झंझट न खाली पेट आने १० -१२ घंटे की फास्टिंग सारा प्रोसीज़र पांच मिनिट में ही संपन्न कर लिया जाता है .घंटा भर बाद अस्पताल से छुट्टी .न कपडे उतारकर अस्पताल के कपड़ों में घुसने का चक्कर .इसीलिए इसे यूज़र फ्रेंडली एंजियोग्रेफ़ी कह दिया जाता है .३०-४०%के माइल्ड ब्लोकेड का भी पता लगा लिया जाता हैं इस प्राविधि से .बस एग्रेसिव मेडिकल ट्रीट मेंट्स ,दवाओं के ज़ रिए ही ब्लड प्रेशर ,ब्लड सुगर ,कोलेस्ट्रोल आदि को मान्य स्तर पर ले आया जाता है .योग के साथ -साथ जीवन शैली में सुधार लाकर रोग के बढ़ने को थाम लेने की ज़ोरदार मुहीम छेड़ दी जाती है .
अलबत्ता किसी प्रमुख धमनी में ८०-९०%रुकावट मिलने पर एंजियोप्लास्टी के साथ साथ स्टंटइंग भी कर दी जाती है .इसे क्रिटिकल ब्लोकेड माना जाता है .मेट्रो अस्पताल के डॉ .पुरुषोत्तम लाल जी अब तक १५,००० प्रोसीज़र १००%कामयाबी के साथ मेट्रो कोरोनरी स्क्रीनिंग के संपन्न कर चुके हैं .यह आलमी स्तर पर एक रिकार्ड है .इंटर वेंश्नल कार्डियोलोजी की चौथी आलमी बैठक में आपने इसका विस्तार से उल्लेख अपने एक शोध पत्र में हाल ही में कियाथा .बैठक यू. के. में संपन्न हुई थी .
बात साफ़ है दिल की सेहत का पूरा जायजा लेना है तो व्यापकस्तर पर चौतरफा कार्डिएक चेक अप ,दिल की जांच करवाइए .कच्चा चिठ्ठा सामने आ जाएगा .
Reference material :FOR THE HEALTHY HEART
How Do I Know My Heart Is Ok?/TIMES CITY/TOI,OCTOBER 30,2011/p3
कैसे जानू मैं अपने ही दिल की सेहत का हाल ,कैसे पता चले सब ठीक ठाक भी है ?
जानतें हैं मेरा छोटा भाई सिर्फ ३५ साल का था दिल का दौरा उसे अचानक लील गया .धूम्रपान के अलावा और कोई एब ,ज्ञात रिस्क फेक्टर का हमें इल्म भी न था .मृत्यु से दो सप्ताह पूर्व एको और टी एम् टी परीक्षण भी सब कुछ नोर्मल दर्शा रहे थे .
मेरी खुद की उम्र ३८ बरस है .धूम्र पान का शौक है मुझे .दिल की सेहत का हाल जानने को बेहद उत्सुक और बे -चैन हूँ .कैसे जानू सब ठीक तो है .ऐसे किस्से और सवालों से आपका साबका पड़ता होगा .
भाई साहब दिल का मुआयना कार्डिएक चेक अप करवाओ .और क्या .बस आपको इसी के ज़रिए अपना पारिवारिक पूर्व वृत्तांत बताना होगा दिल की बीमारियों के बाबत .हाई ब्लड प्रेशर ,हाईब्लड सुगर परिवार में कब किसको रहा आया है बतलाना होगा .हाई कोलेस्ट्रोल का यदि इतिहास रहा है परिवार में तो वह भी अपने दिल के माहिर को बतलाना होगा .
अपने बारे में स्मोकिंग के अलावा ,वेट ,जीवन शैली से जुडी सक्रियता ,निष्क्रियता का ईमानदार ब्योरा हासिल करवाना होगा .इसी के आधार पर आपको हाई ,मीडियम या लो रिस्क केटेगरी में रखा जाएगा .
जिन लोगों में तीन या इससे भी ज्यादा रिश्क फेक्टर रहतें हैं उन्हें हाई रिस्क केटेगरी में जिनमे दो और क्रमश :एक ही रिश्क फेक्टर मिलता है उन्हें मीडियम और लो केटेगरी में रखा जाता है .
रक्त अध्ययन परीक्षणों के अलावा नॉन इन्वेज़िव परीक्षण (शल्य हीन ,बिना चीड फाड़ के )टी एम् टी ,एको आदि किए जातें हैं .ज़रुरत के मुताबिक़ हाई रिस्क ग्रुप के लिए कोरोनरी एंजियोग्रेफ़ी भी तजवीज़ क़ी जाती है .
कब आतें हैं एको और टी एमटी के नतीजे सामान्य ?
उन मामलों में जब कोरोनरी आर्टरी (परिहृदय धमनियों )में मात्र ४०% -५०%ही प्लाक चर्बी जमा होजाने से बन जाता है .यानी ब्लोकेड मात्र इतना रहता है उक्त परीक्षणों के नतीजे नोर्मल रहतें हैं .
लेकिन कई मर्तबा जब यह प्लाक फट जाता है तब आकस्मिक तौर पर दिल का दौरा पड़ जाता है .
आपके छोटे भाई के साथ यही हुआ हो सकता है .
बेशक भरोसे मंद और सस्ते नॉन इन्वेज़िव परीक्षण जिनके करवाने से खतरे का पहले से ही भान हो जाए भनक पड़ जाए इल्म हो जाए फिलवक्त उपलब्ध नहीं हैं .
सी टी एन्जियोग्रेफी की भी सीमाएं मुखरित हो चुकीं हैं :
जिन लोगों में किडनी फंक्शन हाई बना रहता है ,तेज़ और अनियमित रफ़्तार चलती है दिल की धौंकनी ,इर्रेग्युलर और फास्ट रहती है हार्ट बीट उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं यह सी टी एन्जियोग्रेफी .उच्च स्तर विकिरण के अलावा इसमें व्यक्ति को ८०-१०० मिलीलीटर डाई झेलनी पड़ती है जिसके बिना नतीजे अच्छे नहीं आतें हैं .इसके अपने खतरे हैं सेहत के लिए .वही बात हो गई न -काणी /काणे के ब्याह को सौ झोखों ,सौ झंझट .
लेदेकर विकल्प बचता है -गोल्ड स्टेंडर्ड कन्वेंशनल कोरोनरी एन्जियोग्रेफी .इसका अपना भय व्याप्त है जन समुदाय में .वजह अस्पताल में भर्ती होने की ज़रुरत /मजबूरी ,असुविधा ,शारीरिक कष्ट,डाई का रिएक्शन ,पेशाब का बंद लगना या पेशाब /मूत्र त्याग में परेशानी पेश आना आदि .
ज़वाब है -मेट्रो कोरोनरी स्क्रीनिंग :
मेट्रो अस्पतालों के मुखिया पद्म विभूषण तथा डॉ बी सी रॉय नॅशनल अवार्ड से सम्मानित डॉ .पुरुषोत्तम लाल ने ईजाद किया था यह परीक्षण १९९७ में .इसमें बाजू से एक मिनी केथितरप्रवेश कराके धमनियों तक पहुंचाकर ही धमनियों का हाल जान लिया जाता है .
इस परीक्षण की खूबी यह है इसमें डाई की न्यूनतम मात्रा का स्तेमाल कर लिया जाता है .इस एवज फ्लुइड डाईनेमिक्स के एक सूत्र की मदद ली जाती है .साथ ही एकोकार्डियोग्रेफ़ी भी इस परीक्षण के साथ साथ भी की जाती है रक्त परीक्षण भी चलतें हैं .
खूबसूरती इस परीक्षण की यह है कि इसे आउट पेशेंट के बतौर ही करवा लिया जाता है .न अस्पताल में भर्ती होने का झंझट न खाली पेट आने १० -१२ घंटे की फास्टिंग सारा प्रोसीज़र पांच मिनिट में ही संपन्न कर लिया जाता है .घंटा भर बाद अस्पताल से छुट्टी .न कपडे उतारकर अस्पताल के कपड़ों में घुसने का चक्कर .इसीलिए इसे यूज़र फ्रेंडली एंजियोग्रेफ़ी कह दिया जाता है .३०-४०%के माइल्ड ब्लोकेड का भी पता लगा लिया जाता हैं इस प्राविधि से .बस एग्रेसिव मेडिकल ट्रीट मेंट्स ,दवाओं के ज़ रिए ही ब्लड प्रेशर ,ब्लड सुगर ,कोलेस्ट्रोल आदि को मान्य स्तर पर ले आया जाता है .योग के साथ -साथ जीवन शैली में सुधार लाकर रोग के बढ़ने को थाम लेने की ज़ोरदार मुहीम छेड़ दी जाती है .
अलबत्ता किसी प्रमुख धमनी में ८०-९०%रुकावट मिलने पर एंजियोप्लास्टी के साथ साथ स्टंटइंग भी कर दी जाती है .इसे क्रिटिकल ब्लोकेड माना जाता है .मेट्रो अस्पताल के डॉ .पुरुषोत्तम लाल जी अब तक १५,००० प्रोसीज़र १००%कामयाबी के साथ मेट्रो कोरोनरी स्क्रीनिंग के संपन्न कर चुके हैं .यह आलमी स्तर पर एक रिकार्ड है .इंटर वेंश्नल कार्डियोलोजी की चौथी आलमी बैठक में आपने इसका विस्तार से उल्लेख अपने एक शोध पत्र में हाल ही में कियाथा .बैठक यू. के. में संपन्न हुई थी .
बात साफ़ है दिल की सेहत का पूरा जायजा लेना है तो व्यापकस्तर पर चौतरफा कार्डिएक चेक अप ,दिल की जांच करवाइए .कच्चा चिठ्ठा सामने आ जाएगा .
Reference material :FOR THE HEALTHY HEART
How Do I Know My Heart Is Ok?/TIMES CITY/TOI,OCTOBER 30,2011/p3
शनिवार, 29 अक्तूबर 2011
कमस कम तीन बरसों तक मिले संतानों को माँ की शैया .
नवजात शिशुओं को माँ की शैया तथा वक्ष स्थल का गुनगुना तकिया कमसे कम तीन वर्षों तक मयस्सर होना चाहिए .एक अन्य अध्ययन का यही लब्बोलुआब है .इसे संपन्न किया है दक्षिण अफ्रीका के कैप टाउन विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने .इसकी अगुवाई की है डॉ नील्स बर्गमान ने .पता चला है जिन शिशुओं को उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया जाता है बेबी बेड पर खुद -बा -खुद सोने के लिए .उनके दिल पर ज्यादा दवाब पड़ता है .माँ के वक्ष की आंच उन्हें सुखदाई नींद और मुकम्मिल आराम देती है .स्पर्श की आंच ,माँ के आँचल की छाँव का अपना जादू है .अपना सुख चैन और आश्वस्ति भाव है .आत्म विश्वास से भर जातें हैं ऐसे शिशु भावी जीवन में .
बेहतर हो पश्चिमकी इस जीवन शैली से भारतीय माताएं असर ग्रस्त न हों जहां बच्चों को शिशुकाल से ही परिवेश से जूझने बूझने को उन्हीं के हाल पे शैया पर परिवेश को समझने के लिए छोड़ दिया जाता है .
ram ram bhai
पोर्न का चस्का ही खा रहा है सेक्स को .
पोर्न का चस्का ही खा रहा है सेक्स को .
कामसूत्र का एक श्लोक है जिसकी व्याख्या कुछ यूं है :
काव्य का आनंद शाश्त्र को खा जाता है .संगीत काव्य को नष्ट कर देता है .संगीत ऊपर हो जाता है काव्य उसके नीचे दब खप जाता है .धुन ओर स्वर लहरी प्रमुख हो जाती है .संगीत को नारी विलास खा जाता है .आज के अधुनातन पश्चिमी कृत शैली के नृत्यों की मैथुनी मुद्राएं मैथुन के द्वार पर ही जाकर शांत होतीं हैं ,उसके बाद वही संगीत शोर लगने लगता है .और भूख नारी विलास का विलोप कर देती है .पेट में अन्न के दाने न हों तो नारी विलास भी चुक जाता है .यही भाव है वात्सायन के उस सारगर्भित श्लोक का .
जब देह दर्शन ज्यादा हो जाता है तब प्रेम चुक जाता है .उत्तेजना की अति होने पर उत्तेजना भी चुक जाती है .पैदा ही नहीं होती .
पोर्न सेवियों के साथ यही हुआ है .जिनको यह चस्का किशोरावस्था के बीच में ही लग गया था उन्हें यह पता ही नहीं है लोग हस्त मैथुन तब भी करते थे जब दृश्य उद्दीपन के तौर पर पोर्न नहीं था .तब फेंटेसी थी .कल्पना थी .प्रेम था .अब पोर्न का चस्का उन्हें उस मुकाम पर ले आया है जहां हकीकी ज़िन्दगी में यौन उत्तेजन ही नहीं होता .लिंगोथ्थान ही नहीं होता अब ,एक्सट्रीम मेटीरियल चाहिए .चस्का जो है उसका .
दो ताज़ा अध्ययन इस बात की पुष्टि करतें हैं अधिकाधिक इतालवी मर्द इस यौन उत्तेजन हीनता की गिरिफ्त में आचुकें हैं खासकर वह जो किशोरावस्था के दरमियानी सालों में ही पोर्न से चिपक गए थे .किताब
"Cupids Poisoned Arrow "की लेखिका मर्निया रोबिनसन ज़िक्र करतीं हैं अपनी किताब में ऐसे मर्दों का जिन्हें जल्दी ही वर्च्युअल देह दर्शन और देहसुख दृश्य भोग का चस्का लग गया था आज अपने यौन साथी के साथ निर-उत्तेजन हैं .देह में आंच ही नहीं सुलगती इनकी .लिगोथ्थान नदारद है .
तमाम नश्ल और संस्कृतियों ,अलग अलग शैक्षिक पृष्टभूमी के ,धर्म और विश्वासों के ,मूल्यों और मान्यताओं के ,भिन्न खान पानी वालों की युवा भीड़ में यदि कोई एक सूत्र आज सांझा है तो वह है पोर्न की लत .दृश्य रति .इनमे अफीमची भी है गांजा पीने वाले भी हैं शोट्स और पोट्स लेने वाले भी हैं .धुर दर्जे का दृश्य यौन उत्तेजन चाहिए इन्हें अब वरना बेड रूम में ये ठन्डे रहेंगें .
इनका यौन प्रदर्शन पोर्न खा गया है यह इस बात से पूरी तरह ना -वाकिफ हैं .मर्निया ने एक पर्चा 'साइकोलोजी टुडे 'में प्रकाशित किया है जिनमे ऐसी युवा भीड़ के बारे में खुलकर बतलाया गया है .एडिक्शन साइंस से ये मर्दुए पूरी तरह बे -खबर हैं .हार्ड पोर्न ने इन्हें तबाह कर दिया है इन्हें इसका इल्म ही नहींहै. किसी ने नहीं बतलाया इन्हें इसके निहितार्थ .
भौतिक परीक्षण के लिए ये पहले भी माहिरों के पास पहुंचे थे .खरे उतरे थे इन परीक्षणों में लेकिन "काम" के वक्त मैथुन के क्षणों में पता चलता है ये परफोर्मेंस एन्ग्जायती से ग्रस्त हैं ,यौन प्रदर्शन बे -चैनी को ये साक्षी भाव से निहार रहें हैं .
वजह शारीरिक (शरीर क्रिया वैज्ञानिक )ही तमाम लगतीं हैं मनोवैज्ञानिक नहीं .शुक्रिया अदा कीजिए २४ x ७ के एक माउस की क्लिक की दूरी पर ललचाते पोर्न भोग का .
उत्तेजन बेहद का इनके दिमाग के इनामी परिपथ (रिवार्ड सर्कित्री )को मात दे चुका है . अब इसके बिना रहा न जाए जिया भी न जाए इसके संग ,वाली, गति हो गई है इनकी .छोडो तो मरो .नहीं
छोडो तो. विद्रोवल सिंड्रोम ,लत छोड़ने के नतीजे भुगतो न छोडो तो इरेक्टाइल डिसफंक्शन ,परफोर्मेंस एन्ग्जायती .नामरदी सी .अनिद्रा रोग ,पैनिक अटेक ,हताशा ,ध्यान भंग ,चिडचिndडापन ,फ्ल्यू से लक्षण ,यौन संबंधों में अरुचि देखो .
समाधान :दिमाग की रीबूटिंग कीजिए .सामान्य डोपामिन सेंसिटिविटी चाहिए दिमाग को जबकि .यहाँ तो इस जैव रसायन की अत हो चुकी है .ज़नाब .सेक्स सिर्फ देह में नहीं होता .प्रेम से भी उपजता है .और देह का अतिरिक्त दर्शन प्रेम को ले डूबता है संबंधों को रोबोटिक बना देता है काग भगोड़े सा निर्जीव .
सुभग विश्वास की अमराइयों की छाँव तले ,
प्रीत की पगडंडियों के नाम अर्पित ज़िन्दगी .
लेकिन यहाँ तो सब चुक गया न प्रेम न भरोसा सिर्फ और सिर्फ , देह और देह ,अतिरिक्त देह दर्शन .नतीजा नहीं भुगतना पड़ेगा ?
सन्दर्भ -सामिग्री :Porn addiction leads to 'sexual anorexia'(Times Trends ,TOI,Oct .25 ,2011 ).
बेहतर हो पश्चिमकी इस जीवन शैली से भारतीय माताएं असर ग्रस्त न हों जहां बच्चों को शिशुकाल से ही परिवेश से जूझने बूझने को उन्हीं के हाल पे शैया पर परिवेश को समझने के लिए छोड़ दिया जाता है .
ram ram bhai
पोर्न का चस्का ही खा रहा है सेक्स को .
पोर्न का चस्का ही खा रहा है सेक्स को .
कामसूत्र का एक श्लोक है जिसकी व्याख्या कुछ यूं है :
काव्य का आनंद शाश्त्र को खा जाता है .संगीत काव्य को नष्ट कर देता है .संगीत ऊपर हो जाता है काव्य उसके नीचे दब खप जाता है .धुन ओर स्वर लहरी प्रमुख हो जाती है .संगीत को नारी विलास खा जाता है .आज के अधुनातन पश्चिमी कृत शैली के नृत्यों की मैथुनी मुद्राएं मैथुन के द्वार पर ही जाकर शांत होतीं हैं ,उसके बाद वही संगीत शोर लगने लगता है .और भूख नारी विलास का विलोप कर देती है .पेट में अन्न के दाने न हों तो नारी विलास भी चुक जाता है .यही भाव है वात्सायन के उस सारगर्भित श्लोक का .
जब देह दर्शन ज्यादा हो जाता है तब प्रेम चुक जाता है .उत्तेजना की अति होने पर उत्तेजना भी चुक जाती है .पैदा ही नहीं होती .
पोर्न सेवियों के साथ यही हुआ है .जिनको यह चस्का किशोरावस्था के बीच में ही लग गया था उन्हें यह पता ही नहीं है लोग हस्त मैथुन तब भी करते थे जब दृश्य उद्दीपन के तौर पर पोर्न नहीं था .तब फेंटेसी थी .कल्पना थी .प्रेम था .अब पोर्न का चस्का उन्हें उस मुकाम पर ले आया है जहां हकीकी ज़िन्दगी में यौन उत्तेजन ही नहीं होता .लिंगोथ्थान ही नहीं होता अब ,एक्सट्रीम मेटीरियल चाहिए .चस्का जो है उसका .
दो ताज़ा अध्ययन इस बात की पुष्टि करतें हैं अधिकाधिक इतालवी मर्द इस यौन उत्तेजन हीनता की गिरिफ्त में आचुकें हैं खासकर वह जो किशोरावस्था के दरमियानी सालों में ही पोर्न से चिपक गए थे .किताब
"Cupids Poisoned Arrow "की लेखिका मर्निया रोबिनसन ज़िक्र करतीं हैं अपनी किताब में ऐसे मर्दों का जिन्हें जल्दी ही वर्च्युअल देह दर्शन और देहसुख दृश्य भोग का चस्का लग गया था आज अपने यौन साथी के साथ निर-उत्तेजन हैं .देह में आंच ही नहीं सुलगती इनकी .लिगोथ्थान नदारद है .
तमाम नश्ल और संस्कृतियों ,अलग अलग शैक्षिक पृष्टभूमी के ,धर्म और विश्वासों के ,मूल्यों और मान्यताओं के ,भिन्न खान पानी वालों की युवा भीड़ में यदि कोई एक सूत्र आज सांझा है तो वह है पोर्न की लत .दृश्य रति .इनमे अफीमची भी है गांजा पीने वाले भी हैं शोट्स और पोट्स लेने वाले भी हैं .धुर दर्जे का दृश्य यौन उत्तेजन चाहिए इन्हें अब वरना बेड रूम में ये ठन्डे रहेंगें .
इनका यौन प्रदर्शन पोर्न खा गया है यह इस बात से पूरी तरह ना -वाकिफ हैं .मर्निया ने एक पर्चा 'साइकोलोजी टुडे 'में प्रकाशित किया है जिनमे ऐसी युवा भीड़ के बारे में खुलकर बतलाया गया है .एडिक्शन साइंस से ये मर्दुए पूरी तरह बे -खबर हैं .हार्ड पोर्न ने इन्हें तबाह कर दिया है इन्हें इसका इल्म ही नहींहै. किसी ने नहीं बतलाया इन्हें इसके निहितार्थ .
भौतिक परीक्षण के लिए ये पहले भी माहिरों के पास पहुंचे थे .खरे उतरे थे इन परीक्षणों में लेकिन "काम" के वक्त मैथुन के क्षणों में पता चलता है ये परफोर्मेंस एन्ग्जायती से ग्रस्त हैं ,यौन प्रदर्शन बे -चैनी को ये साक्षी भाव से निहार रहें हैं .
वजह शारीरिक (शरीर क्रिया वैज्ञानिक )ही तमाम लगतीं हैं मनोवैज्ञानिक नहीं .शुक्रिया अदा कीजिए २४ x ७ के एक माउस की क्लिक की दूरी पर ललचाते पोर्न भोग का .
उत्तेजन बेहद का इनके दिमाग के इनामी परिपथ (रिवार्ड सर्कित्री )को मात दे चुका है . अब इसके बिना रहा न जाए जिया भी न जाए इसके संग ,वाली, गति हो गई है इनकी .छोडो तो मरो .नहीं
छोडो तो. विद्रोवल सिंड्रोम ,लत छोड़ने के नतीजे भुगतो न छोडो तो इरेक्टाइल डिसफंक्शन ,परफोर्मेंस एन्ग्जायती .नामरदी सी .अनिद्रा रोग ,पैनिक अटेक ,हताशा ,ध्यान भंग ,चिडचिndडापन ,फ्ल्यू से लक्षण ,यौन संबंधों में अरुचि देखो .
समाधान :दिमाग की रीबूटिंग कीजिए .सामान्य डोपामिन सेंसिटिविटी चाहिए दिमाग को जबकि .यहाँ तो इस जैव रसायन की अत हो चुकी है .ज़नाब .सेक्स सिर्फ देह में नहीं होता .प्रेम से भी उपजता है .और देह का अतिरिक्त दर्शन प्रेम को ले डूबता है संबंधों को रोबोटिक बना देता है काग भगोड़े सा निर्जीव .
सुभग विश्वास की अमराइयों की छाँव तले ,
प्रीत की पगडंडियों के नाम अर्पित ज़िन्दगी .
लेकिन यहाँ तो सब चुक गया न प्रेम न भरोसा सिर्फ और सिर्फ , देह और देह ,अतिरिक्त देह दर्शन .नतीजा नहीं भुगतना पड़ेगा ?
सन्दर्भ -सामिग्री :Porn addiction leads to 'sexual anorexia'(Times Trends ,TOI,Oct .25 ,2011 ).
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
पोर्न का चस्का ही खा रहा है सेक्स को .
पोर्न का चस्का ही खा रहा है सेक्स को .
कामसूत्र का एक श्लोक है जिसकी व्याख्या कुछ यूं है :
काव्य का आनंद शाश्त्र को खा जाता है .संगीत काव्य को नष्ट कर देता है .संगीत ऊपर हो जाता है काव्य उसके नीचे दब खप जाता है .धुन ओर स्वर लहरी प्रमुख हो जाती है .संगीत को नारी विलास खा जाता है .आज के अधुनातन पश्चिमी कृत शैली के नृत्यों की मैथुनी मुद्राएं मैथुन के द्वार पर ही जाकर शांत होतीं हैं ,उसके बाद वही संगीत शोर लगने लगता है .और भूख नारी विलास का विलोप कर देती है .पेट में अन्न के दाने न हों तो नारी विलास भी चुक जाता है .यही भाव है वात्सायन के उस सारगर्भित श्लोक का .
जब देह दर्शन ज्यादा हो जाता है तब प्रेम चुक जाता है .उत्तेजना की अति होने पर उत्तेजना भी चुक जाती है .पैदा ही नहीं होती .
पोर्न सेवियों के साथ यही हुआ है .जिनको यह चस्का किशोरावस्था के बीच में ही लग गया था उन्हें यह पता ही नहीं है लोग हस्त मैथुन तब भी करते थे जब दृश्य उद्दीपन के तौर पर पोर्न नहीं था .तब फेंटेसी थी .कल्पना थी .प्रेम था .अब पोर्न का चस्का उन्हें उस मुकाम पर ले आया है जहां हकीकी ज़िन्दगी में यौन उत्तेजन ही नहीं होता .लिंगोथ्थान ही नहीं होता अब ,एक्सट्रीम मेटीरियल चाहिए .चस्का जो है उसका .
दो ताज़ा अध्ययन इस बात की पुष्टि करतें हैं अधिकाधिक इतालवी मर्द इस यौन उत्तेजन हीनता की गिरिफ्त में आचुकें हैं खासकर वह जो किशोरावस्था के दरमियानी सालों में ही पोर्न से चिपक गए थे .किताब
"Cupids Poisoned Arrow "की लेखिका मर्निया रोबिनसन ज़िक्र करतीं हैं अपनी किताब में ऐसे मर्दों का जिन्हें जल्दी ही वर्च्युअल देह दर्शन और देहसुख दृश्य भोग का चस्का लग गया था आज अपने यौन साथी के साथ निर-उत्तेजन हैं .देह में आंच ही नहीं सुलगती इनकी .लिगोथ्थान नदारद है .
