बुधवार, 7 सितंबर 2016

कबीर बामनु गुरु है जगत का भगतन का गुरु नाहि

कबीर बामनु गुरु है जगत का भगतन का गुरु नाहि ,अरझि उरझि कै पचि मूआ चारउ बेदहु माहि।

हरि है खांडु रेत महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ ,कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ।

कबीर जो तुहि साध पिरंम की सीसु काटि करि गोइ। खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ।

कबीर जउ  तुहि साध पिरंम की पाके सेती खेलु। काची सरसौं पेलि के ना खलि भई न तेलु।

कबीर जी कहते हैं ब्रहामण जगत का गुरु हो सकता है ,किन्तु भक्तों का गुरु बनने का गुण उसमें नहीं। वह तो चारों वेदों के ज्ञानाभिमान में उलझकर मर रहा है -भक्तों को क्या दे सकता है ?परमात्मा चीनी का रूप है ,जो संसार की रेत में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। हाथी होकर (अहंकारपूर्वक )कोई रेत में बिखरी इस चीनी को एकत्र नहीं कर सकता। केवल सच्चा गुरु वह ज्ञान बता सकता है ,जिससे मनुष्य चींटी बनकर (विनम्रतापूर्वक )उस चीनी का स्वाद लेता है। कबीरजी कहते हैं यदि तुम्हें प्रभु-प्रेम   की इच्छा है ,तो शीश काटकर (अहम्- त्याग ) गेंद बना लो और उस गेंद से खेलते -खेलते बेहाल हो जाओ। फिर जो होना होगा होने दो (प्रभु पर छोड़ दो ).

कबीरजी कहते हैं कि यदि तुम्हें प्रभु -प्रेम की इच्छा है तो (सच्चे )पक्के गुरु के सहारे यह खेल खेलो। कच्ची सरसों को पेरने से न तेल निकलता है ,न खली ही बनती है (अर्थात कच्चा खेल न प्रेमळ होता है ,न फलदायी ).  

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