गुरुवार, 30 नवंबर 2017

Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji Day 2(Part ll ,lll )

Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji  Day 2(Part ll ,lll )

संदर्भ -सामिग्री :

(१ )https://www.youtube.com/watch?v=_1UZvf4IGu8

(२)

LIVE - Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - 27th Dec 2015 || Day 2


अध्यात्म का अर्थ है जो स्वभाव की ओर लेकर आये जिससे अपने स्वरूप का बोध हो। जब व्यक्ति अपने स्वभाव को उपलब्ध होता है तब उसके पास भगवदीय सामर्थ्य उजागर हो जाती है। हमारी संस्कृति नर से नारायण बनाने वाली संस्कृति है। 

वेद के अनुसार यह कहा गया -अमृतस्य पुत्रा -हम अमृत की संतानें हैं। हमारी आध्यात्मिक यात्रा तभी संपन्न होती है जब हम अपनी अनंतता को उपलब्ध हो जाते हैं। अपनी नित्यता हर पल है। अब तो विज्ञान भी कहता है कोई चीज़ बदलती तो है लेकिन रूप बदलने के बाद भी वह रहती तो है। सदा रहती है सदा। तो जो नित्य तत्व है अपराजेय तत्व है ,शाश्वत तत्व है उस तत्व का बोध कराने वाली हमारी यह संस्कृति है। वेदों का एक ही घोष है मनुष्य केवल एक ही काम करे और वह ही उसके लिए आवश्यक है। वह अपने नित्य सनातन स्वरूप का बोध करे। वह भोर में उठकर शुभ संकल्प करे। और वह अपने स्वरूप को उपलब्ध हो। 

हम अपने पाथेय को विस्मृत न कर बैठें। भारतीय संस्कृति यह कहती है अपने स्वरूप को पहचानो  जो अपराजेय है। हमारी संस्कृति देह की मृत्यु की तो बात कहती है पर आत्मा की अमरता का भी सन्देश देती है। कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जो मृत्यु के मुंह में न हो। लेकिन हमारी संस्कृति कहती है ,आत्मा नित्य है शाश्वत है। जिस दिन अपने स्वरूप का बोध होता है उस दिन व्यक्ति आनंद से ,अनुराग  से भर उठता है। 

यह कथा ज्ञान की सिद्धि के लिए भी है। यह कथा उपासना के भाव को जागृत करती है। और निष्काम कर्म योग में भी निष्णात करती है। सच तो यह है ,कथा सुनने के बाद हमें अपनी श्रेणी का ,अपनी कोटि का ,अपनी अवस्था का बोध हो जाता है। हम भक्त हैं तो भक्ति सिद्ध होगी। निष्काम कर्म योगी हैं तो सफलता की यहां से प्रेरणा मिलेगी। और यदि हम ज्ञान के उपासक हैं ,अपने स्वरूप के बोध के लिए कथा से  हमें अपार ऊर्जा मिलती है। 

कथा अत्यंत प्राचीन विधा है। इसलिए यह बात कही भी गई है हम श्रवण करें। 

श्रवण मंगलम। 


श्रवण से मांगल्य होता है और श्रवण पहला साधन भी है। जो हमें हमारे स्वभाव ,निजता की ओर लाता है। प्रसंग  इस तरह से आता है ,जब इस धरती पर व्याकुलता बढ़ गई ,उन्माद ,दमन ,अनीति ,अत्याचार ,भंडारण की जब प्रवृत्तियां बहुत प्रचंड हो गईं तब धरती पर कोई युग पुरुष आये और यहां व्यवस्था दे  ,ऐसी मांग बन गई। 

धरा पर बीज नहीं बो सकते आप। उसका फल नहीं ले सकते। तो किसी दैत्य ने पूरी धरती के अधिकार अपने पास अर्जित कर लिए। उसे हिरण्याक्ष कहा गया। जिसका सोने (स्वर्ण )पर ध्यान था ,धरती पर ध्यान था ,जितने भी धरा पर बहुमूल्य पदार्थ हैं ,मेरे हैं। वह ऐसा मानने लगा। 

न केवल धरा ,अग्नि ,वायु ,औषधि सब पर उसके अधिकार थे। आप कल्पना कर सकते हैं ,स्वर्ग में भी उसके अधिकार थे। व्यक्ति की पहली भूख है जिजीविषा। 