तमाम नश्ल और संस्कृतियों ,अलग अलग शैक्षिक पृष्टभूमी के ,धर्म और विश्वासों के ,मूल्यों और मान्यताओं के ,भिन्न खान पानी वालों की युवा भीड़ में यदि कोई एक सूत्र आज सांझा है तो वह है पोर्न की लत .दृश्य रति .इनमे अफीमची भी है गांजा पीने वाले भी हैं शोट्स और पोट्स लेने वाले भी हैं .धुर दर्जे का दृश्य यौन उत्तेजन चाहिए इन्हें अब वरना बेड रूम में ये ठन्डे रहेंगें .
इनका यौन प्रदर्शन पोर्न खा गया है यह इस बात से पूरी तरह ना -वाकिफ हैं .मर्निया ने एक पर्चा 'साइकोलोजी टुडे 'में प्रकाशित किया है जिनमे ऐसी युवा भीड़ के बारे में खुलकर बतलाया गया है .एडिक्शन साइंस से ये मर्दुए पूरी तरह बे -खबर हैं .हार्ड पोर्न ने इन्हें तबाह कर दिया है इन्हें इसका इल्म ही नहींहै. किसी ने नहीं बतलाया इन्हें इसके निहितार्थ .
भौतिक परीक्षण के लिए ये पहले भी माहिरों के पास पहुंचे थे .खरे उतरे थे इन परीक्षणों में लेकिन "काम" के वक्त मैथुन के क्षणों में पता चलता है ये परफोर्मेंस एन्ग्जायती से ग्रस्त हैं ,यौन प्रदर्शन बे -चैनी को ये साक्षी भाव से निहार रहें हैं .
वजह शारीरिक (शरीर क्रिया वैज्ञानिक )ही तमाम लगतीं हैं मनोवैज्ञानिक नहीं .शुक्रिया अदा कीजिए २४ x ७ के एक माउस की क्लिक की दूरी पर ललचाते पोर्न भोग का .
उत्तेजन बेहद का इनके दिमाग के इनामी परिपथ (रिवार्ड सर्कित्री )को मात दे चुका है . अब इसके बिना रहा न जाए जिया भी न जाए इसके संग ,वाली, गति हो गई है इनकी .छोडो तो मरो .नहीं
छोडो तो. विद्रोवल सिंड्रोम ,लत छोड़ने के नतीजे भुगतो न छोडो तो इरेक्टाइल डिसफंक्शन ,परफोर्मेंस एन्ग्जायती .नामरदी सी .अनिद्रा रोग ,पैनिक अटेक ,हताशा ,ध्यान भंग ,चिडचिndडापन ,फ्ल्यू से लक्षण ,यौन संबंधों में अरुचि देखो .
समाधान :दिमाग की रीबूटिंग कीजिए .सामान्य डोपामिन सेंसिटिविटी चाहिए दिमाग को जबकि .यहाँ तो इस जैव रसायन की अत हो चुकी है .ज़नाब .सेक्स सिर्फ देह में नहीं होता .प्रेम से भी उपजता है .और देह का अतिरिक्त दर्शन प्रेम को ले डूबता है संबंधों को रोबोटिक बना देता है काग भगोड़े सा निर्जीव .
सुभग विश्वास की अमराइयों की छाँव तले ,
प्रीत की पगडंडियों के नाम अर्पित ज़िन्दगी .
लेकिन यहाँ तो सब चुक गया न प्रेम न भरोसा सिर्फ और सिर्फ , देह और देह ,अतिरिक्त देह दर्शन .नतीजा नहीं भुगतना पड़ेगा ?
सन्दर्भ -सामिग्री :Porn addiction leads to 'sexual anorexia'(Times Trends ,TOI,Oct .25 ,2011 ).
कोंग्रेस का भाग्य दिग्विजय सिंह की जेब में है .दुर्भाग्य यह है दिग्विजय सिंह की जेब फटी हुई है .उन्हें बोलने का अतिसार है .
दिग्विजय सिंह का यह वाक् -अतिसार लाइलाज है .
बचना चाहिए भावी माताओं को संशाधित पैकेज्ड फ़ूड से ,डिब्बा बंद खाद्य से .
हारवर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है गर्भस्थ कन्या भ्रूण के मामलों में पैकेज्ड फ़ूड में रिसकर पहुंचा एक रसायन बिस्फिनोल ए व्यवहार सम्बन्धी दिक्कतें उनके तीन साला होते होते खड़ी कर देता है .बिस्फिनोल ए प्लास्टिक उत्पादों का एक आम घटक है .यह प्लास्टिक को कठोर बनाने के लिए काम में लिया जाता है .जिन डिब्बों और बोतलों का स्तेमाल खाद्य सामिग्री के भंडारण में किया जाता है उनका अंदरूनी स्तर इनर लाइनिंग ,चाक़ू और फोर्क्स के सिरों पर यह सत्यानाशी रसायन बिस्फिनोल ए मिला है जो लड़कियों में जेंडर बेनदर (लड़कियों का लड़कों की तरह व्यवहार ,लड़कों से कपडे पहन सजना धजना ,जेंडर भेद को धुंधला कर देता है .हारमोन केमिस्ट्री ,हारमोनों के सशाधन को प्रोसेसिंग को असर ग्रस्त करता है यह रसायन नतीज़न तीन साला होते होते लडकियां (कन्याएं )हाइपरएक्टिव तथा आक्रामक हो जातीं हैं .अध्ययन से यह भी पता चला है लडकों के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता है .
अपनी रिसर्च के तहत यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के साइंसदानों ने २४४ गर्भवती महिलाओं के शरीर में इस रसायन बिस्फिनोल ए के स्तरों का मिलान किया ,तुलना की रसायन के मौजूद स्तर की हरेक में .तीन नमूने इस एवज गर्भकाल में तथा एक प्रसव के वक्त लिया गया .इसकी जांच बिस्फिनोल के स्तर के लिए की गई .जब शिशु एक बरस के हो गए इनके शरीर में भी इसके स्तर की जांच की गई .अगले दो बरसों में भी ऐसी ही जांच की गई .इनके तीन साला होते ही इनकी माताओं से एक प्रश्नावली भरवाई गई .इस सर्वे में इन नौनिहालों के व्यवहार का ब्योरा जुटाया गया था .
पता चला लड़कियों के हाइपरएक्टिव ,अवसाद ग्रस्त ,आक्रामक ,बे -चैनी से ग्रस्त त्तथा अपने व्यवहार पर नियंतार्ण न होने की संभावना उन मामलों में ज्यादा थी जिनकी माताओं में गर्भकाल में बिस्फिनोल ए का स्तर अधिक मिला था .लेकिन लड़कों के मामले में ऐसे किसी अंतर सम्बन्ध की पुष्टि नहीं हुई थी .
कामसूत्र का एक श्लोक है जिसकी व्याख्या कुछ यूं है :
काव्य का आनंद शाश्त्र को खा जाता है .संगीत काव्य को नष्ट कर देता है .संगीत ऊपर हो जाता है काव्य उसके नीचे दब खप जाता है .धुन ओर स्वर लहरी प्रमुख हो जाती है .संगीत को नारी विलास खा जाता है .आज के अधुनातन पश्चिमी कृत शैली के नृत्यों की मैथुनी मुद्राएं मैथुन के द्वार पर ही जाकर शांत होतीं हैं ,उसके बाद वही संगीत शोर लगने लगता है .और भूख नारी विलास का विलोप कर देती है .पेट में अन्न के दाने न हों तो नारी विलास भी चुक जाता है .यही भाव है वात्सायन के उस सारगर्भित श्लोक का .
जब देह दर्शन ज्यादा हो जाता है तब प्रेम चुक जाता है .उत्तेजना की अति होने पर उत्तेजना भी चुक जाती है .पैदा ही नहीं होती .
पोर्न सेवियों के साथ यही हुआ है .जिनको यह चस्का किशोरावस्था के बीच में ही लग गया था उन्हें यह पता ही नहीं है लोग हस्त मैथुन तब भी करते थे जब दृश्य उद्दीपन के तौर पर पोर्न नहीं था .तब फेंटेसी थी .कल्पना थी .प्रेम था .अब पोर्न का चस्का उन्हें उस मुकाम पर ले आया है जहां हकीकी ज़िन्दगी में यौन उत्तेजन ही नहीं होता .लिंगोथ्थान ही नहीं होता अब ,एक्सट्रीम मेटीरियल चाहिए .चस्का जो है उसका .
दो ताज़ा अध्ययन इस बात की पुष्टि करतें हैं अधिकाधिक इतालवी मर्द इस यौन उत्तेजन हीनता की गिरिफ्त में आचुकें हैं खासकर वह जो किशोरावस्था के दरमियानी सालों में ही पोर्न से चिपक गए थे .किताब
"Cupids Poisoned Arrow "की लेखिका मर्निया रोबिनसन ज़िक्र करतीं हैं अपनी किताब में ऐसे मर्दों का जिन्हें जल्दी ही वर्च्युअल देह दर्शन और देहसुख दृश्य भोग का चस्का लग गया था आज अपने यौन साथी के साथ निर-उत्तेजन हैं .देह में आंच ही नहीं सुलगती इनकी .लिगोथ्थान नदारद है .
तमाम नश्ल और संस्कृतियों ,अलग अलग शैक्षिक पृष्टभूमी के ,धर्म और विश्वासों के ,मूल्यों और मान्यताओं के ,भिन्न खान पानी वालों की युवा भीड़ में यदि कोई एक सूत्र आज सांझा है तो वह है पोर्न की लत .दृश्य रति .इनमे अफीमची भी है गांजा पीने वाले भी हैं शोट्स और पोट्स लेने वाले भी हैं .धुर दर्जे का दृश्य यौन उत्तेजन चाहिए इन्हें अब वरना बेड रूम में ये ठन्डे रहेंगें .
इनका यौन प्रदर्शन पोर्न खा गया है यह इस बात से पूरी तरह ना -वाकिफ हैं .मर्निया ने एक पर्चा 'साइकोलोजी टुडे 'में प्रकाशित किया है जिनमे ऐसी युवा भीड़ के बारे में खुलकर बतलाया गया है .एडिक्शन साइंस से ये मर्दुए पूरी तरह बे -खबर हैं .हार्ड पोर्न ने इन्हें तबाह कर दिया है इन्हें इसका इल्म ही नहींहै. किसी ने नहीं बतलाया इन्हें इसके निहितार्थ .
भौतिक परीक्षण के लिए ये पहले भी माहिरों के पास पहुंचे थे .खरे उतरे थे इन परीक्षणों में लेकिन "काम" के वक्त मैथुन के क्षणों में पता चलता है ये परफोर्मेंस एन्ग्जायती से ग्रस्त हैं ,यौन प्रदर्शन बे -चैनी को ये साक्षी भाव से निहार रहें हैं .
वजह शारीरिक (शरीर क्रिया वैज्ञानिक )ही तमाम लगतीं हैं मनोवैज्ञानिक नहीं .शुक्रिया अदा कीजिए २४ x ७ के एक माउस की क्लिक की दूरी पर ललचाते पोर्न भोग का .
उत्तेजन बेहद का इनके दिमाग के इनामी परिपथ (रिवार्ड सर्कित्री )को मात दे चुका है . अब इसके बिना रहा न जाए जिया भी न जाए इसके संग ,वाली, गति हो गई है इनकी .छोडो तो मरो .नहीं
छोडो तो. विद्रोवल सिंड्रोम ,लत छोड़ने के नतीजे भुगतो न छोडो तो इरेक्टाइल डिसफंक्शन ,परफोर्मेंस एन्ग्जायती .नामरदी सी .अनिद्रा रोग ,पैनिक अटेक ,हताशा ,ध्यान भंग ,चिडचिndडापन ,फ्ल्यू से लक्षण ,यौन संबंधों में अरुचि देखो .
समाधान :दिमाग की रीबूटिंग कीजिए .सामान्य डोपामिन सेंसिटिविटी चाहिए दिमाग को जबकि .यहाँ तो इस जैव रसायन की अत हो चुकी है .ज़नाब .सेक्स सिर्फ देह में नहीं होता .प्रेम से भी उपजता है .और देह का अतिरिक्त दर्शन प्रेम को ले डूबता है संबंधों को रोबोटिक बना देता है काग भगोड़े सा निर्जीव .
सुभग विश्वास की अमराइयों की छाँव तले ,
प्रीत की पगडंडियों के नाम अर्पित ज़िन्दगी .
लेकिन यहाँ तो सब चुक गया न प्रेम न भरोसा सिर्फ और सिर्फ , देह और देह ,अतिरिक्त देह दर्शन .नतीजा नहीं भुगतना पड़ेगा ?
सन्दर्भ -सामिग्री :Porn addiction leads to 'sexual anorexia'(Times Trends ,TOI,Oct .25 ,2011 ).
कोंग्रेस का भाग्य दिग्विजय सिंह की जेब में है .दुर्भाग्य यह है दिग्विजय सिंह की जेब फटी हुई है .उन्हें बोलने का अतिसार है .
दिग्विजय सिंह का यह वाक् -अतिसार लाइलाज है .
बचना चाहिए भावी माताओं को संशाधित पैकेज्ड फ़ूड से ,डिब्बा बंद खाद्य से .
हारवर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है गर्भस्थ कन्या भ्रूण के मामलों में पैकेज्ड फ़ूड में रिसकर पहुंचा एक रसायन बिस्फिनोल ए व्यवहार सम्बन्धी दिक्कतें उनके तीन साला होते होते खड़ी कर देता है .बिस्फिनोल ए प्लास्टिक उत्पादों का एक आम घटक है .यह प्लास्टिक को कठोर बनाने के लिए काम में लिया जाता है .जिन डिब्बों और बोतलों का स्तेमाल खाद्य सामिग्री के भंडारण में किया जाता है उनका अंदरूनी स्तर इनर लाइनिंग ,चाक़ू और फोर्क्स के सिरों पर यह सत्यानाशी रसायन बिस्फिनोल ए मिला है जो लड़कियों में जेंडर बेनदर (लड़कियों का लड़कों की तरह व्यवहार ,लड़कों से कपडे पहन सजना धजना ,जेंडर भेद को धुंधला कर देता है .हारमोन केमिस्ट्री ,हारमोनों के सशाधन को प्रोसेसिंग को असर ग्रस्त करता है यह रसायन नतीज़न तीन साला होते होते लडकियां (कन्याएं )हाइपरएक्टिव तथा आक्रामक हो जातीं हैं .अध्ययन से यह भी पता चला है लडकों के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता है .
अपनी रिसर्च के तहत यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के साइंसदानों ने २४४ गर्भवती महिलाओं के शरीर में इस रसायन बिस्फिनोल ए के स्तरों का मिलान किया ,तुलना की रसायन के मौजूद स्तर की हरेक में .तीन नमूने इस एवज गर्भकाल में तथा एक प्रसव के वक्त लिया गया .इसकी जांच बिस्फिनोल के स्तर के लिए की गई .जब शिशु एक बरस के हो गए इनके शरीर में भी इसके स्तर की जांच की गई .अगले दो बरसों में भी ऐसी ही जांच की गई .इनके तीन साला होते ही इनकी माताओं से एक प्रश्नावली भरवाई गई .इस सर्वे में इन नौनिहालों के व्यवहार का ब्योरा जुटाया गया था .
पता चला लड़कियों के हाइपरएक्टिव ,अवसाद ग्रस्त ,आक्रामक ,बे -चैनी से ग्रस्त त्तथा अपने व्यवहार पर नियंतार्ण न होने की संभावना उन मामलों में ज्यादा थी जिनकी माताओं में गर्भकाल में बिस्फिनोल ए का स्तर अधिक मिला था .लेकिन लड़कों के मामले में ऐसे किसी अंतर सम्बन्ध की पुष्टि नहीं हुई थी .
गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011
कोंग्रेस का भाग्य दिग्विजय सिंह की जेब में है .दुर्भाग्य यह है दिग्विजय सिंह की जेब फटी हुई है .उन्हें बोलने का अतिसार है .
कोंग्रेस का भाग्य दिग्विजय सिंह की जेब में है .दुर्भाग्य यह है दिग्विजय सिंह की जेब फटी हुई है .उन्हें बोलने का अतिसार है .
बचना चाहिए भावी माताओं को संशाधित पैकेज्ड फ़ूड से ,डिब्बा बंद खाद्य से .
हारवर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है गर्भस्थ कन्या भ्रूण के मामलों में पैकेज्ड फ़ूड में रिसकर पहुंचा एक रसायन बिस्फिनोल ए व्यवहार सम्बन्धी दिक्कतें उनके तीन साला होते होते खड़ी कर देता है .बिस्फिनोल ए प्लास्टिक उत्पादों का एक आम घटक है .यह प्लास्टिक को कठोर बनाने के लिए काम में लिया जाता है .जिन डिब्बों और बोतलों का स्तेमाल खाद्य सामिग्री के भंडारण में किया जाता है उनका अंदरूनी स्तर इनर लाइनिंग ,चाक़ू और फोर्क्स के सिरों पर यह सत्यानाशी रसायन बिस्फिनोल ए मिला है जो लड़कियों में जेंडर बेनदर (लड़कियों का लड़कों की तरह व्यवहार ,लड़कों से कपडे पहन सजना धजना ,जेंडर भेद को धुंधला कर देता है .हारमोन केमिस्ट्री ,हारमोनों के सशाधन को प्रोसेसिंग को असर ग्रस्त करता है यह रसायन नतीज़न तीन साला होते होते लडकियां (कन्याएं )हाइपरएक्टिव तथा आक्रामक हो जातीं हैं .अध्ययन से यह भी पता चला है लडकों के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता है .
अपनी रिसर्च के तहत यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के साइंसदानों ने २४४ गर्भवती महिलाओं के शरीर में इस रसायन बिस्फिनोल ए के स्तरों का मिलान किया ,तुलना की रसायन के मौजूद स्तर की हरेक में .तीन नमूने इस एवज गर्भकाल में तथा एक प्रसव के वक्त लिया गया .इसकी जांच बिस्फिनोल के स्तर के लिए की गई .जब शिशु एक बरस के हो गए इनके शरीर में भी इसके स्तर की जांच की गई .अगले दो बरसों में भी ऐसी ही जांच की गई .इनके तीन साला होते ही इनकी माताओं से एक प्रश्नावली भरवाई गई .इस सर्वे में इन नौनिहालों के व्यवहार का ब्योरा जुटाया गया था .
पता चला लड़कियों के हाइपरएक्टिव ,अवसाद ग्रस्त ,आक्रामक ,बे -चैनी से ग्रस्त त्तथा अपने व्यवहार पर नियंतार्ण न होने की संभावना उन मामलों में ज्यादा थी जिनकी माताओं में गर्भकाल में बिस्फिनोल ए का स्तर अधिक मिला था .लेकिन लड़कों के मामले में ऐसे किसी अंतर सम्बन्ध की पुष्टि नहीं हुई थी .
बचना चाहिए भावी माताओं को संशाधित पैकेज्ड फ़ूड से ,डिब्बा बंद खाद्य से .
हारवर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है गर्भस्थ कन्या भ्रूण के मामलों में पैकेज्ड फ़ूड में रिसकर पहुंचा एक रसायन बिस्फिनोल ए व्यवहार सम्बन्धी दिक्कतें उनके तीन साला होते होते खड़ी कर देता है .बिस्फिनोल ए प्लास्टिक उत्पादों का एक आम घटक है .यह प्लास्टिक को कठोर बनाने के लिए काम में लिया जाता है .जिन डिब्बों और बोतलों का स्तेमाल खाद्य सामिग्री के भंडारण में किया जाता है उनका अंदरूनी स्तर इनर लाइनिंग ,चाक़ू और फोर्क्स के सिरों पर यह सत्यानाशी रसायन बिस्फिनोल ए मिला है जो लड़कियों में जेंडर बेनदर (लड़कियों का लड़कों की तरह व्यवहार ,लड़कों से कपडे पहन सजना धजना ,जेंडर भेद को धुंधला कर देता है .हारमोन केमिस्ट्री ,हारमोनों के सशाधन को प्रोसेसिंग को असर ग्रस्त करता है यह रसायन नतीज़न तीन साला होते होते लडकियां (कन्याएं )हाइपरएक्टिव तथा आक्रामक हो जातीं हैं .अध्ययन से यह भी पता चला है लडकों के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता है .
अपनी रिसर्च के तहत यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के साइंसदानों ने २४४ गर्भवती महिलाओं के शरीर में इस रसायन बिस्फिनोल ए के स्तरों का मिलान किया ,तुलना की रसायन के मौजूद स्तर की हरेक में .तीन नमूने इस एवज गर्भकाल में तथा एक प्रसव के वक्त लिया गया .इसकी जांच बिस्फिनोल के स्तर के लिए की गई .जब शिशु एक बरस के हो गए इनके शरीर में भी इसके स्तर की जांच की गई .अगले दो बरसों में भी ऐसी ही जांच की गई .इनके तीन साला होते ही इनकी माताओं से एक प्रश्नावली भरवाई गई .इस सर्वे में इन नौनिहालों के व्यवहार का ब्योरा जुटाया गया था .
पता चला लड़कियों के हाइपरएक्टिव ,अवसाद ग्रस्त ,आक्रामक ,बे -चैनी से ग्रस्त त्तथा अपने व्यवहार पर नियंतार्ण न होने की संभावना उन मामलों में ज्यादा थी जिनकी माताओं में गर्भकाल में बिस्फिनोल ए का स्तर अधिक मिला था .लेकिन लड़कों के मामले में ऐसे किसी अंतर सम्बन्ध की पुष्टि नहीं हुई थी .
बुधवार, 26 अक्तूबर 2011
बचना चाहिए भावी माताओं को संशाधित पैकेज्ड फ़ूड से ,डिब्बा बंद खाद्य से .
बचना चाहिए भावी माताओं को संशाधित पैकेज्ड फ़ूड से ,डिब्बा बंद खाद्य से .
हारवर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है गर्भस्थ कन्या भ्रूण के मामलों में पैकेज्ड फ़ूड में रिसकर पहुंचा एक रसायन बिस्फिनोल ए व्यवहार सम्बन्धी दिक्कतें उनके तीन साला होते होते खड़ी कर देता है .बिस्फिनोल ए प्लास्टिक उत्पादों का एक आम घटक है .यह प्लास्टिक को कठोर बनाने के लिए काम में लिया जाता है .जिन डिब्बों और बोतलों का स्तेमाल खाद्य सामिग्री के भंडारण में किया जाता है उनका अंदरूनी स्तर इनर लाइनिंग ,चाक़ू और फोर्क्स के सिरों पर यह सत्यानाशी रसायन बिस्फिनोल ए मिला है जो लड़कियों में जेंडर बेनदर (लड़कियों का लड़कों की तरह व्यवहार ,लड़कों से कपडे पहन सजना धजना ,जेंडर भेद को धुंधला कर देता है .हारमोन केमिस्ट्री ,हारमोनों के सशाधन को प्रोसेसिंग को असर ग्रस्त करता है यह रसायन नतीज़न तीन साला होते होते लडकियां (कन्याएं )हाइपरएक्टिव तथा आक्रामक हो जातीं हैं .अध्ययन से यह भी पता चला है लडकों के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता है .
अपनी रिसर्च के तहत यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के साइंसदानों ने २४४ गर्भवती महिलाओं के शरीर में इस रसायन बिस्फिनोल ए के स्तरों का मिलान किया ,तुलना की रसायन के मौजूद स्तर की हरेक में .तीन नमूने इस एवज गर्भकाल में तथा एक प्रसव के वक्त लिया गया .इसकी जांच बिस्फिनोल के स्तर के लिए की गई .जब शिशु एक बरस के हो गए इनके शरीर में भी इसके स्तर की जांच की गई .अगले दो बरसों में भी ऐसी ही जांच की गई .इनके तीन साला होते ही इनकी माताओं से एक प्रश्नावली भरवाई गई .इस सर्वे में इन नौनिहालों के व्यवहार का ब्योरा जुटाया गया था .
पता चला लड़कियों के हाइपरएक्टिव ,अवसाद ग्रस्त ,आक्रामक ,बे -चैनी से ग्रस्त त्तथा अपने व्यवहार पर नियंतार्ण न होने की संभावना उन मामलों में ज्यादा थी जिनकी माताओं में गर्भकाल में बिस्फिनोल ए का स्तर अधिक मिला था .लेकिन लड़कों के मामले में ऐसे किसी अंतर सम्बन्ध की पुष्टि नहीं हुई थी .
हारवर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है गर्भस्थ कन्या भ्रूण के मामलों में पैकेज्ड फ़ूड में रिसकर पहुंचा एक रसायन बिस्फिनोल ए व्यवहार सम्बन्धी दिक्कतें उनके तीन साला होते होते खड़ी कर देता है .बिस्फिनोल ए प्लास्टिक उत्पादों का एक आम घटक है .यह प्लास्टिक को कठोर बनाने के लिए काम में लिया जाता है .जिन डिब्बों और बोतलों का स्तेमाल खाद्य सामिग्री के भंडारण में किया जाता है उनका अंदरूनी स्तर इनर लाइनिंग ,चाक़ू और फोर्क्स के सिरों पर यह सत्यानाशी रसायन बिस्फिनोल ए मिला है जो लड़कियों में जेंडर बेनदर (लड़कियों का लड़कों की तरह व्यवहार ,लड़कों से कपडे पहन सजना धजना ,जेंडर भेद को धुंधला कर देता है .हारमोन केमिस्ट्री ,हारमोनों के सशाधन को प्रोसेसिंग को असर ग्रस्त करता है यह रसायन नतीज़न तीन साला होते होते लडकियां (कन्याएं )हाइपरएक्टिव तथा आक्रामक हो जातीं हैं .अध्ययन से यह भी पता चला है लडकों के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता है .
अपनी रिसर्च के तहत यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के साइंसदानों ने २४४ गर्भवती महिलाओं के शरीर में इस रसायन बिस्फिनोल ए के स्तरों का मिलान किया ,तुलना की रसायन के मौजूद स्तर की हरेक में .तीन नमूने इस एवज गर्भकाल में तथा एक प्रसव के वक्त लिया गया .इसकी जांच बिस्फिनोल के स्तर के लिए की गई .जब शिशु एक बरस के हो गए इनके शरीर में भी इसके स्तर की जांच की गई .अगले दो बरसों में भी ऐसी ही जांच की गई .इनके तीन साला होते ही इनकी माताओं से एक प्रश्नावली भरवाई गई .इस सर्वे में इन नौनिहालों के व्यवहार का ब्योरा जुटाया गया था .
