गुरुवार, 22 अगस्त 2013

कबीर :प्रतीक्षित दूसरी किश्त

कबीर :प्रतीक्षित दूसरी किश्त


 ( ८ )जो कछु किया सो तुम किया ,हौं किया कछु नाहिं ,


       काहू कहि जो मैं किया ,तुम ही थे मुझ मांहि। 

इस जगत में जो कुछ भी होता है वह ईश्वर की मर्जी से ही होता है। इस बात को जो अहंकार से दूर है वही जानता है।कबीर कहते हैं जो कुछ  भी किया उस परमात्मा ने ही किया। सांसारिकता की दृष्टि से भी मैं ने जो भी कुछ किया भी उसके पीछे भी कार्य शक्ति तुम्हारी ही थी। श्रेय लेने का मुझे अधिकार नहीं है। मैं ने जब कहा मैं ने किया वह भी तुम थे जो मेरे पीछे खड़े खड़े सब करवा रहे थे। 

  

   ( ९ ) जिनको साईं रंग दिया ,कभी न होय सुरंग ,
           
           जिन जिन पानी प़ाखरि   ,चढ़े सवाया रंग।  

जिनको परमात्मा ने अपनी भक्ति के रंग में रंग दिया है अपने नाम की बख्शीश दे दी है वह दोबारा इस संसार की अल्पकालिक अस्थाई मौज मस्ती में नहीं लौटते हैं। इधर उधर के भोग विलास में फिर वह नहीं पड़ते हैं ।परमात्मा के नाम सिमरन की यह जो धारा है उसमें स्नान करने से यह नाम का रंग फिर उतरता नहीं है। और भी सवाया हो जाता है। नाम के स्मरण से वह और भी परमात्मा की तरफ बढ़ता है। ठीक वैसे ही जैसे रंग दिए गए कपड़े  को  पानी  में डाल देने पर उसमें और  भी निखार आता है।संसार के प्रवाह में भी निकलने से फिर वह भक्ति का रंग कम नहीं होगा ,पक्के रंग की तरह चढ़ जाता है। 


  ( १० )ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय ,

           नीचा होय तो भर पिये ,ऊंचा प्यासा जाय। 

पानी का स्वभाव यह है उसे भले मोटर (मशीन) से जितना ऊपर उठा लो वह लौट के नीचे ही आता है। पानी बरसता है पहाड़ों पर वहां  से बरस के फिर वह नीचे आता है ,फिर पृथ्वी में समा जाता है। पानी मनुष्य की विनम्रता का बाना है। अहंकार पर चढ़ा व्यक्ति सुख नहीं पाता है। अहंकार ज्ञान को नष्ट कर देता है जो पानी से भी पतला और तरल होता है। वह सब साधनों को भोग कर भी सुख नहीं पाता  है। तृप्त नहीं होता है। प्यासा ही रह जाता है। भगवान् की भक्ति में जो सिर झुकाके जीता है। परमात्मा की भक्ति का जल जिसके हृदय में रुक जाता है वह तृप्त हो जाता है। हृदय ही परमात्मा के नाम का स्थान है। परमात्मा के नाम का जो सुख है वह व्यक्ति अहंकार में रहके प्राप्त नहीं कर सकता। भक्ति का जल हृदय में बसाना पड़ता है। वही जल सुख शान्ति और तृप्ति प्रदान करता है। 

 ( १ १ )आठ पहर चौंसठ घड़ी ,मेरे और न कोय ,

            नैना माहिं तू बसे ,नींद को ठौर न होय। 

दिन के चार पहर होते हैं और तीन घंटे का एक पहर होता है। इस प्रकार बारह घंटे का दिन होता है। इसीप्रकार रात के भी चार पहर होते हैं। बारह घंटे की ही रात होती है। कुल मिला के  आठ पहर हो गए। एक पहर में आठ घड़ी  और आठ पहर में  चौसठ घड़ी हो गईं। सारा काल जो एक दिन और एक रात के बीच में बीतता है वही चौसठ घड़ी कहलाता है। हर नया दिन हमें यह स्मृति दिलाता है अब तुम्हारा नया जन्म हुआ है। सुसुप्ति (रात की नींद में )व्यक्ति सब भूल जाता है। परम शान्ति में होता है। आत्मा जब शरीर से काम लेते लेते थक जाती है तो सो जाती है। हर नए दिन में उठते ही अवलोकन करना चाहिए मैं ने कल क्या किया था। आठ पहर कैसे बिताये  थे।  

कबीर कहते हैं आठ पहर चौसठ घड़ी मेरा मन तो तुम्हारे में ही लगा रहता है। प्रभु आप ही मेरी वृत्ति मेरे चित्त में समाये रहते हैं। मेरी जिन आँखों में तुम आठ पहर बसते हो फिर उनमें नींद कहाँ से आयेगी। नींद करने का जो सांसारिक भाव है वह मुझे अब नहीं सुहाता है।

( १२ )कबीरा वैद (वैद्य ) बुलाया ,पकड़ के देखि बान्हि ,

         वैद न भेदन जानहिं ,सिर्फ कलेजे मांहि। 

सांसारिक नाड़िया वेद्य मेरे बारे में क्या जाने उसने मेरी नाड़ी (नव्ज़ )ही देखी। इस नाड़िया वैद्य को क्या पता मेरी लौ जिस से लगी है उसकी स्मृति में  ही मेरी आँखों  में आंसू आ गए हैं।

(ज़ारी )

ॐ शान्ति 

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5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन के भीतर हुये परमात्मा से संवाद।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Subah subah is param anand ki prapti ho gayee ... Vistrat akash hai Kabeer ki vani ka ...
Ram ram ji ...

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति-
आभार भाई जी-

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सार उतार दिया आपने.

रामराम.

Anita ने कहा…

परमात्मा के नाम का जो सुख है वह व्यक्ति अहंकार में रहके प्राप्त नहीं कर सकता। भक्ति का जल हृदय में बसाना पड़ता है। वही जल सुख शान्ति और तृप्ति प्रदान करता है।

अमृत वाणी !