गुरुवार, 9 नवंबर 2017

Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 5 Part 1,2,3, 2016

हे सती तुमने मेरी माँ का भेष भरा अब हमारा पति -पत्नी का सम्बन्ध हमारे बीच  नहीं चल सकता -शंकर जी ने यह संकल्प मन ही मन ले लिया। तभी आकाशवाणी हुई देवताओं ने ऐसे असाधारण संकल्प पर पुष्प बरसाए -ऐसा संकल्प भगवान् के परम् अनन्य  भक्त शिव ही ले सकते हैं।

आकाशवाणी सती ने भी सुनी उन्होंने भगवान् शंकर से घबरा कर पूछा हमें सच सच बताइये आपने क्या संकल्प लिया। शंकर जी भाव मुद्रा से सब कुछ बता देते हैं मुख से कटु सत्य नहीं बोलते मौन हो जाते हैं। सती फूट  -फूट के रोतीं हैं शंकरजी समाधिस्थ हो जाते हैं।

सन्देश कथा का यहां यही है ऐसा सत्य मत बोलिये जिससे किसी की जान ही चली जाए। भगवान् शंकर यदि सच बता देते तो पार्वती तत्काल ही शरीर छोड़ देतीं।

शंकर जी का सहज स्वरूप है ,सहज स्वभाव है- समाधि में रहना उन्हें आँख खोलने के लिए कोशिश करनी पड़ती है हमें ध्यान लगाने के लिए कोशिश करनी पड़ती है। सती दिन रात रोती हैं।

पांचवां दिन कथा आरम्भ (भाग १ ,२ और ३ ):

हरी मंगलम हरिद्वार मंगलम ,

उमा मंगलम उज्जैन मंगलम। 

काल मंगलम महाकाल मंगलम ,

व्याल मंगलम चन्द्रभाल मंगलम। 

ॐ मंगलम ओंकार मंगलम ,

शिवमंगलम सोमवार मंगलम। 

ज्ञान मंगलम शिव ध्यान मंगलम ,

मान मंगलम अभिमान मंगलम। 

भूत मंगलम भूतनाथ मंगलम ,

मुक्ति मंगलम मुक्तिनाथ मंगलम। 

उमा मंगलम उज्जैन मंगलम ,

देवमंगलम महादेव मंगलम। 

मन -क्रम- वचन श्रवण मन लाइ 

शिव और सती प्रसंग -सती ने झूठ बोल दिया -

कछु न परिच्छा ली न गोसाईं -

सती भूल पे भूल करती जा रहीं हैं 

किन्हीं प्रनाम तुम्हारी नाईं 

शंकर जी ने तब समाधि लगाईं -अरे तुमने तो  मेरी माँ का रूप धरा था -

शिव संकल्प किया मन माहिं

मिटे  भगत पथ होइ अनीति -अब अगर मेरा तुम्हारा पति -पत्नी का संबंध रहा यही संकल्प लेकर शंकर जी समाधि में चले गए।

लागि समाध अखंड अपारा 

समाधि शंकर का सहज स्वरूप है निज स्वरूप है समाधि शंकर का।

व्यक्ति पे संकट आता है रोता है -सती भी रो रहीं हैं ,साधु  भीतर बैठकर रोता है भगवान्  के लिए रोता है।

'भगवन मेरे से ज्यादा दीन कोई नहीं होगा मैंने सुना है आप दीनदयाल हो -या तो मेरे पति का मन बदलो या मुझे इसे शरीर से मुक्त करो 'सती रुदन करती हुई यही प्रार्थना करतीं हैं अब भगवान से।'-रात दिन

सड़सठ हज़ार साल तक शिव समाधिस्थ रहते हैं। आँख खोलकर देखते हैं सती -मात्र जीव अवशेषी अपना ही पंजर रह गईं  हैं।शिव तो करुणा के सागर हैं सोचते हैं क्या करूँ कैसे इसे इसका स्वास्थ्य लौटाऊं और रामबाण औषधि रामकथा आरम्भ कर देते हैं। 