पता चला लड़कियों के हाइपरएक्टिव ,अवसाद ग्रस्त ,आक्रामक ,बे -चैनी से ग्रस्त त्तथा अपने व्यवहार पर नियंतार्ण न होने की संभावना उन मामलों में ज्यादा थी जिनकी माताओं में गर्भकाल में बिस्फिनोल ए का स्तर अधिक मिला था .लेकिन लड़कों के मामले में ऐसे किसी अंतर सम्बन्ध की पुष्टि नहीं हुई थी .
सोमवार, 24 अक्तूबर 2011
जो किरण बेदी जी का इतिहास जानना चाहते हैं .
जो किरण बेदी जी का इतिहास जानना चाहते हैं .
जो किरण बेदी जी का इतिहास जानना चाहतें हैं उनके वंशज यदि खुशवंत जी के पिता से जिन्होनें भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी से भिन्न नहीं है वह पहले अपनी पात्रता बतलाएं .जब यह मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री थे इन्होनें क्या किया था समाज की बेहतरी के लिए .जब अँगरेज़ इस देश पर शाशन करते थे इनके पिता क्या करते थे ?इनके दादा क्या करते थे ?क्या अंग्रेजों की मुखबरी करते थे ?इस व्यक्ति के जीवन खण्डों की,जीवन इकाइयों जींस की आनुवंशिक जांच होनी चाहिए ,कहीं देश द्रोह के बीज तो मौजूद नहीं हैं ?यदि हाँ तो हमें दिग्विजय सिंह जी से कोई शिकायत नहीं है उस पंडित से ज़रूर शिकायत है जिसने इस व्यक्ति का नाम दिग्विजय रख दिया .जिसे न सिर्फ दिशाओं का कोई बोध है जो दिशा भ्रमित भी है .
उस महिला जिसने अपने व्यक्तिगत खर्च में किफायत बरत के शेष पैसा सामाजिक संस्था को दे दिया खुद कोई लाभ न उठाया ,जो दिशा च्युत व्यक्ति उसकी तुलना राजा से करता हो जिसने २ जी स्केम करके न सिर्फ देश को चूना लगाया अपने सम्बन्धियों को लाभ पहुंचाया .उस व्यक्ति को अंग्रजों का मुखबिर का वंशज न समझा जाए तो क्या समझा जाए .
जो किरण बेदी जी का इतिहास जानना चाहतें हैं उनके वंशज यदि खुशवंत जी के पिता से जिन्होनें भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी से भिन्न नहीं है वह पहले अपनी पात्रता बतलाएं .जब यह मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री थे इन्होनें क्या किया था समाज की बेहतरी के लिए .जब अँगरेज़ इस देश पर शाशन करते थे इनके पिता क्या करते थे ?इनके दादा क्या करते थे ?क्या अंग्रेजों की मुखबरी करते थे ?इस व्यक्ति के जीवन खण्डों की,जीवन इकाइयों जींस की आनुवंशिक जांच होनी चाहिए ,कहीं देश द्रोह के बीज तो मौजूद नहीं हैं ?यदि हाँ तो हमें दिग्विजय सिंह जी से कोई शिकायत नहीं है उस पंडित से ज़रूर शिकायत है जिसने इस व्यक्ति का नाम दिग्विजय रख दिया .जिसे न सिर्फ दिशाओं का कोई बोध है जो दिशा भ्रमित भी है .
उस महिला जिसने अपने व्यक्तिगत खर्च में किफायत बरत के शेष पैसा सामाजिक संस्था को दे दिया खुद कोई लाभ न उठाया ,जो दिशा च्युत व्यक्ति उसकी तुलना राजा से करता हो जिसने २ जी स्केम करके न सिर्फ देश को चूना लगाया अपने सम्बन्धियों को लाभ पहुंचाया .उस व्यक्ति को अंग्रजों का मुखबिर का वंशज न समझा जाए तो क्या समझा जाए .
क्या है 'ओंकोप्लास्टिक ब्रेस्ट कंज़र्वेशन '?
क्या है 'ओंकोप्लास्टिक ब्रेस्ट कंज़र्वेशन '?
आपको बतला दें ओन्कोलोजी कैंसर विद्या ,कैंसर रोग के अध्ययन का विज्ञान है .इसके माहिर को ओंकोलोजिस्त कहा जाता है .जीने की ललक ,जिजीविषा आदमी की मूल ,आदिम प्रवृत्ति है .कैंसर मरीज़ भी इसका अपवाद नहीं हैं .जल्दी शिनाख्त रोग निदान होने पर कैंसर मरीजों को बचा लिया जाता है .७०%स्तन कैंसर के ऐसे ही मामलों में ट्यूमर से निजात मिलने ,रोग मुक्त होने के बाद महिलाएं सौन्दर्य बोध शल्य (एस्थेटिक सर्जरी )के लिए आगे आतीं हैं .
इसी ज़रूरीयात को पूरी करने के लिए अब अधिकाधिक कैंसर सर्जन कोस्मेटिक सर्जरी में भी माहिरी हासिल करने को उत्सुक हैं .पहल करतें हैं इस दिशा में .ताकि एस्थेटिक सर्जरी की बढती हुई मांग के अनुरूप कोस्मेटिक सर्जन उपलब्ध हो सकें .
कैंसर शल्य के साथ प्लास्टिक सर्जरी की अधुनातन तकनीकों का संयोग ,मेलमिलाप ,संयोजन ही आज 'ओंकोप्लास्टिक ब्रेस्ट कंज़र्वेशन 'के रूप में जाना जाने लगा है .भारत के शहराती कैंसर केन्द्रों में इसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी है गत पांच सात सालों से यह प्रोसीज़र पश्चिम के विकसित देशों में खासा लोकप्रिय होता गया है .भारतीय मरीज़ और कैंसर शल्य के माहिर भी इसका गर्मजोशी से स्वागत कर रहें हैं .
क्या है यह ओंकोप्लास्टिक प्रोसीज़र (कैंसर प्लास्टिक शल्य तरकीब )?
इसके तहत सबसे पहले कैंसर ग्रस्त संक्राम्य ऊतकों अर्बुद या मलिग्नेंत ट्यूमर को हटाया जाता है .अब स्तनों की आकृति में इस प्रोसीज़र से पैदा हुए विरूपण को दूर किया जाता है .कोशिश की जाती है हर मायने में वक्षस्थल पहले जैसा आकार रूप लावण्य आकर्षण ग्रहण कर ले .कह सकतें हैं यह खोये हुए सौन्दर्य ब्रेस्ट प्रोजेक्शन की पुनरप्राप्ति ही है .निरापद है यह प्रोसीज़र जिसके अच्छे नतीजे मिल रहें हैं यही कहना है कोकिलाबेन अस्पताल के माहिर डॉ मनडॉर नाडकर्णी साहब का .इसी निरापदता के चलते टाटा मेमोरियल अस्पताल ,परेल में उन ७०%मरिज़ाओं में से जो समय रहते रोगनिदान हो जाने से रोगमुक्त होकर ब्रेस्ट कंज़र्वेशन अपनातीं हैं ,उनमे से २५%ओंकोप्लास्टिक सर्जरी भी करवा रहीं हैं .
आखिर विरूपण के साथ जीना कौन चाहता है इससे अच्छा तो स्तनों की सम्पूर्ण तराशी को समझती हैं महिलाएं .देह यष्टि का अपना एक सौन्दर्य शाश्त्र और देह-अभिमान है ,मनोजगत है .पुनर्वास के लिए भी यह ज़रूरी है .ज़िन्दगी कभी खत्म नहीं होती है .ज़िन्दगी जिंदा दिली का नाम है ,मुर्दा दिल क्या ख़ाक जियेंगें ?
गौर तलब है "Lumpectomy"कैंसर गांठ उन्मूलन के बाद औरत रोज़ -बा -रोज़ दागदार विरूप स्तनों को देख कर दुखी होती है .आखिर चमचमाती गाडी में डेंट पड़ना किसे सुहाता है ?सौन्दर्यबोध प्लास्टिक सर्जन के सधे हुए हाथ स्तनों के ऊतकों को ही करामाती हरकत में लाकर शल्य से पैदा गह्वरों और दरारों ब्रेस्ट केविटी को करीने से भर देतें हैं .इसका हु -बा -हु मिलान ,अलाइन्मेन्त स्वस्थ रोग रहित स्तन जैसा ही कर लिया जाता है .सम्पूर्णता का यही एहसास महिलाओं को इसकी पहल के लिए आगे ला रहा है .मजेदार बात यह है दोनों प्रोसीज़र साथ -साथ एक ही ओपरेशन टेबिल पर संपन्न कर लिए जातें हैं .एस एल रहेजा तथा लीलावती अस्पताल में भी यह प्रोसीज़र संपन्न किया जारहा है .
बेशक यह विद्या अभी अपनी शैशव अवस्था में ही है .ले देकर दस सर्जन ही इस विद्या के माहिर हैं .सुनिश्चित कर लिया जाता है रेडियोलोजिकल (विकिरण वैज्ञानिक )तथा नैदानिक (क्लिनिकल असेसमेंट )जायजा लेकर किसे माफिक आयेगा यह प्रोसीज़र किसे नहीं .हड़बड़ी में कुछ नहीं किया जाता है .मकसद हैरोग मुक्ति के बाद मानसिक रुग्णता से मुक्ति दिलवाना .कैंसर सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी का रचनात्मक खूबसूरत संयोग है ओंकोप्लास्टिक प्रोसीज़र .स्तन तराशी (Mastectomy)के बाद की गई पुनरसंरचनात्मक शल्य (रीकंस्ट्रक्शन सर्जरी )से सर्वथा भिन्न है यह शल्यप्राविधि . स्वजातीय ऊतकों (होमोलोगस टिश्यु )मरीजा के अपने ही ऊतकों का स्तेमाल किया जाता है शल्य से पैदा दरारों ब्रेट्स केवितीज़ और विरूपण को भरने में .
.रेडियेशन का लाजिमी तौर पर स्तेमाल किया जाता है इस प्राविधि में .ब्रेस्ट कंज़र्वेशन के बाद जो मरीज़ ओंकोप्लास्टिक प्रोसीज़र के लिए आगे आता है उसके लिए रेडियेशन मेंडेत्री है अपरिहार्य है .इसलिए मरीजों की सावधानी पूर्वकही छंटनी की जाती है .देखना पड़ता है किसे क्या माफिक आता है .आयेगा भी या नहीं .
जिनका रोग फिर लौट आता है उन्हें फिर स्तन तराशी करवानी पड़ती है .
कैंसर इलाज़ की कुल कीमत बढ़कर ढाई से तीन गुना आती है प्राइवेट अस्पतालों में .इस प्रोसीज़र के साथ .
ram ram bhai
रविवार, २३ अक्तूबर २०११
क्या है डिजिटल मेमोग्राफी आंकड़ों को अंकों में दर्शाने वाली प्रणाली
क्या है डिजिटल मेमोग्राफी आंकड़ों को अंकों में दर्शाने वाली प्रणाली जो वक्षस्थल के ऊतकों का विभेदन करती है .स्वस्थ ऊतकों को कैंसरयुक्त होते ऊतकों से अलग दर्शाती है .ऊतकों का अंकीय दर्शन करवाती है .
हम जान गए हैं मेमोग्राम एक्स रे होता है स्तनों का जिसे उतारने के लिए स्तनों को दो रेदियोल्युसेंत प्लेटों के बीच अलग अलग स्थितियों और दशाओं में संपीडित या कम्प्रेस करके पहले फ्लेट किया जाता है फिर एक्स रे विकिरण की बरसात की जाती है .बौछार की जाती है .ब्रेस्ट कैंसर की समय रहते जल्दी शिनाख्त करने में मेमोग्रेफी की बड़ी भूमिका रहती है .स्तनों के ऊतकों में होने वाले सूक्ष्मतर बदलावों का इस तकनीक से पता लगा लिया जाता है .यही शुरूआती संकेत या लक्षण होतें हैं ब्रेस्ट कैंसर के जो नामालूम बने रहतें हैं बरसों जब तक पता चलता है बहुत देर हो चुकी होती है .
फुल फील्ड डिजिटल मेमोग्राफी ने इस शिनाख्त को एक नै परवाज़ नया क्षितिज मुहैया करवाया है .
इस के तहत कम्प्यूटरों के अलावा विशेष तौर पर गढ़े गए संसूचकों या डिटेकटर काम में लिए जातें हैं .ऊतकों का सारा कच्चा चिठ्ठा इस तरकीब में एक उच्च विभेदन क्षमता के धनी कंप्यूटर मोनिटर पर हाज़िर हो जाता है .इसका आगे सम्प्रेषण भी हो जाता है फ़ाइल भी तैयार हो जाती है .संरक्षण और भंडारण हो जाता है एहम सूचना का फाइलों में .
मेमो पैड्स की मौजूदगी इस तकनीक को परम्परा गत मेमोग्रेफी के बरक्स तकरीबन पीड़ा रहित ही बना देती है .इसमें मुलायम फोम के गद्देदार पैड्स का स्तेमाल किया जाता है .रूर बतलाएं
अलबता कुछ बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
(१)मासिक स्राव समाप्त होने के एक हफ्ता बाद यदि यह प्रोसीज़र करवाया जाए तब यह तकरीबन पीड़ा रहित साबित होता है .दर्द की तीव्रता और भी कम रह जाती है इस वक्फे में .
(२)जहां भी यह सुविधा उपलब्ध है आपका हक़ बनता है आप मेमोपैड्स की उपलब्धता अनुपलब्धता के बारे में दरयाफ्त करें .इनकी मौजूदगी दर्द को खासा घटा देती है .
(३)जिस दिन यह परीक्षण या जांच करवानी हो वक्ष स्थल और कांख के गिर्द किसी किस्म का दुर्गन्धनाशी ,पसीनारोधी स्तेमाल में न लें .
(४)अपना पहले का पूरा मेडिकल रिकोर्ड साथ रखें जांच के वक्त दिखलाने के लिए पुरानी फ़िल्में आदि साथ ले जाएं .
(५)गर्भावस्था की यदि जरा भी संभावना आपको लगती है तो इसकी इत्तला अपने रेडियोविज्ञानी को ज़रूर दें .
(६)यदि ब्रेस्ट्स पर स्कार्स या मुंहासे आदि हैं तो उनके बारे में भी ज़रूर बतलाएं .
(७)पूर्व में संपन्न बायोप्सी या किसी भी किस्म की यदि सर्जरी करवाई गई है तो उसकी इत्तला भी दें .
रविवार, २३ अक्तूबर २०११
स्क्रीनिंग बनाम रोगनैदानिक मेमोग्रेफी (Screening vs diagnostic mammography).
प्रतिबिम्बन तरकीबों इमेजिंग टेक्नीक्स द्वारा वक्षस्थल (दोनों स्तनों )का अध्ययन मेमोग्राफी कहलाता है .आम तौर पर इस हेतु एक्स रेज़ का ही स्तेमाल किया जाता है .एक्स रे उतारते वक्त रेडियोल्यूसेंट प्लेटों के बीच स्तनों को संपीडित (कम्प्रेस )करना पड़ता है .अब कोमल ऊतकों के बीच परस्पर भेद करने के लिए कम ऊर्जा एक्स किरणें वक्षस्थल पर डाली जातीं हैं .शिनाख्त और रोग निदान हेतु एक्स रेज़ आजमाई जातीं हैं .उम्र के मुताबिक़ कम या अधिक ऊर्जावान एक्स रेज़ काम में ली जातीं हैं .
बेशक जिन युवतियों के परिवार में स्तन कैंसर का पूर्ववृत्तांत फस्ट डिग्री रिलेतिव्ज़ माँ पिता बहिन भाई मौसी आदि में रहा आया है उनके लिए अल्ट्रासोनोग्रेफ़ी रोग निदान का बेहतर ज़रिया साबित होता है .इनकी ब्रेस्ट डेंसिटी (वक्षस्थल का घनत्व )अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है उम्र दराज़ औरतों के बरक्स .स्त्री रोग प्रसूति और स्रावी विज्ञान की माहिर ब्रीच केंडी अस्पताल की माहिर गीता पंडया ऐसा ही मानतीं हैं .
जब तक यह आशंका न पैदा हो जाए कि कुछ गलत है युवतियां स्केनिंगकरवाने की पहल ही नहीं करतीं हैं जबकि पंडया कहतीं हैं कि यदि महिला हाईरिश्क समूह में आती है तब नियमित सेल्फ चेक अप के अलवा चेक अप्स के लिए माहिर के पास भी पहुंचना चाहिए .
यहीं से स्क्रीनिंग एवं रोगनैदानिक मेमोग्रेफी की बात उठती है .
स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी एक्स रेज़ की कमतर बमबारी से ही कर ली जाती है क्योंकि स्क्रीनिंग का काम स्तन द्रव्यमान में गहरे पैठकर गांठों ,लम्प्स की शिनाख्त करना नहीं है .केईएम् अस्पताल में रेडियोलोजी (विकिरण विज्ञान )के मुखिया डॉ हेमन्त देशमुख साहब स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी को उन महिलाओं के लिए सबसे अच्छा मानतें हैं जिनमे स्तन कैंसर के कैसे भी लक्षण प्रगट नहीं हुए हैं .
स्क्रीनिंग मेमोग्राम्स का काम केल्शियम के सूक्ष्म ज़माव का पता लगाना है .केल्शियम के टाइनी डिपोज़िट्स का पता लगाना है .कैंसर के वजूद को तस्दीक करना है इनकी शिनाख्त .होना .
लेकिन डायग्नोस्तिक मेमोग्राम्स उतारने के लिए अति -परिष्कृत मशीनों का स्तेमाल किया जाता है तब जब लम्प्स मौजूद हों स्तन कैंसर के अन्य लक्षणों का प्रगटीकरण होता हो .
ram ram bhai
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
आपको बतला दें ओन्कोलोजी कैंसर विद्या ,कैंसर रोग के अध्ययन का विज्ञान है .इसके माहिर को ओंकोलोजिस्त कहा जाता है .जीने की ललक ,जिजीविषा आदमी की मूल ,आदिम प्रवृत्ति है .कैंसर मरीज़ भी इसका अपवाद नहीं हैं .जल्दी शिनाख्त रोग निदान होने पर कैंसर मरीजों को बचा लिया जाता है .७०%स्तन कैंसर के ऐसे ही मामलों में ट्यूमर से निजात मिलने ,रोग मुक्त होने के बाद महिलाएं सौन्दर्य बोध शल्य (एस्थेटिक सर्जरी )के लिए आगे आतीं हैं .
इसी ज़रूरीयात को पूरी करने के लिए अब अधिकाधिक कैंसर सर्जन कोस्मेटिक सर्जरी में भी माहिरी हासिल करने को उत्सुक हैं .पहल करतें हैं इस दिशा में .ताकि एस्थेटिक सर्जरी की बढती हुई मांग के अनुरूप कोस्मेटिक सर्जन उपलब्ध हो सकें .
कैंसर शल्य के साथ प्लास्टिक सर्जरी की अधुनातन तकनीकों का संयोग ,मेलमिलाप ,संयोजन ही आज 'ओंकोप्लास्टिक ब्रेस्ट कंज़र्वेशन 'के रूप में जाना जाने लगा है .भारत के शहराती कैंसर केन्द्रों में इसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी है गत पांच सात सालों से यह प्रोसीज़र पश्चिम के विकसित देशों में खासा लोकप्रिय होता गया है .भारतीय मरीज़ और कैंसर शल्य के माहिर भी इसका गर्मजोशी से स्वागत कर रहें हैं .
क्या है यह ओंकोप्लास्टिक प्रोसीज़र (कैंसर प्लास्टिक शल्य तरकीब )?
इसके तहत सबसे पहले कैंसर ग्रस्त संक्राम्य ऊतकों अर्बुद या मलिग्नेंत ट्यूमर को हटाया जाता है .अब स्तनों की आकृति में इस प्रोसीज़र से पैदा हुए विरूपण को दूर किया जाता है .कोशिश की जाती है हर मायने में वक्षस्थल पहले जैसा आकार रूप लावण्य आकर्षण ग्रहण कर ले .कह सकतें हैं यह खोये हुए सौन्दर्य ब्रेस्ट प्रोजेक्शन की पुनरप्राप्ति ही है .निरापद है यह प्रोसीज़र जिसके अच्छे नतीजे मिल रहें हैं यही कहना है कोकिलाबेन अस्पताल के माहिर डॉ मनडॉर नाडकर्णी साहब का .इसी निरापदता के चलते टाटा मेमोरियल अस्पताल ,परेल में उन ७०%मरिज़ाओं में से जो समय रहते रोगनिदान हो जाने से रोगमुक्त होकर ब्रेस्ट कंज़र्वेशन अपनातीं हैं ,उनमे से २५%ओंकोप्लास्टिक सर्जरी भी करवा रहीं हैं .
आखिर विरूपण के साथ जीना कौन चाहता है इससे अच्छा तो स्तनों की सम्पूर्ण तराशी को समझती हैं महिलाएं .देह यष्टि का अपना एक सौन्दर्य शाश्त्र और देह-अभिमान है ,मनोजगत है .पुनर्वास के लिए भी यह ज़रूरी है .ज़िन्दगी कभी खत्म नहीं होती है .ज़िन्दगी जिंदा दिली का नाम है ,मुर्दा दिल क्या ख़ाक जियेंगें ?
गौर तलब है "Lumpectomy"कैंसर गांठ उन्मूलन के बाद औरत रोज़ -बा -रोज़ दागदार विरूप स्तनों को देख कर दुखी होती है .आखिर चमचमाती गाडी में डेंट पड़ना किसे सुहाता है ?सौन्दर्यबोध प्लास्टिक सर्जन के सधे हुए हाथ स्तनों के ऊतकों को ही करामाती हरकत में लाकर शल्य से पैदा गह्वरों और दरारों ब्रेस्ट केविटी को करीने से भर देतें हैं .इसका हु -बा -हु मिलान ,अलाइन्मेन्त स्वस्थ रोग रहित स्तन जैसा ही कर लिया जाता है .सम्पूर्णता का यही एहसास महिलाओं को इसकी पहल के लिए आगे ला रहा है .मजेदार बात यह है दोनों प्रोसीज़र साथ -साथ एक ही ओपरेशन टेबिल पर संपन्न कर लिए जातें हैं .एस एल रहेजा तथा लीलावती अस्पताल में भी यह प्रोसीज़र संपन्न किया जारहा है .
बेशक यह विद्या अभी अपनी शैशव अवस्था में ही है .ले देकर दस सर्जन ही इस विद्या के माहिर हैं .सुनिश्चित कर लिया जाता है रेडियोलोजिकल (विकिरण वैज्ञानिक )तथा नैदानिक (क्लिनिकल असेसमेंट )जायजा लेकर किसे माफिक आयेगा यह प्रोसीज़र किसे नहीं .हड़बड़ी में कुछ नहीं किया जाता है .मकसद हैरोग मुक्ति के बाद मानसिक रुग्णता से मुक्ति दिलवाना .कैंसर सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी का रचनात्मक खूबसूरत संयोग है ओंकोप्लास्टिक प्रोसीज़र .स्तन तराशी (Mastectomy)के बाद की गई पुनरसंरचनात्मक शल्य (रीकंस्ट्रक्शन सर्जरी )से सर्वथा भिन्न है यह शल्यप्राविधि . स्वजातीय ऊतकों (होमोलोगस टिश्यु )मरीजा के अपने ही ऊतकों का स्तेमाल किया जाता है शल्य से पैदा दरारों ब्रेट्स केवितीज़ और विरूपण को भरने में .
.रेडियेशन का लाजिमी तौर पर स्तेमाल किया जाता है इस प्राविधि में .ब्रेस्ट कंज़र्वेशन के बाद जो मरीज़ ओंकोप्लास्टिक प्रोसीज़र के लिए आगे आता है उसके लिए रेडियेशन मेंडेत्री है अपरिहार्य है .इसलिए मरीजों की सावधानी पूर्वकही छंटनी की जाती है .देखना पड़ता है किसे क्या माफिक आता है .आयेगा भी या नहीं .
जिनका रोग फिर लौट आता है उन्हें फिर स्तन तराशी करवानी पड़ती है .
कैंसर इलाज़ की कुल कीमत बढ़कर ढाई से तीन गुना आती है प्राइवेट अस्पतालों में .इस प्रोसीज़र के साथ .
ram ram bhai
रविवार, २३ अक्तूबर २०११
क्या है डिजिटल मेमोग्राफी आंकड़ों को अंकों में दर्शाने वाली प्रणाली
क्या है डिजिटल मेमोग्राफी आंकड़ों को अंकों में दर्शाने वाली प्रणाली जो वक्षस्थल के ऊतकों का विभेदन करती है .स्वस्थ ऊतकों को कैंसरयुक्त होते ऊतकों से अलग दर्शाती है .ऊतकों का अंकीय दर्शन करवाती है .
हम जान गए हैं मेमोग्राम एक्स रे होता है स्तनों का जिसे उतारने के लिए स्तनों को दो रेदियोल्युसेंत प्लेटों के बीच अलग अलग स्थितियों और दशाओं में संपीडित या कम्प्रेस करके पहले फ्लेट किया जाता है फिर एक्स रे विकिरण की बरसात की जाती है .बौछार की जाती है .ब्रेस्ट कैंसर की समय रहते जल्दी शिनाख्त करने में मेमोग्रेफी की बड़ी भूमिका रहती है .स्तनों के ऊतकों में होने वाले सूक्ष्मतर बदलावों का इस तकनीक से पता लगा लिया जाता है .यही शुरूआती संकेत या लक्षण होतें हैं ब्रेस्ट कैंसर के जो नामालूम बने रहतें हैं बरसों जब तक पता चलता है बहुत देर हो चुकी होती है .
फुल फील्ड डिजिटल मेमोग्राफी ने इस शिनाख्त को एक नै परवाज़ नया क्षितिज मुहैया करवाया है .
इस के तहत कम्प्यूटरों के अलावा विशेष तौर पर गढ़े गए संसूचकों या डिटेकटर काम में लिए जातें हैं .ऊतकों का सारा कच्चा चिठ्ठा इस तरकीब में एक उच्च विभेदन क्षमता के धनी कंप्यूटर मोनिटर पर हाज़िर हो जाता है .इसका आगे सम्प्रेषण भी हो जाता है फ़ाइल भी तैयार हो जाती है .संरक्षण और भंडारण हो जाता है एहम सूचना का फाइलों में .