मैं राम अवतरण की कथा आरम्भ करूँ उससे पहले मैं व्यक्ति की पहली कामना से परिचय कराना चाहूंगा। जो मनुष्य की पहली कामना है वह जीना है ,जिजीविषा है। 

दूसरी कामना है सुख पूर्वक जीना और तीसरी कामना है -वह अपने अधीन रखना चाहता है सबको। अपनी कीर्ति को अक्षुण रखना चाहता है शीर्षस्थ होना चाहता। अपने मान सम्मान के नित्य विस्तार में रहता है। एक और बात -वह 'स्वयं -भू' होना चाहता है। 

हिरण्याक्ष आये ,हिरण्यकश्यप आये -न सुबह मरूँ न सांझ ,तो मनुष्य की पहली भूख क्या है वह ज़िंदा रहना चाहता है। सुख में वह अनुकूलता चाहता है ,सब मेरे अनुकूल रहें सब मेरे आधीन रहें। 

आदि दैत्य  हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप की कथा ,राम रावण से पहले आती है। 

ये धरती मेरी है यहां का सुख सामान यहां की सम्पदा मेरी है। ऐसी कुछ प्रवृत्तियां पश्चिम की भी हैं वहां तुलसी ,नीम ,बबूल ,पीपल , बिल्व ,हल्दी आदि नहीं होते।  लेकिन इन सब पर पेटेंट चाहते हैं वे। 

यहां जो कुछ भी अलौकिक है वह मेरा हो जाए -इसे आसुरी प्रवृत्ति  कहते हैं। भंडारण की जो प्रवृत्ति है ये आसुरी प्रवृत्ति है। योग पर भी वे अपना पेटेंट चाहते हैं। लेकिन हमारी संस्कृति सबको विश्व -कुटुंब को बांटने की प्रवृत्ति है। वसुधैव कुटुंबकम की संस्कृति है सबको बांटने की संस्कृति है।'होता 'यज्ञ की हरेक आहुति में कहता है यह मेरा नहीं है।यह मेरा नहीं है।  

जिसने अपनी  इन्द्रियाँ को जीत लिया है वही दशरथ प्रवृत्ति है। अंबर में छलांग लगाईं दशरथ ने स्वर्ग की रक्षा के लिए। जो देवताओं से भी न जीती जा सके उस नगरी का नाम अयोध्या है। 

संसार की सबसे प्राचीन नगरी है अयोध्या। पहला मानव इस धरती पर कोई आया है तो वह अयोध्या में आया है।ब्रह्मा के मन में कोई पहली  कामना जगी तो वह यह मैं इसे पूरा करूँ। 

मनु ही धरती पर दशरथ बनकर आएं हैं। हमारी पहली समस्या है -संवाद हीनता। किसी एक ऋषि के मन में यह आया कोई ऐसी व्यवस्था हो जो इस धरती को अभय दे। संवाद दे। 

भंडारण  की आसुरी प्रवृत्ति को पनपने न दे। इस धरती की अराजकता ,शोषण को दूर करने के लिए कोई एक अवतरण होना चाहिए। 

मनु और शतरूपा इसी हेतु आये हैं।पूरी धरती को सुख देने के लिए तप किया गया दोनों के द्वारा -कोई दिव्य पुरुष दिया जाए धरती को जो इस धरती को व्यवस्था दे। ऐसा संकल्प दोनों ने किया। 

अगर भजन ठीक नहीं चल रहा है तो अपना भोजन ठीक करें। आहार शुद्धि ही आपको स्वीकृति अस्वीकृति देगा। हेय  का आप त्याग करेंगे।निंदनीय को छोड़ेंगे ,जो ग्राह्य है वही आप लेंगे। आप जो भी ग्रहण करें उसे पहले भगवान् को समर्पित करें वह प्रसाद बन जाएगा। प्रसाद का अर्थ है प्रसन्नता। 

ये दोनों दैत्य ही- रावण और अह रावण  के रूप में आये। 

राम के अवतरण में मनु शतरूपा का तप है ,और तप तब होता है जब पेट भरा हो ,जब सारे भोग आपने भोग लिए हों जब सारी वस्तुएं आपको प्राप्त हों। जो फटे हाल हैं ,कंगाल हैं ,वे समझ नहीं पाएंगे। ऊंची सौध पर बैठने के बाद ही त्याग किया जा सकता है जिसने उच्च पद प्राप्त कर लिया हो वही त्याग कर सकता है।