इधर कैलाश मार्ग से विमान आ रहें हैं जिनमें देवगण और उनकी स्त्रियां विद्यमान हैं सती फिर कथा नहीं सुनतीं पहले ऋषि याग्व्लक्य के मुख से कथा नहीं सुनी अब शंकर जी कथा सुना रहें हैं तब भी कथा  में मन नहीं रमता। स्त्री सुलभ कौतुक से पूछती हैं पहले ये बाताओ ये इतने सारे विमान कहाँ जा रहे हैं शिव टालते हुए कहतें हैं देवी जा रहे होंगे  हम को और आपको क्या लेना है आप कथा सुनिए।

सती फिर नहीं मानती तिरिया हट पकड़ लेती  हैं-पहले बताओ फिर कथा 

शंकर जी सोचते हैं अब इसे कोई जलने से नहीं बचा सकता जो शंकर से रूठा जगत से रूठा

शंकर जी बतलाते हैं ये तुम्हारे पिता के घर जा रहें हैं जिन्होंने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया है लेकिन तुम्हें और मुझे नहीं बुलाया है क्योंकि मुझसे तो उनका पुराना वैर है मैं एक बार उनके द्वारा आयोजित ब्रह्म यज्ञ में  उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ था ,उन्हें ये अपमान लगा। इसीलिए मुझे नीचा दिखाने के लिए ही उन्होंने ये यज्ञ बुलाया है। देवी अनिमंत्रित हम को  नहीं जाना चाहिए।

 न बुलाया न सही क्या फर्क पड़ता है शंकर तो अवधूत हैं औघड़ ग्यानी हैं इन बातों  से बहुत ऊपर निकल गए हैं।

सती एक बार फिर उनकी नहीं सुनती और सब जानते हैं वे अपने पिता के यहां मना करने पर भी चली जातीं हैं। कहते हुए पुत्री को पिता के घर जाने के लिए किसी निमंत्रण की ज़रुरत नहीं होती।

शंकरजी बोले जाओ तुम्हारी मर्जी।

होइए है वही जो राम रचि राखा ,

को करि तरक बढ़ावै साखा।

शंकर जी ने समर्पण कर दिया। सती चल पड़ी कनखल की ओर। वहीँ तो उनके पिता का घर रहा है। 

पिता भवन जब गईं तब क्या हुआ ?

दक्ष न  कछु पूछी  कुशलाता ,

भगिनी मिली बहुत मुस्काता।

लेकिन दक्ष जो उस समय बाल संवार रहे थे उनके क्या हाल हैं :

सती विलोकि  जले सब गाता। 

बहने सभी दूर से व्यंग्य करने लगीं -अरी अकेली ही आई हो वे नहीं आये हैं। अब शंकर जी 'वे' हो गए उनके लिए। दूसरी कहती है नंग -धडंग ही रहते हैं या कुछ पहनने लगे हैं ,तीसरी कहती है भिख- मंगे ही बने हुए हैं या कुछ करने लगे हैं। जिनसे शिव रूठते हैं जगत रूठ जाता है। माँ ने बिटिया को छाती से लगा लिया कहते हुए बेटी अपने पिता की बात का बुरा न मानना  आजकल इनकी बुद्धि ऐसी वैसी ही हो रही है।

सती सारे देवताओं  को फटकारतीं हैं कहते हुए -जिसने भी मेरे पति  की निंदा सुनी है वे कष्ट उठाएंगे। मेरे पिता तो सज़ा पाएंगे ही आप भी नहीं बचेंगे जो उनके बिना ही उनकी अवहेलना होने पर भी यज्ञ कर रहें हैं ऐसा यज्ञ जिसमें कोई विधि -विधान नहीं है जिसमें न शिव को बुलाया गया है न ब्रह्माजी को न विष्णु जी को । कैसा है यह यज्ञ जो दक्ष ने अपनी नाक ऊंचा करने के लिए किया  है यह शरीर उन्हीं दक्ष का दिया हुआ है मैं इसे नष्ट करती हूँ कहते हुए सती हवनकुंड में कूद गईं चारों और हाहाकार मच गया।लेकिन जब तक होश रहा भगवान से सती प्रार्थना करती रहीं -