मेमो पैड्स की मौजूदगी इस तकनीक को परम्परा गत मेमोग्रेफी के बरक्स तकरीबन पीड़ा रहित ही बना देती है .इसमें मुलायम फोम के गद्देदार पैड्स का स्तेमाल किया जाता है .रूर बतलाएं
अलबता कुछ बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
(१)मासिक स्राव समाप्त होने के एक हफ्ता बाद यदि यह प्रोसीज़र करवाया जाए तब यह तकरीबन पीड़ा रहित साबित होता है .दर्द की तीव्रता और भी कम रह जाती है इस वक्फे में .
(२)जहां भी यह सुविधा उपलब्ध है आपका हक़ बनता है आप मेमोपैड्स की उपलब्धता अनुपलब्धता के बारे में दरयाफ्त करें .इनकी मौजूदगी दर्द को खासा घटा देती है .
(३)जिस दिन यह परीक्षण या जांच करवानी हो वक्ष स्थल और कांख के गिर्द किसी किस्म का दुर्गन्धनाशी ,पसीनारोधी स्तेमाल में न लें .
(४)अपना पहले का पूरा मेडिकल रिकोर्ड साथ रखें जांच के वक्त दिखलाने के लिए पुरानी फ़िल्में आदि साथ ले जाएं .
(५)गर्भावस्था की यदि जरा भी संभावना आपको लगती है तो इसकी इत्तला अपने रेडियोविज्ञानी को ज़रूर दें .
(६)यदि ब्रेस्ट्स पर स्कार्स या मुंहासे आदि हैं तो उनके बारे में भी ज़रूर बतलाएं .
(७)पूर्व में संपन्न बायोप्सी या किसी भी किस्म की यदि सर्जरी करवाई गई है तो उसकी इत्तला भी दें .
रविवार, २३ अक्तूबर २०११
स्क्रीनिंग बनाम रोगनैदानिक मेमोग्रेफी (Screening vs diagnostic mammography).
प्रतिबिम्बन तरकीबों इमेजिंग टेक्नीक्स द्वारा वक्षस्थल (दोनों स्तनों )का अध्ययन मेमोग्राफी कहलाता है .आम तौर पर इस हेतु एक्स रेज़ का ही स्तेमाल किया जाता है .एक्स रे उतारते वक्त रेडियोल्यूसेंट प्लेटों के बीच स्तनों को संपीडित (कम्प्रेस )करना पड़ता है .अब कोमल ऊतकों के बीच परस्पर भेद करने के लिए कम ऊर्जा एक्स किरणें वक्षस्थल पर डाली जातीं हैं .शिनाख्त और रोग निदान हेतु एक्स रेज़ आजमाई जातीं हैं .उम्र के मुताबिक़ कम या अधिक ऊर्जावान एक्स रेज़ काम में ली जातीं हैं .
बेशक जिन युवतियों के परिवार में स्तन कैंसर का पूर्ववृत्तांत फस्ट डिग्री रिलेतिव्ज़ माँ पिता बहिन भाई मौसी आदि में रहा आया है उनके लिए अल्ट्रासोनोग्रेफ़ी रोग निदान का बेहतर ज़रिया साबित होता है .इनकी ब्रेस्ट डेंसिटी (वक्षस्थल का घनत्व )अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है उम्र दराज़ औरतों के बरक्स .स्त्री रोग प्रसूति और स्रावी विज्ञान की माहिर ब्रीच केंडी अस्पताल की माहिर गीता पंडया ऐसा ही मानतीं हैं .
जब तक यह आशंका न पैदा हो जाए कि कुछ गलत है युवतियां स्केनिंगकरवाने की पहल ही नहीं करतीं हैं जबकि पंडया कहतीं हैं कि यदि महिला हाईरिश्क समूह में आती है तब नियमित सेल्फ चेक अप के अलवा चेक अप्स के लिए माहिर के पास भी पहुंचना चाहिए .
यहीं से स्क्रीनिंग एवं रोगनैदानिक मेमोग्रेफी की बात उठती है .
स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी एक्स रेज़ की कमतर बमबारी से ही कर ली जाती है क्योंकि स्क्रीनिंग का काम स्तन द्रव्यमान में गहरे पैठकर गांठों ,लम्प्स की शिनाख्त करना नहीं है .केईएम् अस्पताल में रेडियोलोजी (विकिरण विज्ञान )के मुखिया डॉ हेमन्त देशमुख साहब स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी को उन महिलाओं के लिए सबसे अच्छा मानतें हैं जिनमे स्तन कैंसर के कैसे भी लक्षण प्रगट नहीं हुए हैं .
स्क्रीनिंग मेमोग्राम्स का काम केल्शियम के सूक्ष्म ज़माव का पता लगाना है .केल्शियम के टाइनी डिपोज़िट्स का पता लगाना है .कैंसर के वजूद को तस्दीक करना है इनकी शिनाख्त .होना .
लेकिन डायग्नोस्तिक मेमोग्राम्स उतारने के लिए अति -परिष्कृत मशीनों का स्तेमाल किया जाता है तब जब लम्प्स मौजूद हों स्तन कैंसर के अन्य लक्षणों का प्रगटीकरण होता हो .
ram ram bhai
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
रविवार, 23 अक्तूबर 2011
क्या है डिजिटल मेमोग्राफी आंकड़ों को अंकों में दर्शाने वाली प्रणाली
क्या है डिजिटल मेमोग्राफी आंकड़ों को अंकों में दर्शाने वाली प्रणाली जो वक्षस्थल के ऊतकों का विभेदन करती है .स्वस्थ ऊतकों को कैंसरयुक्त होते ऊतकों से अलग दर्शाती है .ऊतकों का अंकीय दर्शन करवाती है .
हम जान गए हैं मेमोग्राम एक्स रे होता है स्तनों का जिसे उतारने के लिए स्तनों को दो रेदियोल्युसेंत प्लेटों के बीच अलग अलग स्थितियों और दशाओं में संपीडित या कम्प्रेस करके पहले फ्लेट किया जाता है फिर एक्स रे विकिरण की बरसात की जाती है .बौछार की जाती है .ब्रेस्ट कैंसर की समय रहते जल्दी शिनाख्त करने में मेमोग्रेफी की बड़ी भूमिका रहती है .स्तनों के ऊतकों में होने वाले सूक्ष्मतर बदलावों का इस तकनीक से पता लगा लिया जाता है .यही शुरूआती संकेत या लक्षण होतें हैं ब्रेस्ट कैंसर के जो नामालूम बने रहतें हैं बरसों जब तक पता चलता है बहुत देर हो चुकी होती है .
फुल फील्ड डिजिटल मेमोग्राफी ने इस शिनाख्त को एक नै परवाज़ नया क्षितिज मुहैया करवाया है .
इस के तहत कम्प्यूटरों के अलावा विशेष तौर पर गढ़े गए संसूचकों या डिटेकटर काम में लिए जातें हैं .ऊतकों का सारा कच्चा चिठ्ठा इस तरकीब में एक उच्च विभेदन क्षमता के धनी कंप्यूटर मोनिटर पर हाज़िर हो जाता है .इसका आगे सम्प्रेषण भी हो जाता है फ़ाइल भी तैयार हो जाती है .संरक्षण और भंडारण हो जाता है एहम सूचना का फाइलों में .
मेमो पैड्स की मौजूदगी इस तकनीक को परम्परा गत मेमोग्रेफी के बरक्स तकरीबन पीड़ा रहित ही बना देती है .इसमें मुलायम फोम के गद्देदार पैड्स का स्तेमाल किया जाता है .रूर बतलाएं
अलबता कुछ बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
(१)मासिक स्राव समाप्त होने के एक हफ्ता बाद यदि यह प्रोसीज़र करवाया जाए तब यह तकरीबन पीड़ा रहित साबित होता है .दर्द की तीव्रता और भी कम रह जाती है इस वक्फे में .
(२)जहां भी यह सुविधा उपलब्ध है आपका हक़ बनता है आप मेमोपैड्स की उपलब्धता अनुपलब्धता के बारे में दरयाफ्त करें .इनकी मौजूदगी दर्द को खासा घटा देती है .
(३)जिस दिन यह परीक्षण या जांच करवानी हो वक्ष स्थल और कांख के गिर्द किसी किस्म का दुर्गन्धनाशी ,पसीनारोधी स्तेमाल में न लें .
(४)अपना पहले का पूरा मेडिकल रिकोर्ड साथ रखें जांच के वक्त दिखलाने के लिए पुरानी फ़िल्में आदि साथ ले जाएं .
(५)गर्भावस्था की यदि जरा भी संभावना आपको लगती है तो इसकी इत्तला अपने रेडियोविज्ञानी को ज़रूर दें .
(६)यदि ब्रेस्ट्स पर स्कार्स या मुंहासे आदि हैं तो उनके बारे में भी ज़रूर बतलाएं .
(७)पूर्व में संपन्न बायोप्सी या किसी भी किस्म की यदि सर्जरी करवाई गई है तो उसकी इत्तला भी दें .
रविवार, २३ अक्तूबर २०११
स्क्रीनिंग बनाम रोगनैदानिक मेमोग्रेफी (Screening vs diagnostic mammography).
प्रतिबिम्बन तरकीबों इमेजिंग टेक्नीक्स द्वारा वक्षस्थल (दोनों स्तनों )का अध्ययन मेमोग्राफी कहलाता है .आम तौर पर इस हेतु एक्स रेज़ का ही स्तेमाल किया जाता है .एक्स रे उतारते वक्त रेडियोल्यूसेंट प्लेटों के बीच स्तनों को संपीडित (कम्प्रेस )करना पड़ता है .अब कोमल ऊतकों के बीच परस्पर भेद करने के लिए कम ऊर्जा एक्स किरणें वक्षस्थल पर डाली जातीं हैं .शिनाख्त और रोग निदान हेतु एक्स रेज़ आजमाई जातीं हैं .उम्र के मुताबिक़ कम या अधिक ऊर्जावान एक्स रेज़ काम में ली जातीं हैं .
बेशक जिन युवतियों के परिवार में स्तन कैंसर का पूर्ववृत्तांत फस्ट डिग्री रिलेतिव्ज़ माँ पिता बहिन भाई मौसी आदि में रहा आया है उनके लिए अल्ट्रासोनोग्रेफ़ी रोग निदान का बेहतर ज़रिया साबित होता है .इनकी ब्रेस्ट डेंसिटी (वक्षस्थल का घनत्व )अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है उम्र दराज़ औरतों के बरक्स .स्त्री रोग प्रसूति और स्रावी विज्ञान की माहिर ब्रीच केंडी अस्पताल की माहिर गीता पंडया ऐसा ही मानतीं हैं .
जब तक यह आशंका न पैदा हो जाए कि कुछ गलत है युवतियां स्केनिंगकरवाने की पहल ही नहीं करतीं हैं जबकि पंडया कहतीं हैं कि यदि महिला हाईरिश्क समूह में आती है तब नियमित सेल्फ चेक अप के अलवा चेक अप्स के लिए माहिर के पास भी पहुंचना चाहिए .
यहीं से स्क्रीनिंग एवं रोगनैदानिक मेमोग्रेफी की बात उठती है .
स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी एक्स रेज़ की कमतर बमबारी से ही कर ली जाती है क्योंकि स्क्रीनिंग का काम स्तन द्रव्यमान में गहरे पैठकर गांठों ,लम्प्स की शिनाख्त करना नहीं है .केईएम् अस्पताल में रेडियोलोजी (विकिरण विज्ञान )के मुखिया डॉ हेमन्त देशमुख साहब स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी को उन महिलाओं के लिए सबसे अच्छा मानतें हैं जिनमे स्तन कैंसर के कैसे भी लक्षण प्रगट नहीं हुए हैं .
स्क्रीनिंग मेमोग्राम्स का काम केल्शियम के सूक्ष्म ज़माव का पता लगाना है .केल्शियम के टाइनी डिपोज़िट्स का पता लगाना है .कैंसर के वजूद को तस्दीक करना है इनकी शिनाख्त .होना .
लेकिन डायग्नोस्तिक मेमोग्राम्स उतारने के लिए अति -परिष्कृत मशीनों का स्तेमाल किया जाता है तब जब लम्प्स मौजूद हों स्तन कैंसर के अन्य लक्षणों का प्रगटीकरण होता हो .
ram ram bhai
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
हम जान गए हैं मेमोग्राम एक्स रे होता है स्तनों का जिसे उतारने के लिए स्तनों को दो रेदियोल्युसेंत प्लेटों के बीच अलग अलग स्थितियों और दशाओं में संपीडित या कम्प्रेस करके पहले फ्लेट किया जाता है फिर एक्स रे विकिरण की बरसात की जाती है .बौछार की जाती है .ब्रेस्ट कैंसर की समय रहते जल्दी शिनाख्त करने में मेमोग्रेफी की बड़ी भूमिका रहती है .स्तनों के ऊतकों में होने वाले सूक्ष्मतर बदलावों का इस तकनीक से पता लगा लिया जाता है .यही शुरूआती संकेत या लक्षण होतें हैं ब्रेस्ट कैंसर के जो नामालूम बने रहतें हैं बरसों जब तक पता चलता है बहुत देर हो चुकी होती है .
फुल फील्ड डिजिटल मेमोग्राफी ने इस शिनाख्त को एक नै परवाज़ नया क्षितिज मुहैया करवाया है .
इस के तहत कम्प्यूटरों के अलावा विशेष तौर पर गढ़े गए संसूचकों या डिटेकटर काम में लिए जातें हैं .ऊतकों का सारा कच्चा चिठ्ठा इस तरकीब में एक उच्च विभेदन क्षमता के धनी कंप्यूटर मोनिटर पर हाज़िर हो जाता है .इसका आगे सम्प्रेषण भी हो जाता है फ़ाइल भी तैयार हो जाती है .संरक्षण और भंडारण हो जाता है एहम सूचना का फाइलों में .
मेमो पैड्स की मौजूदगी इस तकनीक को परम्परा गत मेमोग्रेफी के बरक्स तकरीबन पीड़ा रहित ही बना देती है .इसमें मुलायम फोम के गद्देदार पैड्स का स्तेमाल किया जाता है .रूर बतलाएं
अलबता कुछ बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
(१)मासिक स्राव समाप्त होने के एक हफ्ता बाद यदि यह प्रोसीज़र करवाया जाए तब यह तकरीबन पीड़ा रहित साबित होता है .दर्द की तीव्रता और भी कम रह जाती है इस वक्फे में .
(२)जहां भी यह सुविधा उपलब्ध है आपका हक़ बनता है आप मेमोपैड्स की उपलब्धता अनुपलब्धता के बारे में दरयाफ्त करें .इनकी मौजूदगी दर्द को खासा घटा देती है .
(३)जिस दिन यह परीक्षण या जांच करवानी हो वक्ष स्थल और कांख के गिर्द किसी किस्म का दुर्गन्धनाशी ,पसीनारोधी स्तेमाल में न लें .
(४)अपना पहले का पूरा मेडिकल रिकोर्ड साथ रखें जांच के वक्त दिखलाने के लिए पुरानी फ़िल्में आदि साथ ले जाएं .
(५)गर्भावस्था की यदि जरा भी संभावना आपको लगती है तो इसकी इत्तला अपने रेडियोविज्ञानी को ज़रूर दें .
(६)यदि ब्रेस्ट्स पर स्कार्स या मुंहासे आदि हैं तो उनके बारे में भी ज़रूर बतलाएं .
(७)पूर्व में संपन्न बायोप्सी या किसी भी किस्म की यदि सर्जरी करवाई गई है तो उसकी इत्तला भी दें .
रविवार, २३ अक्तूबर २०११
स्क्रीनिंग बनाम रोगनैदानिक मेमोग्रेफी (Screening vs diagnostic mammography).
प्रतिबिम्बन तरकीबों इमेजिंग टेक्नीक्स द्वारा वक्षस्थल (दोनों स्तनों )का अध्ययन मेमोग्राफी कहलाता है .आम तौर पर इस हेतु एक्स रेज़ का ही स्तेमाल किया जाता है .एक्स रे उतारते वक्त रेडियोल्यूसेंट प्लेटों के बीच स्तनों को संपीडित (कम्प्रेस )करना पड़ता है .अब कोमल ऊतकों के बीच परस्पर भेद करने के लिए कम ऊर्जा एक्स किरणें वक्षस्थल पर डाली जातीं हैं .शिनाख्त और रोग निदान हेतु एक्स रेज़ आजमाई जातीं हैं .उम्र के मुताबिक़ कम या अधिक ऊर्जावान एक्स रेज़ काम में ली जातीं हैं .
बेशक जिन युवतियों के परिवार में स्तन कैंसर का पूर्ववृत्तांत फस्ट डिग्री रिलेतिव्ज़ माँ पिता बहिन भाई मौसी आदि में रहा आया है उनके लिए अल्ट्रासोनोग्रेफ़ी रोग निदान का बेहतर ज़रिया साबित होता है .इनकी ब्रेस्ट डेंसिटी (वक्षस्थल का घनत्व )अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है उम्र दराज़ औरतों के बरक्स .स्त्री रोग प्रसूति और स्रावी विज्ञान की माहिर ब्रीच केंडी अस्पताल की माहिर गीता पंडया ऐसा ही मानतीं हैं .
जब तक यह आशंका न पैदा हो जाए कि कुछ गलत है युवतियां स्केनिंगकरवाने की पहल ही नहीं करतीं हैं जबकि पंडया कहतीं हैं कि यदि महिला हाईरिश्क समूह में आती है तब नियमित सेल्फ चेक अप के अलवा चेक अप्स के लिए माहिर के पास भी पहुंचना चाहिए .
यहीं से स्क्रीनिंग एवं रोगनैदानिक मेमोग्रेफी की बात उठती है .
स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी एक्स रेज़ की कमतर बमबारी से ही कर ली जाती है क्योंकि स्क्रीनिंग का काम स्तन द्रव्यमान में गहरे पैठकर गांठों ,लम्प्स की शिनाख्त करना नहीं है .केईएम् अस्पताल में रेडियोलोजी (विकिरण विज्ञान )के मुखिया डॉ हेमन्त देशमुख साहब स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी को उन महिलाओं के लिए सबसे अच्छा मानतें हैं जिनमे स्तन कैंसर के कैसे भी लक्षण प्रगट नहीं हुए हैं .
स्क्रीनिंग मेमोग्राम्स का काम केल्शियम के सूक्ष्म ज़माव का पता लगाना है .केल्शियम के टाइनी डिपोज़िट्स का पता लगाना है .कैंसर के वजूद को तस्दीक करना है इनकी शिनाख्त .होना .
लेकिन डायग्नोस्तिक मेमोग्राम्स उतारने के लिए अति -परिष्कृत मशीनों का स्तेमाल किया जाता है तब जब लम्प्स मौजूद हों स्तन कैंसर के अन्य लक्षणों का प्रगटीकरण होता हो .
ram ram bhai
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
स्क्रीनिंग बनाम रोगनैदानिक मेमोग्रेफी (Screening vs diagnostic mammography).
स्क्रीनिंग बनाम रोगनैदानिक मेमोग्रेफी (Screening vs diagnostic mammography).
प्रतिबिम्बन तरकीबों इमेजिंग टेक्नीक्स द्वारा वक्षस्थल (दोनों स्तनों )का अध्ययन मेमोग्राफी कहलाता है .आम तौर पर इस हेतु एक्स रेज़ का ही स्तेमाल किया जाता है .एक्स रे उतारते वक्त रेडियोल्यूसेंट प्लेटों के बीच स्तनों को संपीडित (कम्प्रेस )करना पड़ता है .अब कोमल ऊतकों के बीच परस्पर भेद करने के लिए कम ऊर्जा एक्स किरणें वक्षस्थल पर डाली जातीं हैं .शिनाख्त और रोग निदान हेतु एक्स रेज़ आजमाई जातीं हैं .उम्र के मुताबिक़ कम या अधिक ऊर्जावान एक्स रेज़ काम में ली जातीं हैं .
बेशक जिन युवतियों के परिवार में स्तन कैंसर का पूर्ववृत्तांत फस्ट डिग्री रिलेतिव्ज़ माँ पिता बहिन भाई मौसी आदि में रहा आया है उनके लिए अल्ट्रासोनोग्रेफ़ी रोग निदान का बेहतर ज़रिया साबित होता है .इनकी ब्रेस्ट डेंसिटी (वक्षस्थल का घनत्व )अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है उम्र दराज़ औरतों के बरक्स .स्त्री रोग प्रसूति और स्रावी विज्ञान की माहिर ब्रीच केंडी अस्पताल की माहिर गीता पंडया ऐसा ही मानतीं हैं .
जब तक यह आशंका न पैदा हो जाए कि कुछ गलत है युवतियां स्केनिंगकरवाने की पहल ही नहीं करतीं हैं जबकि पंडया कहतीं हैं कि यदि महिला हाईरिश्क समूह में आती है तब नियमित सेल्फ चेक अप के अलवा चेक अप्स के लिए माहिर के पास भी पहुंचना चाहिए .
यहीं से स्क्रीनिंग एवं रोगनैदानिक मेमोग्रेफी की बात उठती है .
स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी एक्स रेज़ की कमतर बमबारी से ही कर ली जाती है क्योंकि स्क्रीनिंग का काम स्तन द्रव्यमान में गहरे पैठकर गांठों ,लम्प्स की शिनाख्त करना नहीं है .केईएम् अस्पताल में रेडियोलोजी (विकिरण विज्ञान )के मुखिया डॉ हेमन्त देशमुख साहब स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी को उन महिलाओं के लिए सबसे अच्छा मानतें हैं जिनमे स्तन कैंसर के कैसे भी लक्षण प्रगट नहीं हुए हैं .
स्क्रीनिंग मेमोग्राम्स का काम केल्शियम के सूक्ष्म ज़माव का पता लगाना है .केल्शियम के टाइनी डिपोज़िट्स का पता लगाना है .कैंसर के वजूद को तस्दीक करना है इनकी शिनाख्त .होना .
लेकिन डायग्नोस्तिक मेमोग्राम्स उतारने के लिए अति -परिष्कृत मशीनों का स्तेमाल किया जाता है तब जब लम्प्स मौजूद हों स्तन कैंसर के अन्य लक्षणों का प्रगटीकरण होता हो .
ram ram bhai
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
ram ram bhai
स्तन कैंसर से जुड़े कुछ अर्थपूर्ण तथ्य
(१)यदि कैंसर का शुरूआती चरण में ही जल्दी से जल्दी पता चल जाए तब इससे पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना एक दम से बढ़ जाती है .माहिरों के अनुसार नतीजे इस बात से सीधे सीधे ताल्लुक ही नहीं रखते तय होतें हैं कि जिस समय स्तन कैंसर का इलाज़ शुरु किया गया उस वक्त अर्बुद (गांठ या ट्यूमर आकार में कित्ता था ,साइज़ क्या था कैंसर युक्त गांठ का ).
(२)ट्यूमर का आकार शुरूआती चरण में ही इलाज़ के वक्त केवल एक मिलीमीटर से भी कम व्यास (डायमीटर )का होने पर ९०%मामलों में बीस साल की औसतन मोहलत ,बचने की,बने रहनें ,ज़िंदा रहने की दर पैदा हो जाती है .
(३)लेकिन इलाज़ के वक्त ट्यूमर का डायमीटर ३ मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा बड़ा होने पर सर्वाइवल रेट घटके ५०%पर आजाती है .
(४)२०२० तक भारत में कैंसर के मामले अमरीका और योरोप के बराबर ही हो जायेंगे यानी सात में से एक औरत तब स्तन कैंसर की ज़द में होगी .(स्रोत :विश्वस्वास्थ्य संगठन की एक प्रागुक्ति ,एक अनुमान ,एक कयास ).
(५)शुरूआती चरण में स्तन कैंसर के किसी भी प्रकार के लक्षणों का प्रगटीकरण ही नहीं होता है .अ-लाक्षणिक ही बना रहता है यह दौर जिसे स्टेज जीरो भी कह सकते हैं जब चंद कोशाएं ही मरना भूल द्विगुणित होना आरम्भ करती हैं .
संभल जाइए यदि आपकी कांख (बगल या आर्म पिट/अंडरआर्म )में कोई गांठ मासिक स्राव के संपन्न होने पर भी बनी रहती है .बेशक इन गांठों में आमतौर पर कोई दर्द नहीं होता है लेकिन दर्द होने या इनके स्पर्श के प्रति अति -संवेदनशील होने टेंडरनेस महसूस होने पर इसकी भूल कर भी अनदेखी न करें .कैंसर के माहिर से फ़ौरन संपर्क करें .कुछ मामलों में प्रिकली सेंसेशन भी हो सकती है .बगल में सोजिश भी हो सकती है .
साइज़ और शेप चमड़ी की बुनावट टेक्सचर में अंतर दिखलाई दे सकता है .मसलन puckering or dimpling दृष्टि गोचर हो सकती है .चमड़ी में परतें ,फोल्ड्स या क्रीज़ दिख सकती है ,गड्ढा प्रगट हो सकता है नन्ना सा ,ब्यूटी स्पोट सा डिम्पल पड़ सकता है .
निपिल से खून के धब्बे नुमा हलका रिसाव भी हो सकता है .खतरे के संकेत है ये जिनकी अनदेखी भारी पड़ती है .ख़तरा टलता नहीं है बढ़ जाता है नजर अंदाज़ करने पर .
ram ram bhai
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए .
1013 ,luxmi Bai Ngr ,New -Delhi -110-023.
093 50 98 6685
प्रतिबिम्बन तरकीबों इमेजिंग टेक्नीक्स द्वारा वक्षस्थल (दोनों स्तनों )का अध्ययन मेमोग्राफी कहलाता है .आम तौर पर इस हेतु एक्स रेज़ का ही स्तेमाल किया जाता है .एक्स रे उतारते वक्त रेडियोल्यूसेंट प्लेटों के बीच स्तनों को संपीडित (कम्प्रेस )करना पड़ता है .अब कोमल ऊतकों के बीच परस्पर भेद करने के लिए कम ऊर्जा एक्स किरणें वक्षस्थल पर डाली जातीं हैं .शिनाख्त और रोग निदान हेतु एक्स रेज़ आजमाई जातीं हैं .उम्र के मुताबिक़ कम या अधिक ऊर्जावान एक्स रेज़ काम में ली जातीं हैं .
बेशक जिन युवतियों के परिवार में स्तन कैंसर का पूर्ववृत्तांत फस्ट डिग्री रिलेतिव्ज़ माँ पिता बहिन भाई मौसी आदि में रहा आया है उनके लिए अल्ट्रासोनोग्रेफ़ी रोग निदान का बेहतर ज़रिया साबित होता है .इनकी ब्रेस्ट डेंसिटी (वक्षस्थल का घनत्व )अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है उम्र दराज़ औरतों के बरक्स .स्त्री रोग प्रसूति और स्रावी विज्ञान की माहिर ब्रीच केंडी अस्पताल की माहिर गीता पंडया ऐसा ही मानतीं हैं .
