शनिवार, 31 अगस्त 2013

भगवतगीता दूसरा अध्याय (७० -७२ )

भगवतगीता दूसरा अध्याय (७० -७२ )

(७ ० )जैसे हर ओर  से भरे हुए समन्दर में नदियों का जल उसे बिना विचलित किये समा जाता है। समुन्दर में कभी बाढ़ नहीं आती है  वैसे ही स्थिर बुद्धि व्यक्ति क्षुद्र दुखों के  आने से कभी विचलित नहीं होता है। और न ही सुख में इतराता है। जबकि क्षुद्र लोग बरसाती नदियों की तरह ज़रा सा सुख भी जीवन में आ जाए तो इतराने लगते हैं फूल के कुप्पा हो जाते हैं। जब तक हम संसार की हर छोटी छोटी वस्तु को अपनी मानते रहेंगे यह क्षुद्रता हमारे अन्दर बनी रहेगी। हम छोटे छोटे दुखों से विचलित होते रहेंगे। 

जो व्यक्ति भगवान् से जुड़ा है उसमें समुन्द्र जैसी  ही विराटता पैदा हो जायेगी। छोटे बड़े दुःख उसे विचलित नहीं करेंगे। जिस पुरुष में सारे भोग उसे विचलित किये बिना गुजर जाते हैं वही स्थिर प्रज्ञ है। 

(७ १ )वही व्यक्ति शान्ति को प्राप्त होता है जो अपनी सभी मन की कामनाओं को छोड़ देता है। जो पकड़े  रहता है उसके मन में शान्ति नहीं रह सकती। जो व्यक्ति कामनाओं को पड़े रहता है बस अपने मन को अशांत कर देता है। लेकिन जब व्यक्ति सारी उम्मीदों अपेक्षाओं से अलग हो जाता है उसका मन शांत हो जाता है। जिस घर को बच्चों को वह अपना समझ रहा है वही अशांति का कारण बनते हैं। जब इन्हें भगवान् का मानेगा तब शान्ति आयेगी। 

कामनाएं ,उम्मीदें ,मेरापन  और अहंकार ये चार चीज़ें ही हमें  अशांत करतीं हैं। आसक्ति और मोह का खतम होना ही निर्मम होना है। जब व्यक्ति किसी से कोई उम्मीद ही नहीं रखेगा तब  उसका मन शांत हो जाएगा।  

(७२ )जो व्यक्ति ऐसी (उपर्युक्त उल्लेखित )स्थिति में जीयेगा वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाएगा  ,स्वयं के निज आत्म स्वरूप को पहचान लेगा।भगवान् कहते हैं - हे पार्थ जब इन आचरणों को कोई व्यक्ति अपने जीवन में उतार लेता है फिर वह मोहित  नहीं होता है। किसी के भी द्वारा बांधा नहीं जा सकता। व्यक्ति यदि अंत समय में भी जीवन की शाम जब होने को है यदि इस स्थिति को प्राप्त होता है तो भी वह फिर ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाता है। 

इस प्रकार यह दूसरा अध्याय हमने भगवान् को अर्पित किया। इस प्रकार सांख्य  योग नामक दूसरा अध्याय पूर्ण होता है। 

विहंगावलोकन -

श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय( श्लोक ६६ -७० ) 

(६ ६  )(ईशवर से) अ -युक्त मनुष्य के अंत :करण में न ईश्वर का ज्ञान होता है ,न ईश्वर की भावना ही। भावना हीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ ?

(६७  )जैसे जल में तैरती नाव को तूफ़ान उसके लक्ष्य से दूर धकेल देता है वैसे ही इन्द्रिय -सुख मनुष्य की बुद्धि को गलत रास्ते की ओर  ले जाता  है। 

(६८ )इसलिए ,हे अर्जुन ,जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा विषयों के वश में नहीं होती हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। 

(६९ )सब प्राणियों के लिए जो यात्री है ,उसमें संयमी मनुष्य जागा रहता है ;और जब साधारण मनुष्य जागते हैं ,तत्वदर्शी मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है। 



(७० )जैसे सभी नदियों के जल समुद्र को विचलित किए बिना परिपूर्ण समुद्र में समा जाते हैं ,वैसे ही सब भोग जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह मनुष्य शान्ति प्राप्त करता है ,न कि भोगों की कामना करने वाला। 

भाव विस्तार : जो व्यक्ति अन्दर से अशांत है उसके पास सुख कहाँ। फिर शान्ति भी कहाँ से आयेगी उसके पास। ४२० लोगों के पास तामसिक बुद्धि है। वह बुद्धि सात्विक होती है जो हमें ईश्वर की तरफ ले जाती है अध्यात्म  की ओर तत्व ज्ञान की ओर ले जाती है ,पवित्रता की तरफ ले जाती है। जो व्यक्ति सद मार्ग  से जुड़ा हुआ नहीं है परमात्मा से जुड़ा न होकर संसार से जुड़ा हुआ है उसके पास सत्य से प्रेरित बुद्धि नहीं होती। जो व्यक्ति अच्छे गुणों से भरा हुआ है वही योग्य है। जब हमारे पास ये सब गुण नहीं होंगें तब हमें त्रिकाल  में भी सुख -शांति नहीं मिलेगी। जिसके जीवन में विवेक और सदबुद्धि का अभाव है वह व्यक्ति अन्दर से अशांत होगा। 

