बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

किसका नाम कबीर प्रवचन से (PART VI )

कबीर कहते हैं वाचिक ज्ञान (शाब्दिक ज्ञान )महज़ जानकारी है। अनुभव ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। जानकारी तो सारी गूगल बाबा समेटे है तब क्या वह परमज्ञानी हो गया ?जिसके जीवन में बातें ही बातें हो ,अनुभव बिलकुल न हो ऐसे लोग बहुत मिलते हैं दूर जाने की जरूरत नहीं है राहुल -सोनिआ नेहरुपंथी अवशेषी कांग्रेस के सभी प्रवक्ता इसका मूर्त रूप हैं।

किताबी बातों में कबीर का यक़ीन नहीं है। वह प्रेम के माध्यम से पूरी कायनात से जुड़ते हैं :जैसा मैं हूँ वैसे सब हैं। वही सगुण ब्रह्म का मानवीकरण है।ऐसा ही मानते हैं कबीर :

सरगुन की कर सेवा ,निरगुन का कर ध्यान ,

सरगुन निरगुन ते परे ,तहाँ हमारा ध्यान। 

दया करो धर्म को पालो,जग से रहो उदासी ,

अपना सा जीव सब को जानो ,तभी मिले अविनाशी 

-दया ही धर्म है कबीर का।कर्म में धर्म को उतारो। दया करना सीखो।

 इस जड़ जगत से ज्यादा मोह मत लगाओ इससे

कुछ नहीं मिलने वाला। कुछ सार नहीं मिलेगा इस संसार से और बटोरूँ और बटोरूँ करते करते। सिंकंदर क्या साथ ले गया ,खाली हाथ कफ़न से बाहर रखवाए अंत समय कछु साथ न जाए, जाते जाते कह गया। आज तक इस संसार से किसी को क्या मिला जो हमें और आपको मिलेगा। क्या कुछ अब तक सार्थक किया है लोकहितकारी ?

ये संसार फूल सेमल सा , सूआ देख लुभायो  ,

भजन बिन बावरे ,तूने हीरा जनम गँवायो।

तोते को सेमल का पुष्प बड़ा लुभाता है बारहा चौंच मारता है हर बार रुई का फाया ही निकलता है इससे। ऐसा ही यह संसार है सेमल के फूल सा।

सोचें ज़रा अब तक का जीवन हम ने कैसे बिताया है ?आगे भी ऐसा ही जीवन जीयेंगे तो कुछ हाथ नहीं आएगा।

धन रहे न यौवन रहे ,रहे न  ठाम कुठाम ,'

कबीर दुनिया में  जस रहे ,कर दे किसी का काम।

आएंगे सो जाएंगे ,राजा रंक फ़कीर।

एक सिंहासन चढ़ि चलै ,एक बंधे ज़ंजीर।

जो जीवन रहते जाग जाता है वह मोक्ष रुपी परमपद के सिंहासन पर चढ़ जाता है फिर वापस इस संसार में नहीं आता। जिसका विवेक अपने जीवन काल में नहीं जागता है वह बंधन में जाता है और इसी बंधन के कारण उसे संसार में लौटके आना पड़ता है।

जैसे उड़ि जहाज को पंछी ,उड़ि जहाज पे आवै ,

मेरो मन अनत कहाँ  सुख पावै।

मुक्त होकर हमें जाना है तो अपना सा जीव सबको जानो ,जैसा मैं हूँ वैसे सब हैं,ऐसा सब को मानो। 

गुरु नानक देव भी कहे हैं :

जित देखूं ,तित  प्राण हमारे , घाव कहाँ पे डारूँ।

जित देखूँ तित मेरे प्राण, घाव कहाँ पे डारूँ।

ये भाव तब आता है ,जब हृदय में प्रेम जागता है ,आकर्षण नहीं प्रेम। प्रेम गुणवाचक शब्द है आकर्षण का संबंध देह से है।आकर्षण छीज जाता है प्रेम आनंद स्वरूप है ब्लिस है।आकर्षण प्रेम नहीं है आकर्षण शरीरी होता है प्रेम विदेही।

(ज़ारी ) 

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