जब तक यह आशंका न पैदा हो जाए कि कुछ गलत है युवतियां स्केनिंगकरवाने की पहल ही नहीं करतीं हैं जबकि पंडया कहतीं हैं कि यदि महिला हाईरिश्क समूह में आती है तब नियमित सेल्फ चेक अप के अलवा चेक अप्स के लिए माहिर के पास भी पहुंचना चाहिए .
यहीं से स्क्रीनिंग एवं रोगनैदानिक मेमोग्रेफी की बात उठती है .
स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी एक्स रेज़ की कमतर बमबारी से ही कर ली जाती है क्योंकि स्क्रीनिंग का काम स्तन द्रव्यमान में गहरे पैठकर गांठों ,लम्प्स की शिनाख्त करना नहीं है .केईएम् अस्पताल में रेडियोलोजी (विकिरण विज्ञान )के मुखिया डॉ हेमन्त देशमुख साहब स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी को उन महिलाओं के लिए सबसे अच्छा मानतें हैं जिनमे स्तन कैंसर के कैसे भी लक्षण प्रगट नहीं हुए हैं .
स्क्रीनिंग मेमोग्राम्स का काम केल्शियम के सूक्ष्म ज़माव का पता लगाना है .केल्शियम के टाइनी डिपोज़िट्स का पता लगाना है .कैंसर के वजूद को तस्दीक करना है इनकी शिनाख्त .होना .
लेकिन डायग्नोस्तिक मेमोग्राम्स उतारने के लिए अति -परिष्कृत मशीनों का स्तेमाल किया जाता है तब जब लम्प्स मौजूद हों स्तन कैंसर के अन्य लक्षणों का प्रगटीकरण होता हो .
ram ram bhai
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
ram ram bhai
स्तन कैंसर से जुड़े कुछ अर्थपूर्ण तथ्य
(१)यदि कैंसर का शुरूआती चरण में ही जल्दी से जल्दी पता चल जाए तब इससे पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना एक दम से बढ़ जाती है .माहिरों के अनुसार नतीजे इस बात से सीधे सीधे ताल्लुक ही नहीं रखते तय होतें हैं कि जिस समय स्तन कैंसर का इलाज़ शुरु किया गया उस वक्त अर्बुद (गांठ या ट्यूमर आकार में कित्ता था ,साइज़ क्या था कैंसर युक्त गांठ का ).
(२)ट्यूमर का आकार शुरूआती चरण में ही इलाज़ के वक्त केवल एक मिलीमीटर से भी कम व्यास (डायमीटर )का होने पर ९०%मामलों में बीस साल की औसतन मोहलत ,बचने की,बने रहनें ,ज़िंदा रहने की दर पैदा हो जाती है .
(३)लेकिन इलाज़ के वक्त ट्यूमर का डायमीटर ३ मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा बड़ा होने पर सर्वाइवल रेट घटके ५०%पर आजाती है .
(४)२०२० तक भारत में कैंसर के मामले अमरीका और योरोप के बराबर ही हो जायेंगे यानी सात में से एक औरत तब स्तन कैंसर की ज़द में होगी .(स्रोत :विश्वस्वास्थ्य संगठन की एक प्रागुक्ति ,एक अनुमान ,एक कयास ).
(५)शुरूआती चरण में स्तन कैंसर के किसी भी प्रकार के लक्षणों का प्रगटीकरण ही नहीं होता है .अ-लाक्षणिक ही बना रहता है यह दौर जिसे स्टेज जीरो भी कह सकते हैं जब चंद कोशाएं ही मरना भूल द्विगुणित होना आरम्भ करती हैं .
संभल जाइए यदि आपकी कांख (बगल या आर्म पिट/अंडरआर्म )में कोई गांठ मासिक स्राव के संपन्न होने पर भी बनी रहती है .बेशक इन गांठों में आमतौर पर कोई दर्द नहीं होता है लेकिन दर्द होने या इनके स्पर्श के प्रति अति -संवेदनशील होने टेंडरनेस महसूस होने पर इसकी भूल कर भी अनदेखी न करें .कैंसर के माहिर से फ़ौरन संपर्क करें .कुछ मामलों में प्रिकली सेंसेशन भी हो सकती है .बगल में सोजिश भी हो सकती है .
साइज़ और शेप चमड़ी की बुनावट टेक्सचर में अंतर दिखलाई दे सकता है .मसलन puckering or dimpling दृष्टि गोचर हो सकती है .चमड़ी में परतें ,फोल्ड्स या क्रीज़ दिख सकती है ,गड्ढा प्रगट हो सकता है नन्ना सा ,ब्यूटी स्पोट सा डिम्पल पड़ सकता है .
निपिल से खून के धब्बे नुमा हलका रिसाव भी हो सकता है .खतरे के संकेत है ये जिनकी अनदेखी भारी पड़ती है .ख़तरा टलता नहीं है बढ़ जाता है नजर अंदाज़ करने पर .
ram ram bhai
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए .
1013 ,luxmi Bai Ngr ,New -Delhi -110-023.
093 50 98 6685
शनिवार, 22 अक्तूबर 2011
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
भारी पड़ती है स्तन गांठों की अनदेखी ,कीमत चुकानी पड़ती है अज्ञानता की ,अनभिज्ञता की अनजाने ही .
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
ram ram bhai
स्तन कैंसर से जुड़े कुछ अर्थपूर्ण तथ्य
(१)यदि कैंसर का शुरूआती चरण में ही जल्दी से जल्दी पता चल जाए तब इससे पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना एक दम से बढ़ जाती है .माहिरों के अनुसार नतीजे इस बात से सीधे सीधे ताल्लुक ही नहीं रखते तय होतें हैं कि जिस समय स्तन कैंसर का इलाज़ शुरु किया गया उस वक्त अर्बुद (गांठ या ट्यूमर आकार में कित्ता था ,साइज़ क्या था कैंसर युक्त गांठ का ).
(२)ट्यूमर का आकार शुरूआती चरण में ही इलाज़ के वक्त केवल एक मिलीमीटर से भी कम व्यास (डायमीटर )का होने पर ९०%मामलों में बीस साल की औसतन मोहलत ,बचने की,बने रहनें ,ज़िंदा रहने की दर पैदा हो जाती है .
(३)लेकिन इलाज़ के वक्त ट्यूमर का डायमीटर ३ मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा बड़ा होने पर सर्वाइवल रेट घटके ५०%पर आजाती है .
(४)२०२० तक भारत में कैंसर के मामले अमरीका और योरोप के बराबर ही हो जायेंगे यानी सात में से एक औरत तब स्तन कैंसर की ज़द में होगी .(स्रोत :विश्वस्वास्थ्य संगठन की एक प्रागुक्ति ,एक अनुमान ,एक कयास ).
(५)शुरूआती चरण में स्तन कैंसर के किसी भी प्रकार के लक्षणों का प्रगटीकरण ही नहीं होता है .अ-लाक्षणिक ही बना रहता है यह दौर जिसे स्टेज जीरो भी कह सकते हैं जब चंद कोशाएं ही मरना भूल द्विगुणित होना आरम्भ करती हैं .
संभल जाइए यदि आपकी कांख (बगल या आर्म पिट/अंडरआर्म )में कोई गांठ मासिक स्राव के संपन्न होने पर भी बनी रहती है .बेशक इन गांठों में आमतौर पर कोई दर्द नहीं होता है लेकिन दर्द होने या इनके स्पर्श के प्रति अति -संवेदनशील होने टेंडरनेस महसूस होने पर इसकी भूल कर भी अनदेखी न करें .कैंसर के माहिर से फ़ौरन संपर्क करें .कुछ मामलों में प्रिकली सेंसेशन भी हो सकती है .बगल में सोजिश भी हो सकती है .
साइज़ और शेप चमड़ी की बुनावट टेक्सचर में अंतर दिखलाई दे सकता है .मसलन puckering or dimpling दृष्टि गोचर हो सकती है .चमड़ी में परतें ,फोल्ड्स या क्रीज़ दिख सकती है ,गड्ढा प्रगट हो सकता है नन्ना सा ,ब्यूटी स्पोट सा डिम्पल पड़ सकता है .
निपिल से खून के धब्बे नुमा हलका रिसाव भी हो सकता है .खतरे के संकेत है ये जिनकी अनदेखी भारी पड़ती है .ख़तरा टलता नहीं है बढ़ जाता है नजर अंदाज़ करने पर .
ram ram bhai
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए
आंतरिक साजसज्जा की माहिर हैं४७ वर्षीय सोनिया सिंह जी .महीनों से उनकी कांख (बगल ,आर्मपिट ,अंडरआर्म )में एक गांठ पनप रही थी .बेशक दर्द नहीं कर रही थी यह गांठ लेकिन तथ्य यह भी है कि यह आकार में लगातार बढ़ रही थी .आप इसकीअपने अनजाने ही अनदेखी करती रहीं फिर एक दिन जब फोर्टिस अस्पताल ,चंडीगढ़ में कैंसर विज्ञान के माहिर डॉ .पंकज गर्ग के पास पहुंची ,तब नैदानिक परीक्षण (क्लिनिकल एग्जामिनेशन ),इमेजिंग तथा नीडिल टेस्ट के बाद पता चला उनका ब्रेट्स कैंसर अग्रिम चरण में पहुँच चुका है .स्वाभाविक तौर पर डॉ .पंकज ने हतप्रभ होकर पूछा आप इतनी देर से क्यों पहुंची परीक्षण करवाने जब की ट्यूमर दस्तक दे चुका था और गांठ दिनानुदिन आकार में बढ़ भी रही थी ."डॉ .साहब गांठ में दर्द नहीं था "-ज़वाब मिला .
डॉ .गर्ग ने अपने एक अध्ययन में जो चंडीगढ़ में तकरीबन १००० महिलाओं पर आपने संपन्न किया है शुरूआती स्तन कैंसर के मामले में इन महिलाओं की जिनमे अच्छी खासी आधुनिक महिलाएं भी शामिल रहीं हैं नज़रिए की पड़ताल की है .इनमे से ८२ %महिलाएं इस तथ्य से वाकिफ नहीं थी कि शुरूआती चरणों में स्तन कैंसर गांठें ,दर्द हीन ही बनी रहतीं हैं .ज्यादातर इसी गफलत में रहतीं हैं कि पीडाहीन स्तन गांठें निरापद(बिनाइन ) ही होतीं हैं इनका कोई नहीं होता .
यदि इसी चरण में शिनाख्त हो जाए तो इलाज़ भी पुख्ता हो जाए संभवतया मुकम्मिल इलाज़ भी .छुटकारा (निजात )भी मिल जाए इन्हीं चरणों में स्तन कैंसर से .बेहतर हो तमाम महिलाए संकोच छोड़ इसी शुरूआती चरण में जांच की पहल करें आगे आएं .क्या बरखा जब कृषि सुखाने देरी का यही मतलब निकलेगा .सब कुछ चौपट हो रहेगा .८०%मरीजाओं को यह इल्म नहीं है कि कांख में बढती हुई गांठें कैंसर के शुरूआती दौर का ज्ञात लक्षण हैं .एक तिहाई को यह गफलत है कि स्तन में पीड़ा का होना ही स्तन कैंसर के शुरूआती चरण का एक एहम लक्षण है .इसी गफलत के भारत भर में चलते यहाँ ७० %मामलों की शिनाख्त (रोग निदान ,डायग्नोसिस )अग्रिम चरण में ही हो पाती है जब की विकसित देशों में अग्रिम चरण में मात्र २०%मामलों क़ी ही शिनाख्त होती है शेष का पता इससे पहले ही चल जाता है जन जागरूकता के चलते .
बी एल के सुपर स्पेशियलटी अस्पताल में कैंसर महकमें के मुखिया डॉ .सिद्धार्थ साहनी कहतें हैं यदि कैंसर का पता प्रथम चरण में लगा लिया जाए तब ९८%मामलों में कामयाब इलाज़ हो जाए .ठीक होने की दर ९८%रहे .
बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है क़ि ट्यूमर है किस टाइप का ,लन्दन में स्तन अर्बुद (ब्रेस्ट ट्यूमर ,स्तन गांठ )का औसत आकार १.१सैन्तीमीतर (११ मिलीमीटरव्यास वाला ) रहता है जबकी भारत की राजधानी नै दिल्ली में इसका औसत डायमीटर ३.९ सैंटीमीटर मिला है .यहाँ माहिरों का पाला दूसरे और तीसरे चरण में पहुच चुके स्तन कैंसर से पड़ता है .
औरत के चालीस साला होने पर हर साल दो साल में उसे स्क्रीनिंग मेमोग्रेफी करवाने की सिफारिशें की जातीं हैं उन मामलों में जिनमे स्तन कैंसर होने और न होने दोनों ही मामलों में लक्षण हीन(असिम्तोमेतिक )ही बना रहता हैं .लेकिन पचास साला होने पर यह जांच हर साल करवाने की हिदायतें ही दी जातीं हैं .
भारत के ग्रामीण अंचलों में .दूरदराज़ के क्षेत्रों में नियमित नैदानिक परीक्षण तथा मेमोग्रेफी (वक्ष स्थल का एक्स रे )संभव भी नहीं है .वजह एक तरफ प्रशिक्षित क्लिनिशियनों की कमी है ,दूसरी तरफ एक्स रे मशीनों का तोड़ा (तंगी,कमी बेशी ).ऊपर से इन परीक्षणों का मंहगा होना भी एक वजह बनता है रोग निदान से वंचित रह जाने का .
वर्ल्ड हेल्थ स्टेतिस्तिक्स ("WHS").के अनुसार २०००-२००३ के दरमियान ५०-६९ साला कुल ५%से भी कम महिलाएं ही मेमोग्रेफी स्क्रीनिंग (जांच )करवा सकीं थीं .
विश्वस्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ यदि इस आयु वर्ग की तमाम महिलाओं को यह जाँच नसीब हो जाए तब मौत की दर को १५-२५%घटाया जा सकता है . डॉ .गर्ग को अपने अध्ययन से यह भी मालूम हुआ क़ि ७१ %महिलाओं को मेमोग्रेफी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी .
औरत का संकोच भी उसे मारता है जो अपने असेट्स (वक्ष स्थल )की जांच के लिए संकोच वश आगे नहीं आपातीं .एक जन्म जात भय भी उनपर तारी रहता है -"कहीं कैंसर निकल ही न आये ?"इसीलिए वह जांच से छिटकती है लेकिन ख़तरा टलता कहाँ है ? यही कहना है डॉ .गीता पंड्या का .आप जसलोक अस्पताल ,मुंबई में स्तन कैंसर की माहिर हैं .
ram ram bhai
स्तन कैंसर से जुड़े कुछ अर्थपूर्ण तथ्य
(१)यदि कैंसर का शुरूआती चरण में ही जल्दी से जल्दी पता चल जाए तब इससे पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना एक दम से बढ़ जाती है .माहिरों के अनुसार नतीजे इस बात से सीधे सीधे ताल्लुक ही नहीं रखते तय होतें हैं कि जिस समय स्तन कैंसर का इलाज़ शुरु किया गया उस वक्त अर्बुद (गांठ या ट्यूमर आकार में कित्ता था ,साइज़ क्या था कैंसर युक्त गांठ का ).
(२)ट्यूमर का आकार शुरूआती चरण में ही इलाज़ के वक्त केवल एक मिलीमीटर से भी कम व्यास (डायमीटर )का होने पर ९०%मामलों में बीस साल की औसतन मोहलत ,बचने की,बने रहनें ,ज़िंदा रहने की दर पैदा हो जाती है .
(३)लेकिन इलाज़ के वक्त ट्यूमर का डायमीटर ३ मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा बड़ा होने पर सर्वाइवल रेट घटके ५०%पर आजाती है .
(४)२०२० तक भारत में कैंसर के मामले अमरीका और योरोप के बराबर ही हो जायेंगे यानी सात में से एक औरत तब स्तन कैंसर की ज़द में होगी .(स्रोत :विश्वस्वास्थ्य संगठन की एक प्रागुक्ति ,एक अनुमान ,एक कयास ).
(५)शुरूआती चरण में स्तन कैंसर के किसी भी प्रकार के लक्षणों का प्रगटीकरण ही नहीं होता है .अ-लाक्षणिक ही बना रहता है यह दौर जिसे स्टेज जीरो भी कह सकते हैं जब चंद कोशाएं ही मरना भूल द्विगुणित होना आरम्भ करती हैं .
संभल जाइए यदि आपकी कांख (बगल या आर्म पिट/अंडरआर्म )में कोई गांठ मासिक स्राव के संपन्न होने पर भी बनी रहती है .बेशक इन गांठों में आमतौर पर कोई दर्द नहीं होता है लेकिन दर्द होने या इनके स्पर्श के प्रति अति -संवेदनशील होने टेंडरनेस महसूस होने पर इसकी भूल कर भी अनदेखी न करें .कैंसर के माहिर से फ़ौरन संपर्क करें .कुछ मामलों में प्रिकली सेंसेशन भी हो सकती है .बगल में सोजिश भी हो सकती है .
साइज़ और शेप चमड़ी की बुनावट टेक्सचर में अंतर दिखलाई दे सकता है .मसलन puckering or dimpling दृष्टि गोचर हो सकती है .चमड़ी में परतें ,फोल्ड्स या क्रीज़ दिख सकती है ,गड्ढा प्रगट हो सकता है नन्ना सा ,ब्यूटी स्पोट सा डिम्पल पड़ सकता है .
निपिल से खून के धब्बे नुमा हलका रिसाव भी हो सकता है .खतरे के संकेत है ये जिनकी अनदेखी भारी पड़ती है .ख़तरा टलता नहीं है बढ़ जाता है नजर अंदाज़ करने पर .
ram ram bhai
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए
स्तन कैंसर से जुड़े कुछ अर्थपूर्ण तथ्य
स्तन कैंसर से जुड़े कुछ अर्थपूर्ण तथ्य
(१)यदि कैंसर का शुरूआती चरण में ही जल्दी से जल्दी पता चल जाए तब इससे पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना एक दम से बढ़ जाती है .माहिरों के अनुसार नतीजे इस बात से सीधे सीधे ताल्लुक ही नहीं रखते तय होतें हैं कि जिस समय स्तन कैंसर का इलाज़ शुरु किया गया उस वक्त अर्बुद (गांठ या ट्यूमर आकार में कित्ता था ,साइज़ क्या था कैंसर युक्त गांठ का ).
(२)ट्यूमर का आकार शुरूआती चरण में ही इलाज़ के वक्त केवल एक मिलीमीटर से भी कम व्यास (डायमीटर )का होने पर ९०%मामलों में बीस साल की औसतन मोहलत ,बचने की,बने रहनें ,ज़िंदा रहने की दर पैदा हो जाती है .
(३)लेकिन इलाज़ के वक्त ट्यूमर का डायमीटर ३ मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा बड़ा होने पर सर्वाइवल रेट घटके ५०%पर आजाती है .
(४)२०२० तक भारत में कैंसर के मामले अमरीका और योरोप के बराबर ही हो जायेंगे यानी सात में से एक औरत तब स्तन कैंसर की ज़द में होगी .(स्रोत :विश्वस्वास्थ्य संगठन की एक प्रागुक्ति ,एक अनुमान ,एक कयास ).
(५)शुरूआती चरण में स्तन कैंसर के किसी भी प्रकार के लक्षणों का प्रगटीकरण ही नहीं होता है .अ-लाक्षणिक ही बना रहता है यह दौर जिसे स्टेज जीरो भी कह सकते हैं जब चंद कोशाएं ही मरना भूल द्विगुणित होना आरम्भ करती हैं .
संभल जाइए यदि आपकी कांख (बगल या आर्म पिट/अंडरआर्म )में कोई गांठ मासिक स्राव के संपन्न होने पर भी बनी रहती है .बेशक इन गांठों में आमतौर पर कोई दर्द नहीं होता है लेकिन दर्द होने या इनके स्पर्श के प्रति अति -संवेदनशील होने टेंडरनेस महसूस होने पर इसकी भूल कर भी अनदेखी न करें .कैंसर के माहिर से फ़ौरन संपर्क करें .कुछ मामलों में प्रिकली सेंसेशन भी हो सकती है .बगल में सोजिश भी हो सकती है .
साइज़ और शेप चमड़ी की बुनावट टेक्सचर में अंतर दिखलाई दे सकता है .मसलन puckering or dimpling दृष्टि गोचर हो सकती है .चमड़ी में परतें ,फोल्ड्स या क्रीज़ दिख सकती है ,गड्ढा प्रगट हो सकता है नन्ना सा ,ब्यूटी स्पोट सा डिम्पल पड़ सकता है .
निपिल से खून के धब्बे नुमा हलका रिसाव भी हो सकता है .खतरे के संकेत है ये जिनकी अनदेखी भारी पड़ती है .ख़तरा टलता नहीं है बढ़ जाता है नजर अंदाज़ करने पर .
ram ram bhai
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए
(१)यदि कैंसर का शुरूआती चरण में ही जल्दी से जल्दी पता चल जाए तब इससे पूरी तरह छुटकारा मिलने की संभावना एक दम से बढ़ जाती है .माहिरों के अनुसार नतीजे इस बात से सीधे सीधे ताल्लुक ही नहीं रखते तय होतें हैं कि जिस समय स्तन कैंसर का इलाज़ शुरु किया गया उस वक्त अर्बुद (गांठ या ट्यूमर आकार में कित्ता था ,साइज़ क्या था कैंसर युक्त गांठ का ).
(२)ट्यूमर का आकार शुरूआती चरण में ही इलाज़ के वक्त केवल एक मिलीमीटर से भी कम व्यास (डायमीटर )का होने पर ९०%मामलों में बीस साल की औसतन मोहलत ,बचने की,बने रहनें ,ज़िंदा रहने की दर पैदा हो जाती है .
(३)लेकिन इलाज़ के वक्त ट्यूमर का डायमीटर ३ मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा बड़ा होने पर सर्वाइवल रेट घटके ५०%पर आजाती है .
(४)२०२० तक भारत में कैंसर के मामले अमरीका और योरोप के बराबर ही हो जायेंगे यानी सात में से एक औरत तब स्तन कैंसर की ज़द में होगी .(स्रोत :विश्वस्वास्थ्य संगठन की एक प्रागुक्ति ,एक अनुमान ,एक कयास ).
(५)शुरूआती चरण में स्तन कैंसर के किसी भी प्रकार के लक्षणों का प्रगटीकरण ही नहीं होता है .अ-लाक्षणिक ही बना रहता है यह दौर जिसे स्टेज जीरो भी कह सकते हैं जब चंद कोशाएं ही मरना भूल द्विगुणित होना आरम्भ करती हैं .
संभल जाइए यदि आपकी कांख (बगल या आर्म पिट/अंडरआर्म )में कोई गांठ मासिक स्राव के संपन्न होने पर भी बनी रहती है .बेशक इन गांठों में आमतौर पर कोई दर्द नहीं होता है लेकिन दर्द होने या इनके स्पर्श के प्रति अति -संवेदनशील होने टेंडरनेस महसूस होने पर इसकी भूल कर भी अनदेखी न करें .कैंसर के माहिर से फ़ौरन संपर्क करें .कुछ मामलों में प्रिकली सेंसेशन भी हो सकती है .बगल में सोजिश भी हो सकती है .
साइज़ और शेप चमड़ी की बुनावट टेक्सचर में अंतर दिखलाई दे सकता है .मसलन puckering or dimpling दृष्टि गोचर हो सकती है .चमड़ी में परतें ,फोल्ड्स या क्रीज़ दिख सकती है ,गड्ढा प्रगट हो सकता है नन्ना सा ,ब्यूटी स्पोट सा डिम्पल पड़ सकता है .
निपिल से खून के धब्बे नुमा हलका रिसाव भी हो सकता है .खतरे के संकेत है ये जिनकी अनदेखी भारी पड़ती है .ख़तरा टलता नहीं है बढ़ जाता है नजर अंदाज़ करने पर .
ram ram bhai
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए
शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011
.ब्रेस्ट . कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ.
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए .
की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं . यथार्थ की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्त क में नहीं आते रता है .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर वसे पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants '''का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं .
मिथ :तमाम तरह के स्तन प्रत्यारोप(ब्रेस्ट इम्प्लान्ट्स ) आपके स्तन कैंसर के खतरे को बढा देतें हैं ?
यथार्थ :
अधुनातन शोध इस मिथ का खंडन करती है .स्तन प्रत्यारोप के बाद कैंसर के खतरे का वजन नहीं बढ़ता है सामान्य ख़तरा ही मौजूद रहता है औरों जैसा .अलबत्ता रोग निदान के लिए प्रयुक्त मानक मेमोग्राम्स के सही नतीजे इन महिलाओं पर नहीं निकलते हैं . ऊतकों के पूर्ण परीक्षण के लिए अतिरिक्त एक्स रे -विकिरण की ज़रुरत पड़ती है प्रत्यारोप लगवा चुकी महिलाओं के मामले में .
मिथ :आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर होने का ख़तरा बना रहता है .?
यथार्थ :
ख़तरा आपकी बढती हुई उम्र के साथ बढ़ता है सभी आयु वर्ग की महिलाओं के लिए यकसां नहीं रहता है .तीसम तीस (थर्तीज़)के दौर में जहां स्तन कैंसर का ख़तरा २३३ में से एक महिला के लिए ही रहता है वहीँ ८५ साल की उम्र पर यह बढ़कर ८ में से १ के लिए मौजूद रहता है .
मिथ :पीन-स्तन (पीनास्तनी ) के बरक्स लघु स्त्नियों (स्माल ब्रेस्टिद) महिलाओं के लिए स्तन कैंसर के खतरे का वजन कमतर रहता है ?
यथार्थ :कोई सारांश (सार तत्व ,काम की बात नहीं है )इस मिथ्या या भ्रांत धारणा के पीछे .इसके विपरीत लघु स्तनों की जांच आसानी से संपन्न हो जाती है पीन स्तनों के बरक्स .अलबत्ता संस्कृत साहित्य में पीस्तानी का गायन है प्रशंशा है .जंघाए केले के तने सी ,स्तन घड़े से .
मेमोग्राम्स (बड़े स्तनों का एक्स रे )उतारने में चुम्बकीय अनुनाद प्रति -बिम्बंन (मेग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग )में भी यही दिक्कत पेश आती है .लेकिन सभी महिलाओं को ज़रूरी जांच के लिए निस्संकोच स्वेच्छा आगे आना ही चाहिए .