वर्धमान ने ,बुद्ध ने ऋषभदेव ने पूरी धरती के सुख प्राप्त करने के बाद संन्यास लिया है। संन्यास कहते हैं सम्यक कामनाओं का न्यास। जिनके पास कुछ है वही संन्यास ले पाते हैं। 

एक दिव्यपुरुष धरती को दिया जाए ,एक नै व्यवस्था पृथ्वी को दी जाए इसके लिए मनु और शतरूपा तप करने बैठे। (ये दोनों ही मानसी सृष्टि थे ब्रह्मा जी की ,जिनके तप से सृष्टि पैदा हुई ,कृष्ण/महाविष्णु  ने चाहा मैं एक से अनेक हो जाऊं और हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी पैदा हो गए उनसे सारी सृष्टि ......  ). 

आहार शुद्धि ,तत्व शुद्धि तप का पहला साधन बतलाया गया है हमारे शास्त्रों में। यदि हम प्रकाश मार्ग पर चलना चाहतें हैं तो पहले आहार शुद्ध करना होगा। जो यह कह रहे हैं हमारा भजन ठीक नहीं चल रहा है जप ठीक नहीं चल रहा है ,हम ध्यानस्थ नहीं हो पाते हैं ,एकाग्र नहीं हो पाते हैं चित्त में एकाग्रता और स्थिरता नहीं रहती तो यह ध्यान रहे वह अपना भोजन ठीक करें। जो आपकी थाली में रखा है बस वही आप बनने वाले हैं आहार ही आपको आकार देगा। आहार ही आपको विचार देगा ,वृत्तियाँ ,प्रवृत्तियां देगा। आहार में ही एक स्वीकृति अस्वीकृति पैदा होगी यह ध्यान रहे। 

आहार आपका शुद्ध है तो आप त्याग करना चाहते हैं। वह ग्रहण करना चाहते हैं जो शुद्ध है जो हेय है भयकारक है आप उसका त्याग करना चाहते हैं। 

आहार यदि आपका शुद्ध नहीं है तब आप ऐसा आहार करना चाहते हैं जो विष है निंदनीय है।पूरे संसार में अगर आहार शुद्धि की चर्चा हो रही है तो केवल भारत में। 

आहार मितभोजी होना चाहिए उसमें मात्राज्ञता  होनी चाहिए। कितनी मात्रा में लिया जाए ?आहार सुपाच्य होना चाहिए।आहार आपका प्रसाद बन जाए। प्रसाद माने प्रसन्नता।  आप पहले भगवान् को आहार समर्पित करें  फिर वह प्रसाद बन जाएगा। 

करहिं आहार शाक फल कंदा, 

 सुमरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा। 

उर अभिलाष निरंतर होई ,

देखहुँ नैन परम प्रभु सोही। 

वेद में वीर्य के पावित्र्य , रज शुद्धि की विधि बताई है।के कितनी पीढ़ी में रक्त ,धातुएं ,मैद ,रुधिर ,वीर्य ,मज्जा ,रस ,प्राण ,विचार ,मति ,संकल्प पवित्र हो , शुद्ध हो जाएंगे।एक गर्भाधान करने में मनु शतरूपा को  बारह बरस लग गए। बारह बरस तक लगातार एक तप किया मनु और शतरूपा ने। एक व्रत किया पहले।मन पर काम किया उन्होंने ,विचार पर काम किया। ये सब उत्तम कोटि की संतान के लिए किया। हम ओस की एक बूँद की तरह स्वाभाविक हो जाएँ। आकाशगंगा में वह जो दूधिया सागर है वैसे सहज हो जाएँ।धवल चादर से हम सहज हो जाएँ।  जिस दिन सिंह हमारे पास आकर बैठ जाएगा ,हमें डर नहीं लगेगा -इसके लिए अन्न की साधना की ,विचार की साधना की। 