जैसे जल में चलने वाली नाव को झंझा अपनी ओर खींच लेती है अपनी ओर बहाके ले जाती है वैसे ही विषयों में विचरण करती इन्द्रियों में से मन जिसके साथ रहता है ,बुद्धि भी फिर भ्रष्ट होकर उसी तरफ चल देती है। वही इन्द्रिय सक्रीय हो जाती है जिसे मन की शह मिलती है। इसलिए बहुत सावधानी के साथ मनुष्य को पदार्थ में इन्द्रियों के विषयों में विचरण करना चाहिए  . मन अयोग्य व्यक्ति की बुद्धि को वश में कर लेता है। वैसे ही जैसे तेज़ हवा तूफ़ान नाव को अपनी ओर  खींच ले जाती है। जैसे भोजन स्वादिष्ट होने पर जीभ कहती है वाह क्या बात है ,मन कहता है चलो और आने दो ,बुद्धि भी उसी पाले में फिर खिसक के चली आती है। 

भगवान् कहते हैं ,हे महाबाहु जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ हर प्रकार के विषयों से सदबुद्धि ,सत संग ,द्वारा कंट्रोल कर ली गईं हैं उसी की बुद्धि स्थिर होगी। व्यक्ति के जीवन की नाव फिर भगवान् की ओर  लगेगी।  संसार के विषयों के जो पदार्थ हैं वह उस पर हावी न होंगे। क्योंकि महापुरुषों और शाश्त्रों का ज्ञान उसके संग हैं। 

भगवान् कह रहे हैं जो काल सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि के समान है उसमें स्थित प्रज्ञा जागता है। प्रभु स्मरण करता है क्योंकि रात के समय प्रकृति भी शांत होती है टेलीफोन काल भी जल्दी लग जाती है। भक्ति का उपयुक्त समय रात्रि ही है। रात में रास्ता भी जल्दी कटता है दिन में तरह तरह की चीज़ें रोकती हैं। रात में ध्यान जल्दी लगता है। 

जबकि  सांसारिक व्यक्ति उस समय विषयों का चिंतन करता है सुख भोग की योजनायें बनाता है। यहाँ बात अज्ञान की रात्रि की हो रही है ज्ञान के प्रकाश के दिन की  हो रही है। परमात्मा के प्रकाश को जान लेने वाले साधक के लिए दिन रात के समान  है।जिनके पीछे ,जिन चीज़ों के पीछे सांसारिक प्राणि   दिन भर भागते रहते हैं साधक उनके प्रति अनासक्त रहता है। यहाँ मोह रूपा रात और ज्ञान रूपी दिन की बात हो रही है। जब तमोगुणी लोग (रात में )सो जाते हैं साधक परमात्मा की प्राप्ति के लिए तप करता है। उसका प्रयत्न सार्थक होता है। 

जिस प्रकार नदी अपने मार्ग में आये लकड़ी आदि पदार्थों को बहा के ले जाती है ,उसी प्रकार कामनाओं की नदी की प्रचंड (वेगवती )धारा भी ,उद्दाम आवेग भी भौतिक वादी (पदार्थ का चिंतन करने वाले )व्यक्ति के मन को बहाकर ले जाती  है। योगी का मन उस प्रशांत महा सागर की तरह हैं ,जिसमें कामनाओं की सरिताएं बिना उसे मथे ,बिना आंदोलित किए समाहित हो  जाती हैं। मानव कामनाएं अन्नत हैं कामनाओं की पूर्ती का प्रयास पेट्रोल द्वारा आग बुझाने जैसा है। शर्बत और पेप्सी से प्यास बुझती नहीं है और बढ़ जाती है। 

काम वासनाओं की पूर्ती करना वैसा ही है जैसा  और लकड़ी डालकर आग को बुझाना। लकड़ी न डालने से आग स्वत : ही बुझ जाती है। यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं की पूर्ती किए बिना शरीर छोड़ देता है मर जाता है  फिर उसे इनकी पूर्ती के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता  है।जब तक के वह अपने मन को जीत न ले।  जो मन को जीत लेता है वह जनम  मरण से मुक्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। आंदोलित व्यक्ति झील के जल में चाँद ढूँढने के लिए उसे पकड़ने के लिए उसमें छलांग लगा देता है वहां चाँद नहीं है। व्यक्ति वासनाओं के जल में डूब जाता है। ईश्वर की प्राप्ति आंदोलित मन को पराजित मन को नहीं होती है। 

ॐ शान्ति 

  1. Madhuban Murli LIVE - 31/8/2013 (7.05am to 8.05am IST) - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=FrwjpFk5vzU
    14 hours ago - Uploaded by Madhuban Murli Brahma Kumaris
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Posted: 29 Aug 2013 10:38 PM PDT
Posted: 29 Aug 2013 10:27 PM PDT








ॐ शान्ति 

विशेष :आगे हम गीता का १४ वां अध्याय का व्याख्या के लिए पहले लेंगे जिसमें कुल २७ श्लोक हैं और गीता का यह एक एहम अध्याय है इसके बाद फिर तीसरे अध्याय पर लौट आयेंगे। ऐसा करने से आपकी दिलचस्पी गीता को समझ लेने में पढ़ते रहने में  और भी पैदा होगी ऐसा हमारा मानना है। दूसरा  और चौदहवाँ गीता का पूरा मर्म खोलके रख देता है। इति । 

2 टिप्‍पणियां:

Rahul... ने कहा…

जो व्यक्ति भगवान् से जुड़ा है उसमें समुन्द्र जैसी ही विराटता पैदा हो जायेगी। छोटे बड़े दुःख उसे विचलित नहीं करेंगे। जिस पुरुष में सारे भोग उसे विचलित किये बिना गुजर जाते हैं वही स्थिर प्रज्ञ है।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत बढ़िया प्रस्तुति,,,

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