ब्रेस्ट्स कैंसर से जुड़े कुछ मिथ और यथार्थ .
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए .ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े कुछ मिथ और यथार्थ .
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेट्स कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्तही नहीं करता समाधान भी प्रस्तुत करता है . .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर से पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं .
स्तन कैंसर जागरूकता महीने में चर्चा हो जाए ब्रेट्स कैंसर से जुड़े कुछ मिथ ओर यथार्थ की .
मिथ :
(१)मेमोग्रामं जांच से कैंसर फ़ैल सकता है ?
मेमोग्राम स्तन कैंसर का जल्दी से जल्दी सूक्ष्म स्तर पर पता लगाने के लिए वक्ष स्थल का उतारा गया एक्स रे होता है .
यथार्थ :
न तो एक्स रे ओर न ही एक्स रे मशीन से स्तनों पर पड़ने वाला दवाब या संपीडन (कम्प्रेशन ) स्तन कैंसर के बढाव फैलाव की वजह बनता है .महज़ मिथ है यह मिथ्या धारणा है सामाजिक भ्रम जाल है .
(२)स्तन में गांठ ट्यूमर या स्वेलिंग का मिलना हमेशा ही ब्रेस्ट कैंसर का ही नतीजा होता है ?
यथार्थ :आकडे गवाह हैं दस में से आठ गांठें कैंसर कारी नहीं होतीं हैं बिनाइन या निरापद ही होती है .अलबत्ता यदि इस गांठ में बदलाव दिखलाई देतें हैं या फिर स्तन ऊतकों में कैसे भी बदलाव प्रगट होतें हैं तब अविलम्ब कैंसर के माहिर से परामर्श करना चाहिए .समय बहुत कीमती है .समय रहते रोगनिदान इलाज़ के प्रति आश्वस्तही नहीं करता समाधान भी प्रस्तुत करता है . .कबूतर की तरह खतरे के प्रति आँख मूंदने से खतरे का जोखिम वजन बढ़ता जाएगा .होनी टलेगी नहीं .बचाव में ही बचाव है .द्रुत रोगनिदान ही इलाज़ है .
(३)पुरुष ब्रेस्ट कैंसर की ज़द में नहीं आते ?
यथार्थ :बेशक मर्दों में इसकी दर कमतर रहती है लेकिन हर महीने जांच आशंका होने पर न कि जाए इसकी कोई वजह नहीं है .ध्यान रहे मर्दों में यह ज्यादा आक्रामक रुख इख्तियार करता है .तथा बहुत देर से पकड़ में आता है तब तक बहुत समय जाया हो चुका होता है इसलिए ऊतकीय बदलावों की आहट का फ़ौरन नोटिस लिया जाए अविलम्ब स्तन कैंसर के माहिर से मिला जाए .
(४)स्तन कैंसर एक छूत की बीमारी है संक्राम्य है .?
यथार्थ :महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना .कैंसर आपके अपने शरीर में कोशाओं की बे -काबू अनियंत्रित बढ़वार (अन -कंट्रोल्ड सेल ग्रोथ )का नतीज़ा बनता है तब जब कोशिका मरना भूल जाती है .
(५)आम दुर्गन्धनाशी , पसीना हर "common deodorant ,antiperspirants का आमतौर पर किया जाने वाला स्तेमाल ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के वजन को बढा देता है .?
यथार्थ :
इस आशय के कोई साक्ष्य आदिनांक नहीं जुटाए जा सकें हैं कि आम चलन में आ चुके पसीना या दुर्गन्ध रोधी स्प्रे ब्रेस्ट कैंसर के वजन को बढा देतें हैं .
(६)गर्भ निरोधी गोलियों का सेवन ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम में इजाफा करता है ?
यथार्थ :इस मिथ के पीछे की मिथ्या धारणा इस तथ्य पर टिकी हुई है कि गर्भ निरोधी तमाम किस्म की गोलियां हारमोनों की खुराकें होतीं हैं जो मासिक स्राव का विनियमन करतीं हैं .
इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्त्रोंन हारमोन ब्रेस्ट कैंसर की वजह नहीं बनतें हैं बेशक कुछ अध्ययनों में ऐसे संकेत ज़रूर मिले कि बाद के बरसों में इन गोलियों के स्तेमाल से स्तन कैंसर का ख़तरा थोड़ा सा बढ़ जाता है .लेकिन निश्चय पूर्वक ऐसा नहीं कहा जासकता है .अन्य अनेक अध्ययनों में ऐसा कुछ भी पुष्ट नहीं हुआ है .परीक्षण चल रहें हैं .आजमाइशें ज़ारी हैं .
गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011
छरहरी काया के लिए प्रोटीन बहुल खुराक लीजिए .
छरहरी काया के लिए प्रोटीन बहुल खुराक लीजिए .
एक नए अध्ययन के मुताबिक़ तन्वंगी बने रहने के लिए केवल केलोरी कम करना ही कॉफ़ी नहीं है खुराक में ज्यादा से ज्यादा प्रोटीनों को शामिल करना चाहिए .सिडनी विश्व विद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है कम प्रोटीन युक्त खुराक कुल एनर्जी इंटेक को बढा देती है .ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा स्नेक्स का सेवन करने लगतें हैं जिनकी खुराक में प्रोटीन कमतर रहतें हैं .नतीज़न वह ज़रुरत भर से कहीं ज्यादा खाते हैं .इस अध्ययन के नतीजे PLoS ONE जर्नल में प्रकाशित हुए हैं .पता यह भी चला है प्रोटीन का पर्याप्त सेवन ज्यादा संतुष्टि देता है भूख को ज्यादा देर तक शांत रखता है इसलिए लोग ज़रुरत भर ही खाते हैं तथाअतिरिक्त कार्बोहांड्रेट्स तथा चिकनाई युक्त पदार्थों के फ़िज़ूल गैर ज़रूरी सेवन से बचे रहते हैं .
पहली मर्तबा विज्ञान सम्मत पुष्टि हुई है इस बात की कि खुराकी प्रोटीन भूख को असर ग्रस्त करती है विनियमन करती है एपेटाईट का .
आलमी स्तर पर बढ़ते मोटापे ओबेसिटी का समाधान प्रस्तुत करता है यह अध्ययन .
कुदरती तौर पर आदमी का रुझान प्रोटीनों की तरफ ज्यादा होता है ,स्ट्रोंग एपेटाईट रहता है प्रोटीनों के प्रति लेकिन जब खुराक में इनकी कमीबेशी रह जाती है तब स्वाभाविक तौर पर ऊर्जा का इंटेक बढ़ जाता है .और आज के खान पानी माहौल में ,न्युत्रिश्नल एनवायरनमेंट में चिकनाई और मिठास सने सुस्वादु खाद्यों की सहज और सस्ते दामों पर सुलभता इनकी और व्यक्ति को ले जाती है .गहरे निहितार्थ हैं इसके वेट मेनेजमेंट में .वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श वजन बनाए रहने में प्रोटीनों के महत्व को नकारना मुश्किल है .
रिसर्चरों के मुताबिक़ प्रोतिनें ही ड्राइविंग फ़ोर्स बनती हैं कितने ही पशुओं के मामले में (घोड़े को लाल चने इसीलिए खिलाए जातें हैं ).
बेशक पूर्व में भी ऐसी सिफारिशें पोषण विदों ने की हैं कि ऊर्जा की कुल खपत का आधार प्रोतिनें ही बनतीं हैं लेकिन इसके विज्ञान सम्मत मात्रात्मक साक्ष्य इस अध्ययन ने ही पहली मर्तबा जुटाए हैं .खाओ चने रहो बने .
ओर
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
फूसोबेकटीरियम एक ऐसा रोगकारक जीवाणु है जो दंत क्षय और चमड़ी में होने वाले ज़ख्मों की वजह बनता रहा है .जब से रिसर्चरों की दो अलग अलग टोलियों को यह ज़रासीम बड़ी आंत के अर्बुदों (कोलोंन ट्यूमर्स )में मिला है आशंका यह जतलाई जा रही है यह या तो हमारी अंतड़ियों को गुदा से सम्बद्ध करने वाले बोवेल कैंसरों की वजह बनता है या फिर कैंसर पैदा करने वाले बदलाव पैदा करता है .बहरसूरत यह आकस्मिक तौर पर हाथ आया है या वास्तविक कुसूरवार है यह अभी तय नहीं है .
अन्वेषण ज़ारी रहेंगे .बेशक यदि यही वास्तविक कारक है काज़ेतिव एजेंट है तब एंटीबायोटिक से इसकी काट भी होनी चाहिए,.बचावी चिकित्सा भी .विज्ञान पत्रिका 'जीनोम रिसर्च 'में यह अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .
ब्रेस्ट और लंग कैंसर के बाद सर्वाधिक होने वाला यही बोवेल कैंसर है .तीसरा सबसे ज्यादा आमफ़हम कैंसर यही है .बेशक बोवेल कैंसर के होने की असल वजूहात किसी को भी नहीं मालूम अलबत्ता कौन कौन से खतरे और जोखिम तत्व हैं उनमे जोखिम के वजन को बढाने में पारिवारिक पूर्व वृत्तांत (फेमिली हिस्टरी )तथा बढती हुई बुदापे की उम्र तो है ही .
माहौल का भी इसे पनपाने में कुछ न कुछ हाथ रहता है यह कहना है सरह विलियम्स का .आपने उस माहौल का अध्ययन किया है जिसमे यह तेज़ी से बढ़ता है .अभी तो शुरुआत है आगे और भी अध्ययनों की दरकार रहेगी .
वक्त है धूम्रपान से परहेज़ रखते हुए इसके खतरे के वजन को थोड़ा कम किया जाए .एल्कोहल का सेवन कम किया जाए ,वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श रूप हेल्दी रखा जाए .सक्रिय जीवन शैली के साथ -साथ संशाधित और रेड मीट का खुराकी सेवन कमसे कम किया जाए .खाद्य रेशा बहुल खुराक को तरजीह दी जाए .
दोनों रिसर्च टीमों ने अपने अध्ययन में तकरीबन सौ से भी ज्यादा साम्पिलों का अध्ययन विश्लेषण किया है जिनमे स्वस्थ और कैंसर युक्त बोवेल टिश्यु शामिल रहें हैं .इन्हीं में से इस रोगकारक जीवाणु फूसोबेकटीरियम का पता चला है.टीम ने साम्पिलों में आनुवंशिक पदार्थ की शिनाख्त के बाद इस संभावित अंतर -सम्बन्ध की पुष्टि की है .
ram ram bhai
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
October 19,2011 .
TV hampers development in infants ,warn doctors
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
बालरोग माहिरों के एक अमरीकी समूह ने अपने एक अध्ययन के मार्फ़त माँ -बाप को चेताया है कि वह अपने शिशुओं (०-२ साला )को टीवी तथा वीडियोज न देखने दे ,हतोत्साहित करें .दो साल से कम उम्र के शिशुओं के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है उनके विकास को अवरुद्ध कर सकता है .
बेहतर हो माँ -बाप उनसे बतियाएं उन्हें स्वतंत्र रूप उछल कूद खेल के लिए उकसाएं .दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद पहली मर्तबाअमरीकी अकादमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के शिशु रोगों के माहिरों ने ये सिफारिशें ज़ारी की हैं .बाज़ आयें माँ -बाप अपने नन्नों को टीवी और वीडियोज से चिपकाने से .जी हाँ हुकिंग हो जाती है नौनिहालों की इन दृश्य छवियों से .टीवी और वीडियोज से .
१९९९ में भी ऐसी सलाह अमरीका के उस वक्त के सबसे बड़े बाल रोग माहिरों के संघ ने दी थी .इस मर्तबा एक नै सिफारिश यह की है स्वयम माँ -बाप को भी चेताया गया है बतलाते हुए कि उनका भी टीवी से ज्यादा चिपके रहना उनके बच्चों के बोलने बोलना सीखने की पहल को मुल्तवी और निलंबित रखेगा .इसलिए भी माँ -बाप को उनके साथ अधिकाधिक बतियाना ज़रूरी है .
"This updated policy statement provides further evidence that media -both foreground and background -have potentially negative effects and no known positive effects for children younger than two years,"it said.
बेशक ये अनुदेश "स्मार्ट फोन्स "पर खेले जाने वाले वीडियोगेम्स "को अपने दायरे से बाहर रखे हुए हैं .इन्हें इंटरेक्टिव समझा गया है .लेकिन पेसिव स्क्रीन वाचिंग पर यह सिफारिशें बा -कायदा लागू होतीं हैं .
गौर तलब है इन सिफारिशों को नजर अंदाज़ करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इस दौरे -दौरां में बच्चों को ही लक्षित रखते हुए बेबी डीवीडीज ज़ारी की जा रहीं हैं रोज़ -बा -रोज़ .९० %माँ -बाप इस बात को मानते हैं कि उनके शिशु (०-२ साला ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हुएँ हैं .यह एक चिंतनीय स्थिति है .समाधान माँ -बाप को ही तलाशना होगा .
ram ram bhai
'Breastmilk contains stem cells'
करामाती माँ का दूध ,ह्यूमेन ब्रेस्ट मिल्क कलम कोशाओं(स्टेम सेल्स ) से भी लैस है पोषक तत्व और इम्युनिटी का प्राथमिक स्रोत तो है ही .साइंसदानों के मुताबिक़ माँ के दूध में मौजूद इन कलम कोशाओं स्टेम या मास्टर सेल्स को न सिर्फ अश्थी कोशाओं में ढाला जा सकता है ,स्वयम स्तन कोशिकाएं भी इनसे गढ़ी जा सकतीं हैं ,रची जा सकतीं हैं उपास्थि कोशाएं (कार्तिलेजिज़ सेल्स ),वसा कोशाएं ,यकृत और अग्नाशय कोशिकाएं (पैन्क्रियेतिक सेल्स ) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साइंसदान Dr Foteini Hassiotou के नेत्रित्व में रिसर्चरों की एक होनहार टोली ने यहाँ तक आश्वस्त किया है , ब्रेस्ट मिल्क में लाइलाज पार्किन्संज़ तथा मधुमेह जैसे रोगों के प्रबंधन में भी मददगार बनने की क्षमता निहित है .
ram ram bhai
एक नए अध्ययन के मुताबिक़ तन्वंगी बने रहने के लिए केवल केलोरी कम करना ही कॉफ़ी नहीं है खुराक में ज्यादा से ज्यादा प्रोटीनों को शामिल करना चाहिए .सिडनी विश्व विद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है कम प्रोटीन युक्त खुराक कुल एनर्जी इंटेक को बढा देती है .ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा स्नेक्स का सेवन करने लगतें हैं जिनकी खुराक में प्रोटीन कमतर रहतें हैं .नतीज़न वह ज़रुरत भर से कहीं ज्यादा खाते हैं .इस अध्ययन के नतीजे PLoS ONE जर्नल में प्रकाशित हुए हैं .पता यह भी चला है प्रोटीन का पर्याप्त सेवन ज्यादा संतुष्टि देता है भूख को ज्यादा देर तक शांत रखता है इसलिए लोग ज़रुरत भर ही खाते हैं तथाअतिरिक्त कार्बोहांड्रेट्स तथा चिकनाई युक्त पदार्थों के फ़िज़ूल गैर ज़रूरी सेवन से बचे रहते हैं .
पहली मर्तबा विज्ञान सम्मत पुष्टि हुई है इस बात की कि खुराकी प्रोटीन भूख को असर ग्रस्त करती है विनियमन करती है एपेटाईट का .
आलमी स्तर पर बढ़ते मोटापे ओबेसिटी का समाधान प्रस्तुत करता है यह अध्ययन .
कुदरती तौर पर आदमी का रुझान प्रोटीनों की तरफ ज्यादा होता है ,स्ट्रोंग एपेटाईट रहता है प्रोटीनों के प्रति लेकिन जब खुराक में इनकी कमीबेशी रह जाती है तब स्वाभाविक तौर पर ऊर्जा का इंटेक बढ़ जाता है .और आज के खान पानी माहौल में ,न्युत्रिश्नल एनवायरनमेंट में चिकनाई और मिठास सने सुस्वादु खाद्यों की सहज और सस्ते दामों पर सुलभता इनकी और व्यक्ति को ले जाती है .गहरे निहितार्थ हैं इसके वेट मेनेजमेंट में .वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श वजन बनाए रहने में प्रोटीनों के महत्व को नकारना मुश्किल है .
रिसर्चरों के मुताबिक़ प्रोतिनें ही ड्राइविंग फ़ोर्स बनती हैं कितने ही पशुओं के मामले में (घोड़े को लाल चने इसीलिए खिलाए जातें हैं ).
बेशक पूर्व में भी ऐसी सिफारिशें पोषण विदों ने की हैं कि ऊर्जा की कुल खपत का आधार प्रोतिनें ही बनतीं हैं लेकिन इसके विज्ञान सम्मत मात्रात्मक साक्ष्य इस अध्ययन ने ही पहली मर्तबा जुटाए हैं .खाओ चने रहो बने .
ओर
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
फूसोबेकटीरियम एक ऐसा रोगकारक जीवाणु है जो दंत क्षय और चमड़ी में होने वाले ज़ख्मों की वजह बनता रहा है .जब से रिसर्चरों की दो अलग अलग टोलियों को यह ज़रासीम बड़ी आंत के अर्बुदों (कोलोंन ट्यूमर्स )में मिला है आशंका यह जतलाई जा रही है यह या तो हमारी अंतड़ियों को गुदा से सम्बद्ध करने वाले बोवेल कैंसरों की वजह बनता है या फिर कैंसर पैदा करने वाले बदलाव पैदा करता है .बहरसूरत यह आकस्मिक तौर पर हाथ आया है या वास्तविक कुसूरवार है यह अभी तय नहीं है .
अन्वेषण ज़ारी रहेंगे .बेशक यदि यही वास्तविक कारक है काज़ेतिव एजेंट है तब एंटीबायोटिक से इसकी काट भी होनी चाहिए,.बचावी चिकित्सा भी .विज्ञान पत्रिका 'जीनोम रिसर्च 'में यह अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .
ब्रेस्ट और लंग कैंसर के बाद सर्वाधिक होने वाला यही बोवेल कैंसर है .तीसरा सबसे ज्यादा आमफ़हम कैंसर यही है .बेशक बोवेल कैंसर के होने की असल वजूहात किसी को भी नहीं मालूम अलबत्ता कौन कौन से खतरे और जोखिम तत्व हैं उनमे जोखिम के वजन को बढाने में पारिवारिक पूर्व वृत्तांत (फेमिली हिस्टरी )तथा बढती हुई बुदापे की उम्र तो है ही .
माहौल का भी इसे पनपाने में कुछ न कुछ हाथ रहता है यह कहना है सरह विलियम्स का .आपने उस माहौल का अध्ययन किया है जिसमे यह तेज़ी से बढ़ता है .अभी तो शुरुआत है आगे और भी अध्ययनों की दरकार रहेगी .
वक्त है धूम्रपान से परहेज़ रखते हुए इसके खतरे के वजन को थोड़ा कम किया जाए .एल्कोहल का सेवन कम किया जाए ,वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श रूप हेल्दी रखा जाए .सक्रिय जीवन शैली के साथ -साथ संशाधित और रेड मीट का खुराकी सेवन कमसे कम किया जाए .खाद्य रेशा बहुल खुराक को तरजीह दी जाए .
दोनों रिसर्च टीमों ने अपने अध्ययन में तकरीबन सौ से भी ज्यादा साम्पिलों का अध्ययन विश्लेषण किया है जिनमे स्वस्थ और कैंसर युक्त बोवेल टिश्यु शामिल रहें हैं .इन्हीं में से इस रोगकारक जीवाणु फूसोबेकटीरियम का पता चला है.टीम ने साम्पिलों में आनुवंशिक पदार्थ की शिनाख्त के बाद इस संभावित अंतर -सम्बन्ध की पुष्टि की है .
ram ram bhai
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
October 19,2011 .
TV hampers development in infants ,warn doctors
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
बालरोग माहिरों के एक अमरीकी समूह ने अपने एक अध्ययन के मार्फ़त माँ -बाप को चेताया है कि वह अपने शिशुओं (०-२ साला )को टीवी तथा वीडियोज न देखने दे ,हतोत्साहित करें .दो साल से कम उम्र के शिशुओं के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है उनके विकास को अवरुद्ध कर सकता है .
बेहतर हो माँ -बाप उनसे बतियाएं उन्हें स्वतंत्र रूप उछल कूद खेल के लिए उकसाएं .दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद पहली मर्तबाअमरीकी अकादमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के शिशु रोगों के माहिरों ने ये सिफारिशें ज़ारी की हैं .बाज़ आयें माँ -बाप अपने नन्नों को टीवी और वीडियोज से चिपकाने से .जी हाँ हुकिंग हो जाती है नौनिहालों की इन दृश्य छवियों से .टीवी और वीडियोज से .
१९९९ में भी ऐसी सलाह अमरीका के उस वक्त के सबसे बड़े बाल रोग माहिरों के संघ ने दी थी .इस मर्तबा एक नै सिफारिश यह की है स्वयम माँ -बाप को भी चेताया गया है बतलाते हुए कि उनका भी टीवी से ज्यादा चिपके रहना उनके बच्चों के बोलने बोलना सीखने की पहल को मुल्तवी और निलंबित रखेगा .इसलिए भी माँ -बाप को उनके साथ अधिकाधिक बतियाना ज़रूरी है .
"This updated policy statement provides further evidence that media -both foreground and background -have potentially negative effects and no known positive effects for children younger than two years,"it said.
बेशक ये अनुदेश "स्मार्ट फोन्स "पर खेले जाने वाले वीडियोगेम्स "को अपने दायरे से बाहर रखे हुए हैं .इन्हें इंटरेक्टिव समझा गया है .लेकिन पेसिव स्क्रीन वाचिंग पर यह सिफारिशें बा -कायदा लागू होतीं हैं .
गौर तलब है इन सिफारिशों को नजर अंदाज़ करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इस दौरे -दौरां में बच्चों को ही लक्षित रखते हुए बेबी डीवीडीज ज़ारी की जा रहीं हैं रोज़ -बा -रोज़ .९० %माँ -बाप इस बात को मानते हैं कि उनके शिशु (०-२ साला ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हुएँ हैं .यह एक चिंतनीय स्थिति है .समाधान माँ -बाप को ही तलाशना होगा .
ram ram bhai
'Breastmilk contains stem cells'
करामाती माँ का दूध ,ह्यूमेन ब्रेस्ट मिल्क कलम कोशाओं(स्टेम सेल्स ) से भी लैस है पोषक तत्व और इम्युनिटी का प्राथमिक स्रोत तो है ही .साइंसदानों के मुताबिक़ माँ के दूध में मौजूद इन कलम कोशाओं स्टेम या मास्टर सेल्स को न सिर्फ अश्थी कोशाओं में ढाला जा सकता है ,स्वयम स्तन कोशिकाएं भी इनसे गढ़ी जा सकतीं हैं ,रची जा सकतीं हैं उपास्थि कोशाएं (कार्तिलेजिज़ सेल्स ),वसा कोशाएं ,यकृत और अग्नाशय कोशिकाएं (पैन्क्रियेतिक सेल्स ) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साइंसदान Dr Foteini Hassiotou के नेत्रित्व में रिसर्चरों की एक होनहार टोली ने यहाँ तक आश्वस्त किया है , ब्रेस्ट मिल्क में लाइलाज पार्किन्संज़ तथा मधुमेह जैसे रोगों के प्रबंधन में भी मददगार बनने की क्षमता निहित है .
ram ram bhai
छरहरी काया के लिए प्रोटीन बहुल खुराक लीजिए .
20 .10.2011 / छरहरी काया के लिए प्रोटीन बहुल खुराक लीजिए .
एक नए अध्ययन के मुताबिक़ तन्वंगी बने रहने के लिए केवल केलोरी कम करना ही कॉफ़ी नहीं है खुराक में ज्यादा से ज्यादा प्रोटीनों को शामिल करना चाहिए .सिडनी विश्व विद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है कम प्रोटीन युक्त खुराक कुल एनर्जी इंटेक को बढा देती है .ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा स्नेक्स का सेवन करने लगतें हैं जिनकी खुराक में प्रोटीन कमतर रहतें हैं .नतीज़न वह ज़रुरत भर से कहीं ज्यादा खाते हैं .इस अध्ययन के नतीजे PLoS ONE जर्नल में प्रकाशित हुए हैं .पता यह भी चला है प्रोटीन का पर्याप्त सेवन ज्यादा संतुष्टि देता है भूख को ज्यादा देर तक शांत रखता है इसलिए लोग ज़रुरत भर ही खाते हैं तथाअतिरिक्त कार्बोहांड्रेट्स तथा चिकनाई युक्त पदार्थों के फ़िज़ूल गैर ज़रूरी सेवन से बचे रहते हैं .
पहली मर्तबा विज्ञान सम्मत पुष्टि हुई है इस बात की कि खुराकी प्रोटीन भूख को असर ग्रस्त करती है विनियमन करती है एपेटाईट का .
आलमी स्तर पर बढ़ते मोटापे ओबेसिटी का समाधान प्रस्तुत करता है यह अध्ययन .
कुदरती तौर पर आदमी का रुझान प्रोटीनों की तरफ ज्यादा होता है ,स्ट्रोंग एपेटाईट रहता है प्रोटीनों के प्रति लेकिन जब खुराक में इनकी कमीबेशी रह जाती है तब स्वाभाविक तौर पर ऊर्जा का इंटेक बढ़ जाता है .और आज के खान पानी माहौल में ,न्युत्रिश्नल एनवायरनमेंट में चिकनाई और मिठास सने सुस्वादु खाद्यों की सहज और सस्ते दामों पर सुलभता इनकी ओर व्यक्ति को ले जाती है .गहरे निहितार्थ हैं इसके वेट मेनेजमेंट में .वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श वजन बनाए रहने में प्रोटीनों के महत्व को नकारना मुश्किल है .
रिसर्चरों के मुताबिक़ प्रोतिनें ही ड्राइविंग फ़ोर्स बनती हैं कितने ही पशुओं के मामले में (घोड़े को लाल चने इसीलिए खिलाए जातें हैं ).