भोजन देखने में  ग्राहीय लगे।वरना अन्न में बड़ी दुर्गन्ध है। 

अन्न औषधि है केवल भूख मिटाने के लिए नहीं है आपके अंदर एक कांति ,एक ओज आपके अंदर पैदा हो। अन्न में उन्माद न हो। उत्तेजना न हो। थाली ब्रह्म को अर्पण हो जाए। अन्न को नैवेद्य ,ईश्वरीय पदार्थ बनाइये और यह काम इन दोनों ने किया। 

अन्न से एकाग्रता आती है। निर -विचार ,निर -वितर्क अवस्था आती है। वीर्य ,रज ,अस्थि , मज़्ज़ा  सब शुद्ध कर लिए मनु शतरूपा ने । तब भगवान् ने कहा जाइये मैं आपके यहां आऊंगा। आप त्रेता युग में दशरथ और कौशल्या  होंगें। आपको ही मैं चुनूंगा माता पिता के रूप में। 

पार्वती परमात्मा को कुरेदना जानतीं हैं उन्होंने कितने प्रश्न किये -गुरु से प्रश्न किये लोक कल्याण के लिए ,जन चेतना के लिए ,आपको गुरु से प्रश्न करना आना  चाहिए पार्वती की तरह। 

पार्वती  कहतीं हैं - हमने सुना है नारद ने भगवान् को शाप दिया था। शाप तो क्रोध में ही दिया जाता है जब शरीर के अंदर विष बढ़ जाता है तब क्रोध आता है । क्रोध बिना काम के आ ही नहीं सकता ,तो क्या नारद ने क्रोध किया  शाप देने से पहले। जब व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है तब क्रोध करता है। वह स्वयं पर नियंत्रण खो बैठता है तब क्रोध करता है।  जिसका अभ्यास सफल नहीं हुआ है वह क्रोध करता है। 

नारद के शाप के कारण भगवान नारायण (राम )बनकर आये। नारद ने इतना क्रोध क्यों किया मुझे बताइये। दमित काम जब प्रकट होता है तब क्रोध आता है। नारद के भीतर ऐसा क्या था ?मुझे बताइये प्रभु -कहतीं हैं पार्वती शिव से। 
(ज़ारी ....)  

क्रोध आ ही नहीं सकता काम के बिना। काम की कोख से ही क्रोध निकलता है। अगर कोई व्यक्ति क्रोध कर रहा हो तो समझ लेना यह वह व्यक्ति है जो हारा हुआ है। इसका अभ्यास सफल नहीं हुआ है। 

पार्वती शिव से कहने लगीं -हे देव हम ने सुना है नारद के भयानक शाप के कारण नारायण राम बन के आये। तो क्या कारण रहा नारद को इतना क्रोध आया ,उन्हें शाप देना पड़ा ?

क्रोध की तीन अवस्थाएं हैं :

(१ )जब आप ज्ञान शून्य हैं ,विचार शून्य हैं 

(२ )जब आप अपनी वासनाओं में लालसाओं में मनोवांछाओं में असफल हो गए हैं तो क्रोध आता है 

(३)दमित काम का बीज जो हमारे अंदर होता है और जो कभी हमें दिखाई ही  नहीं दिया ,जब वह प्रकट होता है तब क्रोध आता है। 

भाव की अधम अवस्था का नाम क्रोध है जब व्यक्ति स्वयं -भू ,परि -भू होना चाहता है सबको अपने अधीन रखना चाहता है शीर्षस्थ होना चाहता है। मैं ही मैं हूँ ,दूसरा कोई नहीं। 

भाव की सर्वोच्च अवस्था का नाम भक्ति है। 

भाव की जो पवित्रतम अवस्था है उसका नाम तो भक्ति है। और भाव की जो नि-कृष्ठ जो अवस्था है उसका नाम क्रोध है। यह क्रोध तभी प्रकट होगा जब अनियंत्रत ,डिस्प्रोपोशनेट (असमानुपाती )काम आपके भीतर है।

काम बुरी चीज़ नहीं है मैं और आप काम की ही उत्पत्ति हैं। काम से ही यह जगत है। बिना काम के जगत का विस्तार नहीं हो सकता। लेकिन डिस्प्रोपोशनेट काम का फलादेश है क्रोध। 

एक बहुत ही  उदण्ड मन अराजक मन की कथा सुनाते हैं आपको।जो यह प्रकट करता है मैं बड़ा शिष्ट हूँ लेकिन भीतर की कामना कैसे जागतीं हैं -बड़ा सुंदर चित्र है उसका इस कथा में। 