जनम जनम शिव पग अनुरागा -

सती मरते समय भगवान से प्रार्थना करतीं हैं जन्म मुझे आप कहीं भी दें मेरे पति शिव ही होवें। मरते समय हमारा मन जहां और जैसे विचारों में डूबा हुआ है वहीँ हमारा  अगला जन्म होता है। मरते वक्त वही बातें याद आएंगी जो जीवन भर करते रहे हैं । जिसने जीवन भर कलह कलेश की हो वह मरते समय भी गीता नहीं सुनेगा। बछिया की पूंछ नहीं पकड़ेगा।

गाय पशु नहीं है। गाय माने गरिमा का जीवन ,परोपकार का जीवन ,भोला -भाला ,भला ,मधुर जीवन। जिसने गाय जैसा मधुर जीवन जिया हो मरते समय भैंस के भी पास मरेगा तो उसका बेड़ा पार हो जाएगा।

'पांच रूपये में स्वर्ग नहीं मिलता किसी पंडित के कहने पर उसकी मरियल गाय  की पूंछ कुम्भ पे नहा धोकर पकड़ने से।'

गाय सा सरल जीवन जियोगे तभी बेड़ा  पार होगा। अंत समय में हरि नाम जिभ्या पर आये इसके लिए अभी से प्रयास करिये।

श्री राधे गोपाल भज, मन श्री -राधे ,

राधे श्रीराधे जय -जय राधे।

सती का अगला जन्म पारबती के रूप में हिमालय की पत्नी मैना के घर हुआ। बहुत लाड़ प्यार से हिमालय ने इन्हें पाला -पोषा। यदि आपमें  श्रद्धा  है तब संत का दर्शन होता है। नारद जी पहुंचे पिता ने पारबती का हाथ देखने को कहा नारद से। नारद ने कहा बड़े भागों वाली है। लेकिन एक दिक्कत है -पति इसे थोड़ा जटिल मिलेगा ,जोगी होगा ,अमंगल वेशधारी होगा। हिमालय बोले इसके हाथ की रेखा बदल दो न।

हाथ की रेखाओं को भाग के लेख को कोई नहीं मेट सकता है. हाँ भगवान् चाहे तो कुछ भी कर दें। भगवान्  तो राष्ट्रपति हैं वह चाहे तो सुप्रीम कोर्ट की दी हुई  बड़ी से बड़ी सज़ा को भी   माफ़ कर दें।भगवान् ने सुदामा के भाग की रेखाएं मिटाईं।

दूसरे के हिस्से का जो खाता है वह भूखों मरता है फिर सुदामा ने तो भगवान् का हिस्सा ही खा लिया था -संदीपन आश्रम में  गुरु ने एक मुठ्ठी चने दिए थे कहते हुए -मार्ग में दोनों खा लेना कहते हुए जहां कृष्ण और सुदामा दोनों पढ़ते थे।जो धर्म के नाम की परमात्मा के नाम की भी भेंट खा जाते हैं उनका हश्र बुरा होता है।

सुदामा अपनी गलती सुधारते हैं द्वारका पहुँचते हैं द्वार पाल कहते हैं आपको क्या चाहिए हम को  बताओ ,हम को  हिदायत है जो भी याचक आये जो मांगे उसे दे देवें।सुदामा बोले मुझे कोई वस्तु या पदार्थ नहीं चाहिए भगवान् से मिला सकते हो तो मिला दो। आगे क्या हुआ कथा आप सभी जानते हैं।

भगवान् रोते भी जाते हैं उपदेश भी करते जाते हैं जो जीव मुझसे विमुख होता है उसका यही हाल होता है जवानी और जीवन यूं ही खो देता है जीव। भगवान् के पास आ जाए तो बेड़ा पार हो जाए।