बेशक पूर्व में भी ऐसी सिफारिशें पोषण विदों ने की हैं कि ऊर्जा की कुल खपत का आधार प्रोतिनें ही बनतीं हैं लेकिन इसके विज्ञान सम्मत मात्रात्मक साक्ष्य इस अध्ययन ने ही पहली मर्तबा जुटाए हैं .खाओ चने रहो बने .
ram ram bhai
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
फूसोबेकटीरियम एक ऐसा रोगकारक जीवाणु है जो दंत क्षय और चमड़ी में होने वाले ज़ख्मों की वजह बनता रहा है .जब से रिसर्चरों की दो अलग अलग टोलियों को यह ज़रासीम बड़ी आंत के अर्बुदों (कोलोंन ट्यूमर्स )में मिला है आशंका यह जतलाई जा रही है यह या तो हमारी अंतड़ियों को गुदा से सम्बद्ध करने वाले बोवेल कैंसरों की वजह बनता है या फिर कैंसर पैदा करने वाले बदलाव पैदा करता है .बहरसूरत यह आकस्मिक तौर पर हाथ आया है या वास्तविक कुसूरवार है यह अभी तय नहीं है .
अन्वेषण ज़ारी रहेंगे .बेशक यदि यही वास्तविक कारक है काज़ेतिव एजेंट है तब एंटीबायोटिक से इसकी काट भी होनी चाहिए,.बचावी चिकित्सा भी .विज्ञान पत्रिका 'जीनोम रिसर्च 'में यह अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .
ब्रेस्ट और लंग कैंसर के बाद सर्वाधिक होने वाला यही बोवेल कैंसर है .तीसरा सबसे ज्यादा आमफ़हम कैंसर यही है .बेशक बोवेल कैंसर के होने की असल वजूहात किसी को भी नहीं मालूम अलबत्ता कौन कौन से खतरे और जोखिम तत्व हैं उनमे जोखिम के वजन को बढाने में पारिवारिक पूर्व वृत्तांत (फेमिली हिस्टरी )तथा बढती हुई बुदापे की उम्र तो है ही .
माहौल का भी इसे पनपाने में कुछ न कुछ हाथ रहता है यह कहना है सरह विलियम्स का .आपने उस माहौल का अध्ययन किया है जिसमे यह तेज़ी से बढ़ता है .अभी तो शुरुआत है आगे और भी अध्ययनों की दरकार रहेगी .
वक्त है धूम्रपान से परहेज़ रखते हुए इसके खतरे के वजन को थोड़ा कम किया जाए .एल्कोहल का सेवन कम किया जाए ,वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श रूप हेल्दी रखा जाए .सक्रिय जीवन शैली के साथ -साथ संशाधित और रेड मीट का खुराकी सेवन कमसे कम किया जाए .खाद्य रेशा बहुल खुराक को तरजीह दी जाए .
दोनों रिसर्च टीमों ने अपने अध्ययन में तकरीबन सौ से भी ज्यादा साम्पिलों का अध्ययन विश्लेषण किया है जिनमे स्वस्थ और कैंसर युक्त बोवेल टिश्यु शामिल रहें हैं .इन्हीं में से इस रोगकारक जीवाणु फूसोबेकटीरियम का पता चला है.टीम ने साम्पिलों में आनुवंशिक पदार्थ की शिनाख्त के बाद इस संभावित अंतर -सम्बन्ध की पुष्टि की है .
ram ram bhai
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
October 19,2011 .
TV hampers development in infants ,warn doctors
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
बालरोग माहिरों के एक अमरीकी समूह ने अपने एक अध्ययन के मार्फ़त माँ -बाप को चेताया है कि वह अपने शिशुओं (०-२ साला )को टीवी तथा वीडियोज न देखने दे ,हतोत्साहित करें .दो साल से कम उम्र के शिशुओं के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है उनके विकास को अवरुद्ध कर सकता है .
बेहतर हो माँ -बाप उनसे बतियाएं उन्हें स्वतंत्र रूप उछल कूद खेल के लिए उकसाएं .दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद पहली मर्तबाअमरीकी अकादमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के शिशु रोगों के माहिरों ने ये सिफारिशें ज़ारी की हैं .बाज़ आयें माँ -बाप अपने नन्नों को टीवी और वीडियोज से चिपकाने से .जी हाँ हुकिंग हो जाती है नौनिहालों की इन दृश्य छवियों से .टीवी और वीडियोज से .
१९९९ में भी ऐसी सलाह अमरीका के उस वक्त के सबसे बड़े बाल रोग माहिरों के संघ ने दी थी .इस मर्तबा एक नै सिफारिश यह की है स्वयम माँ -बाप को भी चेताया गया है बतलाते हुए कि उनका भी टीवी से ज्यादा चिपके रहना उनके बच्चों के बोलने बोलना सीखने की पहल को मुल्तवी और निलंबित रखेगा .इसलिए भी माँ -बाप को उनके साथ अधिकाधिक बतियाना ज़रूरी है .
"This updated policy statement provides further evidence that media -both foreground and background -have potentially negative effects and no known positive effects for children younger than two years,"it said.
बेशक ये अनुदेश "स्मार्ट फोन्स "पर खेले जाने वाले वीडियोगेम्स "को अपने दायरे से बाहर रखे हुए हैं .इन्हें इंटरेक्टिव समझा गया है .लेकिन पेसिव स्क्रीन वाचिंग पर यह सिफारिशें बा -कायदा लागू होतीं हैं .
गौर तलब है इन सिफारिशों को नजर अंदाज़ करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इस दौरे -दौरां में बच्चों को ही लक्षित रखते हुए बेबी डीवीडीज ज़ारी की जा रहीं हैं रोज़ -बा -रोज़ .९० %माँ -बाप इस बात को मानते हैं कि उनके शिशु (०-२ साला ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हुएँ हैं .यह एक चिंतनीय स्थिति है .समाधान माँ -बाप को ही तलाशना होगा .
ram ram bhai
'Breastmilk contains stem cells'
करामाती माँ का दूध ,ह्यूमेन ब्रेस्ट मिल्क कलम कोशाओं(स्टेम सेल्स ) से भी लैस है पोषक तत्व और इम्युनिटी का प्राथमिक स्रोत तो है ही .साइंसदानों के मुताबिक़ माँ के दूध में मौजूद इन कलम कोशाओं स्टेम या मास्टर सेल्स को न सिर्फ अश्थी कोशाओं में ढाला जा सकता है ,स्वयम स्तन कोशिकाएं भी इनसे गढ़ी जा सकतीं हैं ,रची जा सकतीं हैं उपास्थि कोशाएं (कार्तिलेजिज़ सेल्स ),वसा कोशाएं ,यकृत और अग्नाशय कोशिकाएं (पैन्क्रियेतिक सेल्स ) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साइंसदान Dr Foteini Hassiotou के नेत्रित्व में रिसर्चरों की एक होनहार टोली ने यहाँ तक आश्वस्त किया है , ब्रेस्ट मिल्क में लाइलाज पार्किन्संज़ तथा मधुमेह जैसे रोगों के प्रबंधन में भी मददगार बनने की क्षमता निहित है .
ram ram bhai
1013 ,Luxmibai Ngr ,New -Delhi-110-023 .
093 50 98 66 85
एक नए अध्ययन के मुताबिक़ तन्वंगी बने रहने के लिए केवल केलोरी कम करना ही कॉफ़ी नहीं है खुराक में ज्यादा से ज्यादा प्रोटीनों को शामिल करना चाहिए .सिडनी विश्व विद्यालय के रिसर्चरों ने पता लगाया है कम प्रोटीन युक्त खुराक कुल एनर्जी इंटेक को बढा देती है .ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा स्नेक्स का सेवन करने लगतें हैं जिनकी खुराक में प्रोटीन कमतर रहतें हैं .नतीज़न वह ज़रुरत भर से कहीं ज्यादा खाते हैं .इस अध्ययन के नतीजे PLoS ONE जर्नल में प्रकाशित हुए हैं .पता यह भी चला है प्रोटीन का पर्याप्त सेवन ज्यादा संतुष्टि देता है भूख को ज्यादा देर तक शांत रखता है इसलिए लोग ज़रुरत भर ही खाते हैं तथाअतिरिक्त कार्बोहांड्रेट्स तथा चिकनाई युक्त पदार्थों के फ़िज़ूल गैर ज़रूरी सेवन से बचे रहते हैं .
पहली मर्तबा विज्ञान सम्मत पुष्टि हुई है इस बात की कि खुराकी प्रोटीन भूख को असर ग्रस्त करती है विनियमन करती है एपेटाईट का .
आलमी स्तर पर बढ़ते मोटापे ओबेसिटी का समाधान प्रस्तुत करता है यह अध्ययन .
कुदरती तौर पर आदमी का रुझान प्रोटीनों की तरफ ज्यादा होता है ,स्ट्रोंग एपेटाईट रहता है प्रोटीनों के प्रति लेकिन जब खुराक में इनकी कमीबेशी रह जाती है तब स्वाभाविक तौर पर ऊर्जा का इंटेक बढ़ जाता है .और आज के खान पानी माहौल में ,न्युत्रिश्नल एनवायरनमेंट में चिकनाई और मिठास सने सुस्वादु खाद्यों की सहज और सस्ते दामों पर सुलभता इनकी ओर व्यक्ति को ले जाती है .गहरे निहितार्थ हैं इसके वेट मेनेजमेंट में .वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श वजन बनाए रहने में प्रोटीनों के महत्व को नकारना मुश्किल है .
रिसर्चरों के मुताबिक़ प्रोतिनें ही ड्राइविंग फ़ोर्स बनती हैं कितने ही पशुओं के मामले में (घोड़े को लाल चने इसीलिए खिलाए जातें हैं ).
बेशक पूर्व में भी ऐसी सिफारिशें पोषण विदों ने की हैं कि ऊर्जा की कुल खपत का आधार प्रोतिनें ही बनतीं हैं लेकिन इसके विज्ञान सम्मत मात्रात्मक साक्ष्य इस अध्ययन ने ही पहली मर्तबा जुटाए हैं .खाओ चने रहो बने .
ram ram bhai
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
फूसोबेकटीरियम एक ऐसा रोगकारक जीवाणु है जो दंत क्षय और चमड़ी में होने वाले ज़ख्मों की वजह बनता रहा है .जब से रिसर्चरों की दो अलग अलग टोलियों को यह ज़रासीम बड़ी आंत के अर्बुदों (कोलोंन ट्यूमर्स )में मिला है आशंका यह जतलाई जा रही है यह या तो हमारी अंतड़ियों को गुदा से सम्बद्ध करने वाले बोवेल कैंसरों की वजह बनता है या फिर कैंसर पैदा करने वाले बदलाव पैदा करता है .बहरसूरत यह आकस्मिक तौर पर हाथ आया है या वास्तविक कुसूरवार है यह अभी तय नहीं है .
अन्वेषण ज़ारी रहेंगे .बेशक यदि यही वास्तविक कारक है काज़ेतिव एजेंट है तब एंटीबायोटिक से इसकी काट भी होनी चाहिए,.बचावी चिकित्सा भी .विज्ञान पत्रिका 'जीनोम रिसर्च 'में यह अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .
ब्रेस्ट और लंग कैंसर के बाद सर्वाधिक होने वाला यही बोवेल कैंसर है .तीसरा सबसे ज्यादा आमफ़हम कैंसर यही है .बेशक बोवेल कैंसर के होने की असल वजूहात किसी को भी नहीं मालूम अलबत्ता कौन कौन से खतरे और जोखिम तत्व हैं उनमे जोखिम के वजन को बढाने में पारिवारिक पूर्व वृत्तांत (फेमिली हिस्टरी )तथा बढती हुई बुदापे की उम्र तो है ही .
माहौल का भी इसे पनपाने में कुछ न कुछ हाथ रहता है यह कहना है सरह विलियम्स का .आपने उस माहौल का अध्ययन किया है जिसमे यह तेज़ी से बढ़ता है .अभी तो शुरुआत है आगे और भी अध्ययनों की दरकार रहेगी .
वक्त है धूम्रपान से परहेज़ रखते हुए इसके खतरे के वजन को थोड़ा कम किया जाए .एल्कोहल का सेवन कम किया जाए ,वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श रूप हेल्दी रखा जाए .सक्रिय जीवन शैली के साथ -साथ संशाधित और रेड मीट का खुराकी सेवन कमसे कम किया जाए .खाद्य रेशा बहुल खुराक को तरजीह दी जाए .
दोनों रिसर्च टीमों ने अपने अध्ययन में तकरीबन सौ से भी ज्यादा साम्पिलों का अध्ययन विश्लेषण किया है जिनमे स्वस्थ और कैंसर युक्त बोवेल टिश्यु शामिल रहें हैं .इन्हीं में से इस रोगकारक जीवाणु फूसोबेकटीरियम का पता चला है.टीम ने साम्पिलों में आनुवंशिक पदार्थ की शिनाख्त के बाद इस संभावित अंतर -सम्बन्ध की पुष्टि की है .
ram ram bhai
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
October 19,2011 .
TV hampers development in infants ,warn doctors
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
बालरोग माहिरों के एक अमरीकी समूह ने अपने एक अध्ययन के मार्फ़त माँ -बाप को चेताया है कि वह अपने शिशुओं (०-२ साला )को टीवी तथा वीडियोज न देखने दे ,हतोत्साहित करें .दो साल से कम उम्र के शिशुओं के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है उनके विकास को अवरुद्ध कर सकता है .
बेहतर हो माँ -बाप उनसे बतियाएं उन्हें स्वतंत्र रूप उछल कूद खेल के लिए उकसाएं .दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद पहली मर्तबाअमरीकी अकादमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के शिशु रोगों के माहिरों ने ये सिफारिशें ज़ारी की हैं .बाज़ आयें माँ -बाप अपने नन्नों को टीवी और वीडियोज से चिपकाने से .जी हाँ हुकिंग हो जाती है नौनिहालों की इन दृश्य छवियों से .टीवी और वीडियोज से .
१९९९ में भी ऐसी सलाह अमरीका के उस वक्त के सबसे बड़े बाल रोग माहिरों के संघ ने दी थी .इस मर्तबा एक नै सिफारिश यह की है स्वयम माँ -बाप को भी चेताया गया है बतलाते हुए कि उनका भी टीवी से ज्यादा चिपके रहना उनके बच्चों के बोलने बोलना सीखने की पहल को मुल्तवी और निलंबित रखेगा .इसलिए भी माँ -बाप को उनके साथ अधिकाधिक बतियाना ज़रूरी है .
"This updated policy statement provides further evidence that media -both foreground and background -have potentially negative effects and no known positive effects for children younger than two years,"it said.
बेशक ये अनुदेश "स्मार्ट फोन्स "पर खेले जाने वाले वीडियोगेम्स "को अपने दायरे से बाहर रखे हुए हैं .इन्हें इंटरेक्टिव समझा गया है .लेकिन पेसिव स्क्रीन वाचिंग पर यह सिफारिशें बा -कायदा लागू होतीं हैं .
गौर तलब है इन सिफारिशों को नजर अंदाज़ करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इस दौरे -दौरां में बच्चों को ही लक्षित रखते हुए बेबी डीवीडीज ज़ारी की जा रहीं हैं रोज़ -बा -रोज़ .९० %माँ -बाप इस बात को मानते हैं कि उनके शिशु (०-२ साला ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हुएँ हैं .यह एक चिंतनीय स्थिति है .समाधान माँ -बाप को ही तलाशना होगा .
ram ram bhai
'Breastmilk contains stem cells'
करामाती माँ का दूध ,ह्यूमेन ब्रेस्ट मिल्क कलम कोशाओं(स्टेम सेल्स ) से भी लैस है पोषक तत्व और इम्युनिटी का प्राथमिक स्रोत तो है ही .साइंसदानों के मुताबिक़ माँ के दूध में मौजूद इन कलम कोशाओं स्टेम या मास्टर सेल्स को न सिर्फ अश्थी कोशाओं में ढाला जा सकता है ,स्वयम स्तन कोशिकाएं भी इनसे गढ़ी जा सकतीं हैं ,रची जा सकतीं हैं उपास्थि कोशाएं (कार्तिलेजिज़ सेल्स ),वसा कोशाएं ,यकृत और अग्नाशय कोशिकाएं (पैन्क्रियेतिक सेल्स ) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साइंसदान Dr Foteini Hassiotou के नेत्रित्व में रिसर्चरों की एक होनहार टोली ने यहाँ तक आश्वस्त किया है , ब्रेस्ट मिल्क में लाइलाज पार्किन्संज़ तथा मधुमेह जैसे रोगों के प्रबंधन में भी मददगार बनने की क्षमता निहित है .
ram ram bhai
1013 ,Luxmibai Ngr ,New -Delhi-110-023 .
093 50 98 66 85
बुधवार, 19 अक्तूबर 2011
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
Tooth -decay germs tied to bowel cancer
फूसोबेकटीरियम एक ऐसा रोगकारक जीवाणु है जो दंत क्षय और चमड़ी में होने वाले ज़ख्मों की वजह बनता रहा है .जब से रिसर्चरों की दो अलग अलग टोलियों को यह ज़रासीम बड़ी आंत के अर्बुदों (कोलोंन ट्यूमर्स )में मिला है आशंका यह जतलाई जा रही है यह या तो हमारी अंतड़ियों को गुदा से सम्बद्ध करने वाले बोवेल कैंसरों की वजह बनता है या फिर कैंसर पैदा करने वाले बदलाव पैदा करता है .बहरसूरत यह आकस्मिक तौर पर हाथ आया है या वास्तविक कुसूरवार है यह अभी तय नहीं है .
अन्वेषण ज़ारी रहेंगे .बेशक यदि यही वास्तविक कारक है काज़ेतिव एजेंट है तब एंटीबायोटिक से इसकी काट भी होनी चाहिए,.बचावी चिकित्सा भी .विज्ञान पत्रिका 'जीनोम रिसर्च 'में यह अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .
ब्रेस्ट और लंग कैंसर के बाद सर्वाधिक होने वाला यही बोवेल कैंसर है .तीसरा सबसे ज्यादा आमफ़हम कैंसर यही है .बेशक बोवेल कैंसर के होने की असल वजूहात किसी को भी नहीं मालूम अलबत्ता कौन कौन से खतरे और जोखिम तत्व हैं उनमे जोखिम के वजन को बढाने में पारिवारिक पूर्व वृत्तांत (फेमिली हिस्टरी )तथा बढती हुई बुदापे की उम्र तो है ही .
माहौल का भी इसे पनपाने में कुछ न कुछ हाथ रहता है यह कहना है सरह विलियम्स का .आपने उस माहौल का अध्ययन किया है जिसमे यह तेज़ी से बढ़ता है .अभी तो शुरुआत है आगे और भी अध्ययनों की दरकार रहेगी .
वक्त है धूम्रपान से परहेज़ रखते हुए इसके खतरे के वजन को थोड़ा कम किया जाए .एल्कोहल का सेवन कम किया जाए ,वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श रूप हेल्दी रखा जाए .सक्रिय जीवन शैली के साथ -साथ संशाधित और रेड मीट का खुराकी सेवन कमसे कम किया जाए .खाद्य रेशा बहुल खुराक को तरजीह दी जाए .
दोनों रिसर्च टीमों ने अपने अध्ययन में तकरीबन सौ से भी ज्यादा साम्पिलों का अध्ययन विश्लेषण किया है जिनमे स्वस्थ और कैंसर युक्त बोवेल टिश्यु शामिल रहें हैं .इन्हीं में से इस रोगकारक जीवाणु फूसोबेकटीरियम का पता चला है.टीम ने साम्पिलों में आनुवंशिक पदार्थ की शिनाख्त के बाद इस संभावित अंतर -सम्बन्ध की पुष्टि की है .
ram ram bhai
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
October 19,2011 .
TV hampers development in infants ,warn doctors
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
बालरोग माहिरों के एक अमरीकी समूह ने अपने एक अध्ययन के मार्फ़त माँ -बाप को चेताया है कि वह अपने शिशुओं (०-२ साला )को टीवी तथा वीडियोज न देखने दे ,हतोत्साहित करें .दो साल से कम उम्र के शिशुओं के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है उनके विकास को अवरुद्ध कर सकता है .
बेहतर हो माँ -बाप उनसे बतियाएं उन्हें स्वतंत्र रूप उछल कूद खेल के लिए उकसाएं .दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद पहली मर्तबाअमरीकी अकादमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के शिशु रोगों के माहिरों ने ये सिफारिशें ज़ारी की हैं .बाज़ आयें माँ -बाप अपने नन्नों को टीवी और वीडियोज से चिपकाने से .जी हाँ हुकिंग हो जाती है नौनिहालों की इन दृश्य छवियों से .टीवी और वीडियोज से .
१९९९ में भी ऐसी सलाह अमरीका के उस वक्त के सबसे बड़े बाल रोग माहिरों के संघ ने दी थी .इस मर्तबा एक नै सिफारिश यह की है स्वयम माँ -बाप को भी चेताया गया है बतलाते हुए कि उनका भी टीवी से ज्यादा चिपके रहना उनके बच्चों के बोलने बोलना सीखने की पहल को मुल्तवी और निलंबित रखेगा .इसलिए भी माँ -बाप को उनके साथ अधिकाधिक बतियाना ज़रूरी है .
"This updated policy statement provides further evidence that media -both foreground and background -have potentially negative effects and no known positive effects for children younger than two years,"it said.
बेशक ये अनुदेश "स्मार्ट फोन्स "पर खेले जाने वाले वीडियोगेम्स "को अपने दायरे से बाहर रखे हुए हैं .इन्हें इंटरेक्टिव समझा गया है .लेकिन पेसिव स्क्रीन वाचिंग पर यह सिफारिशें बा -कायदा लागू होतीं हैं .
गौर तलब है इन सिफारिशों को नजर अंदाज़ करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इस दौरे -दौरां में बच्चों को ही लक्षित रखते हुए बेबी डीवीडीज ज़ारी की जा रहीं हैं रोज़ -बा -रोज़ .९० %माँ -बाप इस बात को मानते हैं कि उनके शिशु (०-२ साला ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हुएँ हैं .यह एक चिंतनीय स्थिति है .समाधान माँ -बाप को ही तलाशना होगा .
ram ram bhai
October19 ,2011 .
'Breastmilk contains stem cells'
करामाती माँ का दूध ,ह्यूमेन ब्रेस्ट मिल्क कलम कोशाओं(स्टेम सेल्स ) से भी लैस है पोषक तत्व और इम्युनिटी का प्राथमिक स्रोत तो है ही .साइंसदानों के मुताबिक़ माँ के दूध में मौजूद इन कलम कोशाओं स्टेम या मास्टर सेल्स को न सिर्फ अश्थी कोशाओं में ढाला जा सकता है ,स्वयम स्तन कोशिकाएं भी इनसे गढ़ी जा सकतीं हैं ,रची जा सकतीं हैं उपास्थि कोशाएं (कार्तिलेजिज़ सेल्स ),वसा कोशाएं ,यकृत और अग्नाशय कोशिकाएं (पैन्क्रियेतिक सेल्स ) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साइंसदान Dr Foteini Hassiotou के नेत्रित्व में रिसर्चरों की एक होनहार टोली ने यहाँ तक आश्वस्त किया है , ब्रेस्ट मिल्क में लाइलाज पार्किन्संज़ तथा मधुमेह जैसे रोगों के प्रबंधन में भी मददगार बनने की क्षमता निहित है .
ram ram bhai
चप्पलसियासी .
स्थान हिसार हो या लखनऊ बात एक ही है .जब आदमी अपमान का बदला लेने की ठान लेता है तब स्थान बे -मानी हो जाता है .जालौन वाले जीतेन्द्र भाई पाठक जब यह कहतें हैं कि वह अरविन्द केजरीवाल की इज्ज़त करतें हैं तब यह उनका मूल आशय ही होता है .यू पी वाले वैसे भी तहज़ीबे याफ्ता होतें हैं .फिर सहसा उन्हें ध्यान आता है उन्हें तो यह काम करने के लिए भेजा गया है .पैसा भी अग्रिम मिला है .तब ज़नाब फर्मातें हैं -ज़नाब अरविन्द केजरीवाल साहब लोगों को बरगला रहें हैं .और सियासी चप्पल वह अरविन्द जी की ओर उछाल देतें हैं .जनता तो सिर्फ सच जानना चाहती है कचहरी का फैसला जब आयेगा तब आयेगा ,कुछ बातें स्पष्ट हैं .वह कौन सी पार्टी है जो आज भ्रष्टाचार के नाम से बिदक रही है .बी जे पी तो हो नहीं सकती वह तो अपरोक्ष रूप अन्ना जी के समर्थन में खड़ी है .खुद कोंग्रेस ऐसा मानती है .मायावती सामने से वार करतीं हैं .लिखकर करतीं हैं किसी से धौंस्ती नहीं है .मुलायामजी दो मुस्लिम सांसदों की वर्चस्व को लेकर लड़ाई से अवसाद ग्रस्त हैं .उनकी पार्टी यह काम नहीं कर सकती .लेफ्टिए तो इन दिनों चर्चा में ही नहीं है .सहज अनुमेय है यह कौन सी पार्टी है जिनका एक महासचिव कुछ और बोलता है और काग भगोड़ा कुछ और बोलता है .जिसके द्वारा अन्नाजी को लिखे पत्रों में ही तारतम्य नहीं है .जो अपने ही प्रवक्ताओं को बारहा नकार रही है .महा -सचिवों के लिखे बोले के लिए एक मुंह से उन्हें फटकार रही है दूसरे से यह सब जो वह लिख कह रहें हैं उसे उनकी व्यक्तिगत राय बतला रही है .यह जनता यूं ही नहीं अन्ना जी के पीछे आई है .भ्रष्टाचार एक केन्द्रीय मुद्दा बन चुका है .इससे जो लोग बे -तहाशा घबराए हुए हैं वह किस पार्टी के हैं कहाँ से आदेश ले रहें हैं उसका हाईकमान कौन है और रिमोट कौन ,कौन काग भगोड़ा है कौन मंद मति बालक यह हिन्दुस्तान का आवाम बा -खूबी जानता है .जितेन्द्र पाठक जालौन की भाषा नहीं बोल रहें हैं .वह तो मात्र राजनीति के भाषिक मोहरे हैं इस भाषा के सूत्र और सूत्रधार इस सियासी मिसाइल के कहीं और हैं .हमें तो भोपाली अपसंस्कृति की गंध आती है आपकी आप जानें .हमें अवगत ज़रूर कराएं .
ram ram bhai
'Stressed -out mothers more likely to have girls'
हो सकता पढने के बाद आपको थोड़ा अज़ीब लगे लेकिनऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक शोध से मिले संकेत बतलातें हैं कि वे भावी माताएं जो तनाव ग्रस्त रहतीं हैं गर्भधारण से ठीक पहले के अरसे में उनके कन्याओं को जन्म देने की संभावना बढ़ जाती है . रिसर्चरों ने पता लगाया है कि वह महिलाएं जो घर में या कार्यस्थलों पर या फिर अपने प्रेम संबंधों में भी गर्भधारण से पहले के चंद हफ़्तों ,या फिर चंद महीनों में दवाब ग्रस्त मन और शरीर लिए रहतीं हैं उनके प्रसव बाद कन्याओं को जन्म देने की संभावना लड़कों के बनिस्पत ज्यादा हो जाती है .
