बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

श्रीमदभगवद गीता अध्याय चार :श्लोक (२५ ) दैवम एवापरे यज्ञं ,योगिन : पर्युपासते , ब्रहमाग्नाव अपरे यज्ञं ,यज्ञेनैवोपजुह्वति।

श्रीमदभगवद गीता अध्याय चार :श्लोक (२५ )

दैवम एवापरे यज्ञं ,योगिन : पर्युपासते ,

ब्रहमाग्नाव अपरे यज्ञं ,यज्ञेनैवोपजुह्वति। 

दैवम -स्वर्ग के देवता ;एवा  -वास्तव में ;  अपरे -अन्य ;  यज्ञं -आहुति ,बलि ;योगिन :  -आध्यात्मिक अभ्यासी,ज्ञानीजन  ;  

पर्युपासते -पूजा -उपासना ;  ब्रह्मा -परम सत्य से सम्बंधित ,परम सत्य का ;  अग्नौ -अग्नि में ;  अपरे -अन्य ;  यज्ञं -आहुति ;  

यज्ञेन -आहुति द्वारा ;  एवा -वास्तव में ;


उपजुह्वति -अर्पण करना। 


कोई योगीजन देवताओं का पूजनरुपी यज्ञ करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन ब्रह्मरुपी अग्नि में यज्ञ के 

द्वारा (ज्ञान रुपी )यज्ञ का हवन  करते हैं।

Some yogis worship the celestial gods with material offerings 

unto them .Others 

worship perfectly who offer the self as sacrifice in the fire of 

the Supreme Truth . 


दिव्य चेतना में रहते हुए ही उस परमशक्ति को स्वयं को अर्पण  करना चाहिए यज्ञ करना चाहिए। बेशक  लोग चेतना के अलग अलग 


स्तरों  एवं अपनी अपनी समझ के साथ  यज्ञ करते हैं। सबके लिए यज्ञ का मतलब यकसां नहीं है। भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति के 



लिए कुछ लोग अपनी समझ से द्रव्य की आहुति देते हैं। 




जिन्हें यज्ञ की गहन  बूझ है वह स्वयं को ही यज्ञ में होम कर देते हैं।इसे 

ही आत्माहुति या फिर आत्मसमर्पण कहा जाता है। यहाँ 

आत्मा ही हव्य सामिग्री है।

Yogi Shri Krishna Prem explained this very  well :"In this 

world of dust and din ,whenever one makes an atmahuti 

in the flame of divine love ,there is an explosion ,which is 

grace ,for no true atmahuti can ever go in vain ."


लेकिन स्वयं को अर्पण करने की विधि क्या है ?परिपूर्ण आत्मसमर्पण  है 

, जिसकी चर्चा  १८ वें अध्याय के ६६ वें श्लोक में की गई है।  

2 टिप्‍पणियां:

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत सुंदर ज्ञान सरिता.

रामराम.

रविकर ने कहा…

सुन्दर भावार्थ -
सरल व्याख्या-
आभार वीरू भाई