"हे गुरु नारद मैं आपको प्रणाम करता हूँ ,आप ने मुझे हरा दिया ,शिव मुझसे लड़ के जीत नहीं सके अपनी शक्ति से भगवद्ता से उन्होंने मुझे भस्म ज़रूर कर दिया  लेकिन आप ने तो मुझे जीत लिया मैं आपको प्रणाम करता हूँ। इन्द्रादि सनकादि कुमार यक्ष आदि सब नारद की जय जैकार करने लगे। अरे ब्रह्मा ने तो सरे आम अपनी पुत्री सरस्वती का हाथ पकड़ लिया था कामासक्त होकर और इसीलिए आज तक ब्रह्मा की कहीं पूजा नहीं होती एकाध ही मंदिर है ब्रह्मा जी का भारत में। लेकिन । आप ने तो ऋषिवर मुनिवर मुझे निस्तेज कर दिया-बोला काम नारद से। " 

आज तक भी विश्व में कोई इसलिए यश का भागी नहीं हुआ के उसने अर्थ बहुत अर्जित कर लिया ,यश जिसको भी मिला है त्याग से मिला है तप से मिला है। ऋषियों ने कहा हम ने पहली बार कोई तप देखा जिसमें स्वाभाविक विरति है उपरति है। संसार के लिए कोई आकर्षण नहीं रहा इस तरह से संसार भीतर से खो गया है  . हम ने पहली बार कोई साधु देखा है। सबने नारद का गुणगायन किया। 

संसारी और साधु  का फर्क देखिये -  संसारी संसार में रहता है उसके भीतर भी एक संसार रहता है। साधु संसार में रहता है और उसके भीतर में संसार नहीं रहता। तो जिसके भीतर की सांसारिकता ,पारिवारिकता खो गई है बस वही साधु है। ऐसा कहकर पूरी देव सत्ता अप्सराएं नमित होने लगीं नारद के समक्ष । और ब्रह्मा ने भी उनका (नारद )का वंदन किया। ब्रह्मा जी यह कहकर प्रणाम करने लगे -मैं काम जीत नहीं सका और जय जैकार नारद की सारी धरती पर हो गई। सब उनका सम्मान करके जा रहे थे अकेले ब्रह्मा रह गए। ब्रह्मा ने नारद के कान में कहा शब्द ,स्पर्श ,रूप ,रस ,गंध -मैं छू कर देखूँ ,सूंघकर ,चख कर देखूं  आदि इन सब पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं रहा। देखने की कामना पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं रहा। तूने कर लिया। जो मैं नहीं कर सका वह तूने किया। 

ये जो तेरी जय जैकार है इसकी भनक ,इसका समाचार शिव को न मिले -ध्यान रखना ,अच्छा नहीं लगेगा ब्रह्मा जी ने नारद को कहा। मैं तेरा पिता हूँ इस वर्जना का पालन करना। यहां पर यही सन्देश है कथा का -माता पिता कोई वर्जना दें तो उसका पालन करना। शिव काम को जीत न सके थे भस्म ज़रूर कर दिया था उन्होंने काम को अपनी सामर्थ्य से। 

मनुस्मृति में एक ही दृष्टि आई है -ज्येष्ठ जनों की आज्ञा का पालन ही धर्म है। ज्येष्ठजन जो परम्परा हैं उनकी आज्ञा का पालन करना ही धर्म है। 

नारद ने अवज्ञा की। इसका अर्थ है धर्म का उल्लंघन कर दिया। कीर्ति की भूख उन्हें शिव के द्वार पर ले गई। पहुंचे ये कहने मेरे पिता ने तो वर्जना दी हैं उन्होंने तो मना किया है लेकिन आप मेरे गुरु हैं ,अपनी कृति ,अपनी निर्मिति बताने के लिए नारद बे -चैन हैं उस बाज़ीगर की तरह जो  डुगडुगी बजाकर सारी दुनिया को तमाशा दिखाना चाहता है। अपने हाथ की सफाई दिखाना चाहता है। 