जो दिन भगवान् के सिमरन में होते हैं वही दिन ,दिन- होते हैं बाकी तो दुर्दिन ही होते हैं।

भगवान् जब भक्त को निष्कंटक करते हैं सारी  मर्यादाएं तोड़ देते हैं। भगवान् सुदामा का एड़ी  का काँटा दांत से निकालते हैं। करुणा और न्याय का ये संघर्ष देखते  ही बनता है। जिसका चित्रण कवि नरोत्तम दास ने बड़ा ही कारुणिक किया है।

राम ही केवल प्रेम पियारा ,

जान लेहु जो जाननि हारा।

भगवान् सुदामा से वो पोटली छीन लेते हैं जो सुदामा यत्न पूर्वक छिपाए हुए था। दो मुठ्ठी चावल।

भगवान् इंतज़ार करते हैं सुदामा अपने बच्चों का हाल बताये ,सुदामा सोचता है भगवान् पूंछे तो बताऊँ। सुदामा के मन में लोभ आ जाता है चलते समय -भगवान् ने कुछ दिया नहीं ,भगवान् महल के कपड़े वापस ले लेते हैं सुदामा के धुले हुए प्रेस किये हुए कपड़े  लाने का आदेश रुक्मणि को दिया। ब्राह्मण अपने संकल्प में था -मेरा काम आशीर्वाद देना है मांगना नहीं।भगवान् भक्त को निष्कंटक करने के लिए उसका अभिमान तोड़ना चाहते हैं।

सुदामा मांगने के बहाने भी भगवान को कुछ देकर जाता है -कहते हुए मेरा अब आपसे यही अनुरोध है अब महाभारत जैसा और कोई युद्ध न करना ,आप बहुत कमज़ोर हो गए हैं। भगवान  रुक्मणि जी से कहते हैं आरते  का थाल लाओ -इतनी जोर से सुदामा के भाल पर तिलक करते हैं भगवान् -भाग्य की, गरीबी की रेखाएं सारी मिट जातीं हैं। भगवान् चाहे तभी भाग्य की रेखाएं पलटती हैं।

नारद जी कहते हैं आपकी बिटिया जंगल में जाकर तप करे तो रेखाएं बदल सकतीं हैं लेकिन ये काम इसे खुद ही करना होगा।

भोजन , भजन और मरण व्यक्ति को खुद ही करना पड़ता है।

पार्वती कहतीं हैं माँ रात मेरे स्वप्न में एक बूढ़ा ब्राह्मण आया था जिसने मुझे वर दिया बेटी वन में जाकर तप करो तुम को  मुंह माँगा वर मिलेगा।बूढ़ी  माँ जो अब तक चिंता में डूबीं थीं सोचती हुई मेरी सुकुमार बिटिया जंगल में तप कैसे करेगी -पार्वती जी की बात सुनकर खुश हो जाती हैं। संतान वही है जो माँ बाप का मन पढ़ ले।

सुकुमार कन्या वन में प्रवेश करतीं हैं भगवान की प्रतिमा हृदय में स्थापित करतीं हैं और तप -ध्यान में डूब जातीं हैं।सूखे पत्तों का सेवन किया बरसों बरस -अपर्णा नाम हो गया। युग बीत जाते हैं।

भगवान् आकाश वाणी करते हैं -पार्वती जी आप जीत गईं। जबसे सृष्टि की रचना हुई है ऐसा तप किसी ने नहीं किया। आप धैर्य रखिये सप्त ऋषि आएंगे ,तब उनके कहने पर  पिता के घर लौट जाना - कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो जाते हैं।

सन्दर्भ -सामिग्री :

(१ )https://www.youtube.com/watch?v=A1SMsac7-0I

(२ )https://www.youtube.com/watch?v=dDkgxB8rlOg

(३ )

1:00:20

Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 5 Part 1,2,3, 2016 mangalmaypariwar.com


Mangalmay Pariwar
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