Virus behind 40%of cancers :
साइंसदानों ने दावा किया है कि तमाम किस्म के कैंसरों में से ४०% विषाणु जन्य होतें हैं .वायरस ही इनकी वजह बनतें हैं .स्वीडन के कैरोलिंस्का संस्थान की एक रिसर्च टीम के मुताबिक़ बाल पन के एक आमफ़हम दिमागी ट्यूमर"MEDULLOBLASTOMA" औरएक ख़ास विषाणु के बीच एक अंतर्संबंध की पुष्टि हुई है .
ram ram bhai
Ladies ,kick the butt or risk early menopause
Premature Onset Raises Death Risk ,Study
Early menopause is tied to osteoporosis ,Alzehimer's
जो महिलाएं धूम्रपान करतीं हैं वह औसतन रजोनिवृत्त की आम उम्र से साल भर पहले ही रजोनिवृत्त हो सकती है बरक्स उनके जो धूम्रपान नहीं करतीं हैं .और इसी के साथ अश्थी क्षय से सम्बंधित रोग ओस्टियोपोरोसिस तथा दिल की बीमारियों के खतरे का वजन भी बढ़ता जाता है .
विज्ञान पत्रिका मीनोपोज़ में प्रकाशित इस अध्ययन में पूर्व के कई और अध्ययनों से प्राप्त आंकड़ों को भी शामिल किया गया है जिनमे अमरीका ,पोलेंड ,तुर्की और ईरान की तकरीबन ६००० महिलाएं शरीक थीं .
औसतन वे महिलाएं जो धूम्रपान नहीं करतीं हैं वह ४६-५१ साल के बीच रजो -निवृत्त हो जातीं हैं .
लेकिन यदि दो अध्ययनों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तब धूम्रपान करने वाली महिलाओं मेंबाकी सभी अध्ययनों में ४३ -५० साल के बीच रजोनिवृत्ती दर्ज़ हुई है .मीनोपोज़ के दरमियान अंडाशय (दोनों ही ओवरीज़ )ह्यूमेन एग तैयार करने की क्षमता खो देते हैं .स्पर्मेताज़ोयाँ और फीमेल एग के मिलन से होने वाली गर्भधारण की अवस्था कन्सेप्शन इसीलिए हमेशा के लिए टल जाती है . औरत गर्भ धारण नहीं कर पाती है .
ज़ाहिर है धूम्रपान का महिलाओं में बढ़ता चलन उनके गर्भकाल में दखल पहुंचाता है .रजोनिवृत्ती को समय से पहले आमंत्रित करता है .
होन्ग कोंग विश्वविद्यालय के रिसर्चर Volodymyr Dvornyk इस अध्ययन के प्रमुख रचनाकार रहें हैं .आपने अपने सह -शोध कर्ताओं के संग मिलकर पांच अन्य अध्ययनों का भी विश्लेषण किया है ,इनमे मीनोपोज़ और अर्ली मीनोपोज़ की कट ऑफ़ एज ५० या फिर ५१ साल रखी गई थी .इन्हीं दो वर्गों में महिलाओं को देखा परखा गया .
इस विश्लेषण में शरीक ४३,००० महिलाओं में से जो धूम्रपान करती आईं थीं उनमे अर्ली रजो -निवृत्ति की संभावना ४३ % प्रबल देखी गई .ज्यादा देखी गई .बतला दें आपको अर्ली और लेट मीनोपोज़ दोनों ही स्वाथ्य के प्रतिकूल परिश्तिथियाँ हैं .स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम इनसे चस्पां रहें हैं .
Women who hit menopause late are thought to be at higher risk of breast cancer because one risk factor for the disease is more time exposed to estrogen .
आम सहमती इस बात पर रही आई है कि अर्ली मीनोपोज़ उन स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों को भी और ज्यादा तथा गुरु गंभीर बना देती है जिनका नाता रजोनिवृत्ती के बाद की स्वास्थ्य समस्याओं से रहता है मसलन अश्थी क्षय (लोस ऑफ़ बोन मॉस यानी ओस्टियोपोरोसिस ),हृदवाहिकीय (कार्डियोवैस्क्युलर प्रोब्लम्स ),मधु मेह (डायबितीज़ ),मोटापा तथा बुढापे के डिमेंशिया अल्ज़ाइमर्स एवं अन्य अनेक रोगों से रहता है .कुलमिलाकर अर्ली मीनोपोज़ आइन्दा के लिए (बाद के बरसों के लिए )मौत के खतरे को भी थोड़ा सा बढा देती है.
ram ram bhai
स्तन कैंसर से जुड़े मिथ और यथार्थ
अक्टूबर का महीना ब्रेस्ट कैंसर जागरूकता को समर्पित महीना है ..स्तन कैंसर से जुड़े मिथ और यथार्थ की हम लगातार चर्चा करेंगे .पहला मिथ -
Myth: Only women with a family history of breast cancer are at risk.
यथार्थ -जिन महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर रोग निदान के रूप में पुख्ता होता है डाय्गनोज़ होता है उनमे से तकरीबन ७० %महिलाओं में किसी भी किस्म के जोखिम तत्व या रिस्क फेक्टर मौजूद नहीं रहतें हैं .
अलबत्ता स्तन कैंसर के खतरे का वजन उन महिलाओं के लिए बढ़ जाता है जहां परिवार में एक दम से नजदीकी सगे सम्बन्धी में यह रोग चला आया हो .मसलन सम्बन्धियों में यदि माँ -बाप ,सहोदर (सिबलिंग )अथवा संतान में से किसी को यह रोग निदान हुआ हो या हुआ है तब उनसे सम्बद्ध महिला के लिए इसके खतरे
का वजन दोगुआ हो जाता है .
यही ख़तरा तब और भी ज्यादा हो जाता है जब इनमे से एक से ज्यादा सम्बन्धियों (फस्ट ऑर्डर रिलेतिव्ज़ )में यह रोग मौजूद रहा हो या मौजूद है .
Myth: Wearing an underwire bra increases your risk of getting breast cancer
Myth: Wearing an underwire bra increases your risk of getting breast cancer
Reality: Claims that underwire bras compress the lymphatic system of the breast, causing toxins to accumulate and cause breast cancer, have been widely debunked as unscientific. The consensus is that neither the type of bra you wear nor the tightness of your underwear or other clothing has any connection to breast cancer risk.
लिम्फेटिक प्रणाली या लसिका तंत्र वाहिकाओं का वेसिल्स का एक संजाल होता है नेटवर्क होता है जो तरल ,प्रोटीनों ,वसाओं (फैट्स )तथा स्वेत रुधिर कोशाओं (लिम्फोसाइटों )को ऊतकों के बीच के अंतराल से निकालकर रक्त प्रवाह तक पहुंचाता है .तथा ऊतकों से सूक्ष्म जैविक संगठनों (माइक्रोओर्गेनिज्म )तथा इतर कचरे की निकासी करता है .
Lymphatic system is a network of vessels that transport fluid ,fats ,proteins and lymphocytes to the blood stream as lymph ,and remove microorganisms and other debris from tissues .
महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना कि ऐसी चोलियाँ पहनने से लिम्फ तंत्र पर दवाब पड़ता है इस संपीडन (कम्प्रेशन )से जो विषाक्त पदार्थ (तोक्सिनें )जमा हो जातीं हैं वही स्तन कैंसर की वजह बन जातीं हैं .यह धारणा विज्ञान के स्तर पर नितांत भ्रामक सिद्ध हो चुकी है .मिथ्या है यथार्थ नहीं .
यथार्थ यह है कि न तो ऐसी कसावदार चोली और न ही टाईट ब्रीफ्स (अंडरवीयार्स )इसकी वजह बनते हैं .ब्रेस्ट कैंसर का इनसे दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है .
फूसोबेकटीरियम एक ऐसा रोगकारक जीवाणु है जो दंत क्षय और चमड़ी में होने वाले ज़ख्मों की वजह बनता रहा है .जब से रिसर्चरों की दो अलग अलग टोलियों को यह ज़रासीम बड़ी आंत के अर्बुदों (कोलोंन ट्यूमर्स )में मिला है आशंका यह जतलाई जा रही है यह या तो हमारी अंतड़ियों को गुदा से सम्बद्ध करने वाले बोवेल कैंसरों की वजह बनता है या फिर कैंसर पैदा करने वाले बदलाव पैदा करता है .बहरसूरत यह आकस्मिक तौर पर हाथ आया है या वास्तविक कुसूरवार है यह अभी तय नहीं है .
अन्वेषण ज़ारी रहेंगे .बेशक यदि यही वास्तविक कारक है काज़ेतिव एजेंट है तब एंटीबायोटिक से इसकी काट भी होनी चाहिए,.बचावी चिकित्सा भी .विज्ञान पत्रिका 'जीनोम रिसर्च 'में यह अन्वेषण प्रकाशित हुआ है .
ब्रेस्ट और लंग कैंसर के बाद सर्वाधिक होने वाला यही बोवेल कैंसर है .तीसरा सबसे ज्यादा आमफ़हम कैंसर यही है .बेशक बोवेल कैंसर के होने की असल वजूहात किसी को भी नहीं मालूम अलबत्ता कौन कौन से खतरे और जोखिम तत्व हैं उनमे जोखिम के वजन को बढाने में पारिवारिक पूर्व वृत्तांत (फेमिली हिस्टरी )तथा बढती हुई बुदापे की उम्र तो है ही .
माहौल का भी इसे पनपाने में कुछ न कुछ हाथ रहता है यह कहना है सरह विलियम्स का .आपने उस माहौल का अध्ययन किया है जिसमे यह तेज़ी से बढ़ता है .अभी तो शुरुआत है आगे और भी अध्ययनों की दरकार रहेगी .
वक्त है धूम्रपान से परहेज़ रखते हुए इसके खतरे के वजन को थोड़ा कम किया जाए .एल्कोहल का सेवन कम किया जाए ,वजन को कद काठी के अनुरूप आदर्श रूप हेल्दी रखा जाए .सक्रिय जीवन शैली के साथ -साथ संशाधित और रेड मीट का खुराकी सेवन कमसे कम किया जाए .खाद्य रेशा बहुल खुराक को तरजीह दी जाए .
दोनों रिसर्च टीमों ने अपने अध्ययन में तकरीबन सौ से भी ज्यादा साम्पिलों का अध्ययन विश्लेषण किया है जिनमे स्वस्थ और कैंसर युक्त बोवेल टिश्यु शामिल रहें हैं .इन्हीं में से इस रोगकारक जीवाणु फूसोबेकटीरियम का पता चला है.टीम ने साम्पिलों में आनुवंशिक पदार्थ की शिनाख्त के बाद इस संभावित अंतर -सम्बन्ध की पुष्टि की है .
ram ram bhai
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
October 19,2011 .
TV hampers development in infants ,warn doctors
शिशु विकास के पंख नोचता है बुद्धू बक्सा .
बालरोग माहिरों के एक अमरीकी समूह ने अपने एक अध्ययन के मार्फ़त माँ -बाप को चेताया है कि वह अपने शिशुओं (०-२ साला )को टीवी तथा वीडियोज न देखने दे ,हतोत्साहित करें .दो साल से कम उम्र के शिशुओं के लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है उनके विकास को अवरुद्ध कर सकता है .
बेहतर हो माँ -बाप उनसे बतियाएं उन्हें स्वतंत्र रूप उछल कूद खेल के लिए उकसाएं .दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद पहली मर्तबाअमरीकी अकादमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के शिशु रोगों के माहिरों ने ये सिफारिशें ज़ारी की हैं .बाज़ आयें माँ -बाप अपने नन्नों को टीवी और वीडियोज से चिपकाने से .जी हाँ हुकिंग हो जाती है नौनिहालों की इन दृश्य छवियों से .टीवी और वीडियोज से .
१९९९ में भी ऐसी सलाह अमरीका के उस वक्त के सबसे बड़े बाल रोग माहिरों के संघ ने दी थी .इस मर्तबा एक नै सिफारिश यह की है स्वयम माँ -बाप को भी चेताया गया है बतलाते हुए कि उनका भी टीवी से ज्यादा चिपके रहना उनके बच्चों के बोलने बोलना सीखने की पहल को मुल्तवी और निलंबित रखेगा .इसलिए भी माँ -बाप को उनके साथ अधिकाधिक बतियाना ज़रूरी है .
"This updated policy statement provides further evidence that media -both foreground and background -have potentially negative effects and no known positive effects for children younger than two years,"it said.
बेशक ये अनुदेश "स्मार्ट फोन्स "पर खेले जाने वाले वीडियोगेम्स "को अपने दायरे से बाहर रखे हुए हैं .इन्हें इंटरेक्टिव समझा गया है .लेकिन पेसिव स्क्रीन वाचिंग पर यह सिफारिशें बा -कायदा लागू होतीं हैं .
गौर तलब है इन सिफारिशों को नजर अंदाज़ करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इस दौरे -दौरां में बच्चों को ही लक्षित रखते हुए बेबी डीवीडीज ज़ारी की जा रहीं हैं रोज़ -बा -रोज़ .९० %माँ -बाप इस बात को मानते हैं कि उनके शिशु (०-२ साला ) इलेक्ट्रोनिक मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हुएँ हैं .यह एक चिंतनीय स्थिति है .समाधान माँ -बाप को ही तलाशना होगा .
ram ram bhai
October19 ,2011 .
'Breastmilk contains stem cells'
करामाती माँ का दूध ,ह्यूमेन ब्रेस्ट मिल्क कलम कोशाओं(स्टेम सेल्स ) से भी लैस है पोषक तत्व और इम्युनिटी का प्राथमिक स्रोत तो है ही .साइंसदानों के मुताबिक़ माँ के दूध में मौजूद इन कलम कोशाओं स्टेम या मास्टर सेल्स को न सिर्फ अश्थी कोशाओं में ढाला जा सकता है ,स्वयम स्तन कोशिकाएं भी इनसे गढ़ी जा सकतीं हैं ,रची जा सकतीं हैं उपास्थि कोशाएं (कार्तिलेजिज़ सेल्स ),वसा कोशाएं ,यकृत और अग्नाशय कोशिकाएं (पैन्क्रियेतिक सेल्स ) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के साइंसदान Dr Foteini Hassiotou के नेत्रित्व में रिसर्चरों की एक होनहार टोली ने यहाँ तक आश्वस्त किया है , ब्रेस्ट मिल्क में लाइलाज पार्किन्संज़ तथा मधुमेह जैसे रोगों के प्रबंधन में भी मददगार बनने की क्षमता निहित है .
ram ram bhai
चप्पलसियासी .
स्थान हिसार हो या लखनऊ बात एक ही है .जब आदमी अपमान का बदला लेने की ठान लेता है तब स्थान बे -मानी हो जाता है .जालौन वाले जीतेन्द्र भाई पाठक जब यह कहतें हैं कि वह अरविन्द केजरीवाल की इज्ज़त करतें हैं तब यह उनका मूल आशय ही होता है .यू पी वाले वैसे भी तहज़ीबे याफ्ता होतें हैं .फिर सहसा उन्हें ध्यान आता है उन्हें तो यह काम करने के लिए भेजा गया है .पैसा भी अग्रिम मिला है .तब ज़नाब फर्मातें हैं -ज़नाब अरविन्द केजरीवाल साहब लोगों को बरगला रहें हैं .और सियासी चप्पल वह अरविन्द जी की ओर उछाल देतें हैं .जनता तो सिर्फ सच जानना चाहती है कचहरी का फैसला जब आयेगा तब आयेगा ,कुछ बातें स्पष्ट हैं .वह कौन सी पार्टी है जो आज भ्रष्टाचार के नाम से बिदक रही है .बी जे पी तो हो नहीं सकती वह तो अपरोक्ष रूप अन्ना जी के समर्थन में खड़ी है .खुद कोंग्रेस ऐसा मानती है .मायावती सामने से वार करतीं हैं .लिखकर करतीं हैं किसी से धौंस्ती नहीं है .मुलायामजी दो मुस्लिम सांसदों की वर्चस्व को लेकर लड़ाई से अवसाद ग्रस्त हैं .उनकी पार्टी यह काम नहीं कर सकती .लेफ्टिए तो इन दिनों चर्चा में ही नहीं है .सहज अनुमेय है यह कौन सी पार्टी है जिनका एक महासचिव कुछ और बोलता है और काग भगोड़ा कुछ और बोलता है .जिसके द्वारा अन्नाजी को लिखे पत्रों में ही तारतम्य नहीं है .जो अपने ही प्रवक्ताओं को बारहा नकार रही है .महा -सचिवों के लिखे बोले के लिए एक मुंह से उन्हें फटकार रही है दूसरे से यह सब जो वह लिख कह रहें हैं उसे उनकी व्यक्तिगत राय बतला रही है .यह जनता यूं ही नहीं अन्ना जी के पीछे आई है .भ्रष्टाचार एक केन्द्रीय मुद्दा बन चुका है .इससे जो लोग बे -तहाशा घबराए हुए हैं वह किस पार्टी के हैं कहाँ से आदेश ले रहें हैं उसका हाईकमान कौन है और रिमोट कौन ,कौन काग भगोड़ा है कौन मंद मति बालक यह हिन्दुस्तान का आवाम बा -खूबी जानता है .जितेन्द्र पाठक जालौन की भाषा नहीं बोल रहें हैं .वह तो मात्र राजनीति के भाषिक मोहरे हैं इस भाषा के सूत्र और सूत्रधार इस सियासी मिसाइल के कहीं और हैं .हमें तो भोपाली अपसंस्कृति की गंध आती है आपकी आप जानें .हमें अवगत ज़रूर कराएं .
ram ram bhai
'Stressed -out mothers more likely to have girls'
हो सकता पढने के बाद आपको थोड़ा अज़ीब लगे लेकिनऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक शोध से मिले संकेत बतलातें हैं कि वे भावी माताएं जो तनाव ग्रस्त रहतीं हैं गर्भधारण से ठीक पहले के अरसे में उनके कन्याओं को जन्म देने की संभावना बढ़ जाती है . रिसर्चरों ने पता लगाया है कि वह महिलाएं जो घर में या कार्यस्थलों पर या फिर अपने प्रेम संबंधों में भी गर्भधारण से पहले के चंद हफ़्तों ,या फिर चंद महीनों में दवाब ग्रस्त मन और शरीर लिए रहतीं हैं उनके प्रसव बाद कन्याओं को जन्म देने की संभावना लड़कों के बनिस्पत ज्यादा हो जाती है .
Virus behind 40%of cancers :
साइंसदानों ने दावा किया है कि तमाम किस्म के कैंसरों में से ४०% विषाणु जन्य होतें हैं .वायरस ही इनकी वजह बनतें हैं .स्वीडन के कैरोलिंस्का संस्थान की एक रिसर्च टीम के मुताबिक़ बाल पन के एक आमफ़हम दिमागी ट्यूमर"MEDULLOBLASTOMA" औरएक ख़ास विषाणु के बीच एक अंतर्संबंध की पुष्टि हुई है .
ram ram bhai
Ladies ,kick the butt or risk early menopause
Premature Onset Raises Death Risk ,Study
Early menopause is tied to osteoporosis ,Alzehimer's
जो महिलाएं धूम्रपान करतीं हैं वह औसतन रजोनिवृत्त की आम उम्र से साल भर पहले ही रजोनिवृत्त हो सकती है बरक्स उनके जो धूम्रपान नहीं करतीं हैं .और इसी के साथ अश्थी क्षय से सम्बंधित रोग ओस्टियोपोरोसिस तथा दिल की बीमारियों के खतरे का वजन भी बढ़ता जाता है .
विज्ञान पत्रिका मीनोपोज़ में प्रकाशित इस अध्ययन में पूर्व के कई और अध्ययनों से प्राप्त आंकड़ों को भी शामिल किया गया है जिनमे अमरीका ,पोलेंड ,तुर्की और ईरान की तकरीबन ६००० महिलाएं शरीक थीं .
औसतन वे महिलाएं जो धूम्रपान नहीं करतीं हैं वह ४६-५१ साल के बीच रजो -निवृत्त हो जातीं हैं .
लेकिन यदि दो अध्ययनों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तब धूम्रपान करने वाली महिलाओं मेंबाकी सभी अध्ययनों में ४३ -५० साल के बीच रजोनिवृत्ती दर्ज़ हुई है .मीनोपोज़ के दरमियान अंडाशय (दोनों ही ओवरीज़ )ह्यूमेन एग तैयार करने की क्षमता खो देते हैं .स्पर्मेताज़ोयाँ और फीमेल एग के मिलन से होने वाली गर्भधारण की अवस्था कन्सेप्शन इसीलिए हमेशा के लिए टल जाती है . औरत गर्भ धारण नहीं कर पाती है .
ज़ाहिर है धूम्रपान का महिलाओं में बढ़ता चलन उनके गर्भकाल में दखल पहुंचाता है .रजोनिवृत्ती को समय से पहले आमंत्रित करता है .
होन्ग कोंग विश्वविद्यालय के रिसर्चर Volodymyr Dvornyk इस अध्ययन के प्रमुख रचनाकार रहें हैं .आपने अपने सह -शोध कर्ताओं के संग मिलकर पांच अन्य अध्ययनों का भी विश्लेषण किया है ,इनमे मीनोपोज़ और अर्ली मीनोपोज़ की कट ऑफ़ एज ५० या फिर ५१ साल रखी गई थी .इन्हीं दो वर्गों में महिलाओं को देखा परखा गया .
इस विश्लेषण में शरीक ४३,००० महिलाओं में से जो धूम्रपान करती आईं थीं उनमे अर्ली रजो -निवृत्ति की संभावना ४३ % प्रबल देखी गई .ज्यादा देखी गई .बतला दें आपको अर्ली और लेट मीनोपोज़ दोनों ही स्वाथ्य के प्रतिकूल परिश्तिथियाँ हैं .स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम इनसे चस्पां रहें हैं .
Women who hit menopause late are thought to be at higher risk of breast cancer because one risk factor for the disease is more time exposed to estrogen .
आम सहमती इस बात पर रही आई है कि अर्ली मीनोपोज़ उन स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों को भी और ज्यादा तथा गुरु गंभीर बना देती है जिनका नाता रजोनिवृत्ती के बाद की स्वास्थ्य समस्याओं से रहता है मसलन अश्थी क्षय (लोस ऑफ़ बोन मॉस यानी ओस्टियोपोरोसिस ),हृदवाहिकीय (कार्डियोवैस्क्युलर प्रोब्लम्स ),मधु मेह (डायबितीज़ ),मोटापा तथा बुढापे के डिमेंशिया अल्ज़ाइमर्स एवं अन्य अनेक रोगों से रहता है .कुलमिलाकर अर्ली मीनोपोज़ आइन्दा के लिए (बाद के बरसों के लिए )मौत के खतरे को भी थोड़ा सा बढा देती है.
ram ram bhai
स्तन कैंसर से जुड़े मिथ और यथार्थ
अक्टूबर का महीना ब्रेस्ट कैंसर जागरूकता को समर्पित महीना है ..स्तन कैंसर से जुड़े मिथ और यथार्थ की हम लगातार चर्चा करेंगे .पहला मिथ -
Myth: Only women with a family history of breast cancer are at risk.
यथार्थ -जिन महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर रोग निदान के रूप में पुख्ता होता है डाय्गनोज़ होता है उनमे से तकरीबन ७० %महिलाओं में किसी भी किस्म के जोखिम तत्व या रिस्क फेक्टर मौजूद नहीं रहतें हैं .
अलबत्ता स्तन कैंसर के खतरे का वजन उन महिलाओं के लिए बढ़ जाता है जहां परिवार में एक दम से नजदीकी सगे सम्बन्धी में यह रोग चला आया हो .मसलन सम्बन्धियों में यदि माँ -बाप ,सहोदर (सिबलिंग )अथवा संतान में से किसी को यह रोग निदान हुआ हो या हुआ है तब उनसे सम्बद्ध महिला के लिए इसके खतरे
का वजन दोगुआ हो जाता है .
यही ख़तरा तब और भी ज्यादा हो जाता है जब इनमे से एक से ज्यादा सम्बन्धियों (फस्ट ऑर्डर रिलेतिव्ज़ )में यह रोग मौजूद रहा हो या मौजूद है .
Myth: Wearing an underwire bra increases your risk of getting breast cancer
Myth: Wearing an underwire bra increases your risk of getting breast cancer
Reality: Claims that underwire bras compress the lymphatic system of the breast, causing toxins to accumulate and cause breast cancer, have been widely debunked as unscientific. The consensus is that neither the type of bra you wear nor the tightness of your underwear or other clothing has any connection to breast cancer risk.
लिम्फेटिक प्रणाली या लसिका तंत्र वाहिकाओं का वेसिल्स का एक संजाल होता है नेटवर्क होता है जो तरल ,प्रोटीनों ,वसाओं (फैट्स )तथा स्वेत रुधिर कोशाओं (लिम्फोसाइटों )को ऊतकों के बीच के अंतराल से निकालकर रक्त प्रवाह तक पहुंचाता है .तथा ऊतकों से सूक्ष्म जैविक संगठनों (माइक्रोओर्गेनिज्म )तथा इतर कचरे की निकासी करता है .
Lymphatic system is a network of vessels that transport fluid ,fats ,proteins and lymphocytes to the blood stream as lymph ,and remove microorganisms and other debris from tissues .
महज़ मिथ है ऐसा मानना समझना कि ऐसी चोलियाँ पहनने से लिम्फ तंत्र पर दवाब पड़ता है इस संपीडन (कम्प्रेशन )से जो विषाक्त पदार्थ (तोक्सिनें )जमा हो जातीं हैं वही स्तन कैंसर की वजह बन जातीं हैं .यह धारणा विज्ञान के स्तर पर नितांत भ्रामक सिद्ध हो चुकी है .मिथ्या है यथार्थ नहीं .
यथार्थ यह है कि न तो ऐसी कसावदार चोली और न ही टाईट ब्रीफ्स (अंडरवीयार्स )इसकी वजह बनते हैं .ब्रेस्ट कैंसर का इनसे दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है .
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