शिव अपनी तपस्या कभी भंग नहीं करते लेकिन आज वह नारद की स्तुति गुण -गायन  कर रहे हैं तपस्या से समाधि से बाहर आकर। नारद को ऊंचे आसन पर बिठाया जा रहा है रूद्र लोक में। पार्वती हैरान है यह नारद तो यहां अक्सर आता है ,आज ऐसी क्या घटना घटी है जो इसका इस प्रकार अभिषेक किया जा रहा है। श्रृंगी आदि सभी हाथों में पुष्प लिए खड़े हैं नारद के अभिवादन के लिए। शिव ने प्रार्थना की हम विजेता को नमन करते हैं। 

काम के जनक नारायण हैं उनमें ही पहली कामना पैदा हुई मैं एक से अनेक हो जाऊं। काम पर नारायण का नियंत्रण होता है। उसी के नाभि कमल से पैदा हुए ब्रह्मा वह पहला काम उसी नारायण में पैदा हुआ। काम से विलगता ,निष्काम होना काम से केवल नारायण को आता है। 

अगर काम से विलग हो गया है नारद तो क्या नारायण हो गया नारद ?

और अगर नारद नारायण हो गया है तो इसे प्रणाम करना चाहिए। इसलिए वंदन करने लगे। अगर अपने पतन का फाटक खोलना है तो बड़ों का आदर स्वीकार करने लगें। अगर उच्च पदस्थ व्यक्ति आपका आदर करने लगे और आपको वह अच्छा लगने लगे तो समझ लेना आपके पतन के द्वार खुल गए हैं। 

बड़ो से आदर कभी मत लेना क्योंकि बड़ों से आदर लेकर जो आपको सुख मिल रहा है उसे शास्त्रों में अधम सुख कहा गया है। 

नारद उच्च आसन पर बैठ गए। शिव निकट आये और उन्होंने कान में एक बात कही -अब मैं प्रार्थना ही कर सकता हूँ नारद अब मैं आदेश तो दे नहीं पाऊंगा क्योंकि मैं तेरा गुरु हूँ ,अब तू वो सारी मर्यादाएं लांघ गया क्योंकि मेरे द्वारा पूजित होकर तुझे सुख मिल रहा है। मैंने तुझे प्रणाम किया ,पुष्प  दिया ,उच्च आसन दिया तो मेरे द्वारा दिए गए उच्च आसन पर बैठकर तुझे बड़ा सुख मिल रहा है। इसका अर्थ है अब तू आदेश तो मानेगा नहीं। उपदेश अब तू स्वीकार नहीं करेगा। तो विनय करता हूँ मैं। 

एक मेरी विनय मान लेना ,नारद बोला क्या विनय है -बोले शिव नारद से -

ये जो समाचार तू ने मुझे दिया है के मैंने काम को जीत लिया ,क्रोध को जीत लिया ये नारायण को मत बताना। बस यही एक विनय है मेरी। ये समाचार आप नारायण के द्वार तक मत ले जाना के मैं स्वयं -भू हो गया हूँ ,परि -भू हो गया हूँ। काम नियंत्रक नियोक्ता हो गया हूँ मैंने काम जय कर ली है। अब मुझे कोई सांसारिक आकर्षण नहीं रहता यह समाचार उन्हें मत बताना। 

बार -बार विनवो (विनवहुँ )मुनि तोहि ,
ये जो कथा सुनाई मोहि।

एक अनियंत्रत मन उस समय हो जाता है जब अधिक आदर मिले ,आदमी ने अपनी परम्परा का एक -एक संवेदन समेट कर रखा है यहां तो गुरु भी हैं स्वयं ईशवर भी हैं फिर भी नारद में अहंकार है।  

ईश्वर अंश जीव  अविनाशी ,

चेतन अमल सहज  सुख राशि। 

ईश्वरीय अंश है हमारे अंदर (हम आत्मा है )जिसको बहुत आदर चाहिए।नारद को यह बात अच्छी नहीं लगी। 

मैं जाऊंगा -एक बार भगवान को पता तो लगे के भक्त की क्या उपलब्धि हैं। नारद पहुंचे और भगवान नारद से कहने लगे हे मुनि तूने बड़ा अनुग्रह किया मुझ पर आज तो मेरे आसन पर ही बैठना पड़ेगा। नारायण खड़े हो गए आसन छोड़कर। 

जिसमें इतना वैराग्य है उस शेषनाग की काया पर नारद बैठते हैं। लक्ष्मी ने कहा यह हो नहीं सकता  इसने काम को जीत लिया। इसमें यश की अभिलाषा बैठी है।
"ये नया कोई लोक है। ये मेरी कन्या है इसे वर चाहिए -और उस मायावी पुरुष  ने अपनी मायावी कन्या का हाथ माया मुक्त नारद के हाथ पर जैसे ही रखा नारद माया वश स्वयं हो गए। "

वह त्रिदेव पर शासन करने वाला होगा जो इसका वर होगा ,नारद सोचने लगे ये कन्या मुझे मिल जाए तो मैं तीनों लोकों का मालिक  हो जाऊँ। 

मेरी कन्या की एक ही शर्त है यह सुंदर पुरुष चाहती है जिसका सौंदर्य  छीज़ न जाए। जन्म ,विकास ,ह्रास (क्षय )और मृत्यु इस सृष्टि का नियम है। 
युवक को कभी यह पता नहीं लगता के प्रौढ़ता आ गई है। अब वह युवक नहीं रहा। ये आकर्षण कुछ देर का है फिर ह्रास है जिसमें कुछ लोग संतुलन खो बैठते हैं। नारद उसे अपनी पत्नी माने बैठे हैं ये मेरी बन गई तो मैं स्वयं -भू बन जाऊंगा। नारद को काम ने नहीं जीता -कीर्ति की भूख ने जीत लिया। मैं सृष्टि का मालिक बन जाऊं। 

जिसकी सुंदरता कभी खंडित न हो ,जिसमें आकर्षण कभी खो न जाए ऐसे पुरुष से विवाह करेगी मेरी पुत्री।मायावी नगरी का मायावी राजा (वास्तव में विष्णु )बोला नारद से।  

नारद मन ही मन सोचने लगे मैं पूर्ण नहीं हूँ पूर्ण तो नारायण  हैं क्यों न उनसे ये सारे गुण ये रूप  सौंदर्य मांग लूँ। 

आजकल लोगों को वेलनेस बिजनिस बड़ा सता  रहा है ये बात सता रही है    मेरा आकर्षण बना रहे।अब पदार्थ मुझे खींच रहें हैं उस काया ने मुझे क्यों वशीभूत कर लिया है मैं ये नहीं जानता मेरे अंदर ये हलचल क्यों हैं लेकिन मुझे अपना रूप दे दो जिससे मेरा कल्याण हो। 

अत्यंत विषयासक्त प्राणी बहुत सुन्दर नहीं रहता -याचक का चेहरा उतरा हुआ रहता है। साफ़ पता चलता है कुछ उधार मांगने आया है। जिस दिन आप अंतर्मुख होते हैं उस दिन आप सुन्दर दीखते हैं ,आपके अंदर से विषयासक्ति खो जाती है बहिर्मुख व्यक्ति सुंदर हो ही नहीं  सकता। 

इस विषय वासना ने नारद का रूप छीन लिया वह बंदर जैसे दिखने लगे। अश्वपति से उसने कहा मैं लड़का (वर )देख आईं हूँ। काल के गाल में से सावित्री अपने पति को छीन लाई। 

पावित्र्य हमारे मन को छूता है आकर्षित करता है जो  एकांत  के शील को  सुरक्षित रखता है। नारद को बंदर रूप देख वह मायावी सुन्दर कन्या हट गई। विष्णु का वरण कर लिया। 

नारद बोले तू सदा से ही छलिया रहा है -जा मैं तुझे सज़ा देता हूँ शाप देता हूँ -तू भी कभी अपनी स्त्री को जंगल दर जंगल ढूंढता फिरेगा राम के रूप में। मुझसे भी तूने छल ही किया अपना रूप देकर नाटक क्यों किया। 

अगर दुःख घेर लें तो भगवान् के गुणों का ध्यान करें। भगवान् ने कहा नारद अरे तेरा मन ठीक नहीं है। नारद शिव का ध्यान करने लगे। चित्त शांत हो गया नारद का। 

शिव शिव शम्भु शंकरा ,
हर हर हर महा -देवरा।    

नम :शिवाय नमःशिवाय ,

शिव शिव शम्भु नम :शिवाय। 
   

सन्दर्भ -सामिग्री :

(१)https://www.youtube.com/watch?v=_1UZvf4IGu8

(२ )

LIVE - Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - 27th Dec 2015 || Day 2

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