मंगलवार, 27 अगस्त 2013

कबीर साखियाँ

                       कबीर साखियाँ 

(१ ) पाव पलक की सुधि नहीं ,करे काल्हि का साज 

       काल्हि अचानक मारसि ,ज्यों तीतर को बाज़। 

सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं। जीवन पानी के बुलबुले की तरह क्षण भंगुर है फिर भी मनुष्य दुनिया के सुख साधनों को किसी भी बिध संजो लेना चाहता है। साधनों को ही उसने अपना साध्य बना लिया है जो नष्ट हो जाने हैं क्योंकि  इनका सम्बन्ध तो संसार से है जिसकी कोई भी चीज़ स्थिर नहीं है क्षय हो रहा है हर चीज़ का लगातार काया हो चाहे माया।एक आध्यात्मिक धन ही अनश्वर है। उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। 

जैसे बाज़ आके अचानक उड़ते पाखी को धर दबोचता है ऐसे ही मृत्यु एक दिन इस पंछी को भी ले उड़ेगी। काया छोड़ जाएगा आत्माराम भी बिना बताये यकबयक। सब ठाठ पड़ा  रह जाएगा , जब छोड़ मुसाफिर जाएगा। 

संसार चक्र में फंसा व्यक्ति मोह माया से ही आबद्ध है। जीवन मुक्ति तभी मिलेगी जब सांसारिक चीज़ों से जो नश्वर हैं मोह ममता और आसक्ति हटेगी। आसक्ति का मतलब है जो आ सकती है वह जा भी सकती है। अपने परलोक का भी सोचो। ज़रा कोशिश तो कर देखो तुम तो अपने कल का बीमा ही देख पा रहे हो। जायज़ ना जायज़ हर तरीके से धन एकत्र कर मनुष्य तिहाड़ जाने की पात्रता  में ही उलझा हुआ है।  

(२ )कबीर गर्व (गरवा )न कीजिये ,रंक न हसिये कोय ,

      अजहूँ नाव समुंद में ,ना जाने क्या होय। 

कबीर कहते हैं यहाँ राजा को रंक बनते देर नहीं लगती। इसलिए सांसारिक वैभव धन दौलत का अहंकार न पालो। किसी की दरिद्रता का मज़ाक मत बनाओ। सब की नाव अभी भवसागर में है यहाँ किस पल क्या हो जाए इसका कोई निश्चय नहीं।भविष्य के गर्भ में क्या है कोई नहीं जानता। न जाने किसके साथ कब क्या हो जाए। 

धन दौलत के मद में व्यक्ति चूर होकर अभिमान की चादर औढ़  लेता है।  सहानुभूति तदानुभूति की कौन कहे बे -दर्दी से गरीब का मजाक उड़ाने लगता है। हंसता है गरीब पर ,अट्ठहास करता है जो वह यह भूल जाता है सब अभी तो एक ही नाव में बैठे हैं सब ,उस पार जाना है वहां भी तो हिसाब देना है। यहाँ भी  राजा को भी रंक बनते देर नहीं लगती। आज आदमी लाखों में खेल रहा है कल तिहाड़ में है। वक्त का किसको पता है। ईश्वर से डरो। 

( ३ )घट घट मेरा साइयां सुनी सेज न कोय ,

       बलिहारी घट तासु की ,जा घट परगट होय। 

यूं तो परमात्मा का  प्रत्येक मनुष्य के हृदय में  वास है सृष्टि के हर कण में वह वसित है।  उसकी महिमा अन्नत है कोई जगह ऐसी नहीं है जहां वह न भासित हो। लेकिन महिमा तो उस व्यक्ति की है जिसने उसे जान लिया है पहचान लिया है अन्दर के आत्म तत्व को। ब्रह्म तत्व को। जिसका हृदय उसके स्वरूप से भासित है। वही  जीव आत्मा (मनुष्य )धन्य है। वह मनुष्य के वेश में परमात्म स्वरूप  ही है। क्योंकि उसके ही गुणों से दीप्त है। 

साक्षात होते हैं ईश्वरीय गुण उसमें जो परमात्मा को जान लेता है। वही व्यक्ति फिर साधु  कह्लाता हैजिसने परमात्मा के गुणों को धारण कर लिया है उतार लिया है अपने आचरण और व्यवहार में। वह सच्चिदानंद स्वरूप ही हो जाता है फिर। 

(४)कस्तूरी कुंडली बसत ,मृग ढूंढें बन माहिं ,

    ऐसे  घट घट राम ही ,दुनिया देखत नाहिं। 

जैसे कस्तूरी की गंध तो हिरन की नाभि में ही रहती है और वह वन वन भटकता डोलता उसके पीछे वैसे ही मनुष्य संसार के सुख साधनों में भटक रहा है जबकि असली सुख तो उसके अन्दर ही है सांसारिक पदार्थों में नहीं है। प्रत्येक हृदय में परमात्मा का वास  है मनुष्य उसे पहचानता ही नहीं है। 

बेहद का आनंद वह परमानंद जो उसके हृदय में ही वसित है लेकिन वह उसे संसार में ढूंढ रहा है।पदार्थ में ढूंढ रहा है। संसार की चीज़ों से मोह दुःख ही देता है जबकि प्रेम रस परमात्म प्रेम तो हमारे हृदय में ही है अपनी अज्ञानता में हम उसे पहचान ही नहीं पाते हैं।  

(५ )साहब तेरी साहबी सब घट रही समाय ,

      ज्यों मेहँदी के पात में ,लाली लखि न जाय। 

हे सर्शक्तिमान परमात्मा मेरे बे -हद के बाप तेरी ज्योति तेरी शक्ति हर हृदय में है। तू ही सब  काम करने की ताकत देता है हम मनुष्यों को। फिर भी तू अगम अगोचर बना अरहता है। जैसे बीज में वृक्ष छिपा रहता है ऐसे ही तेरी लाली मेहँदी के हर पत्ते में छिपी रहती है लेकिन तेरा प्राकट्य तभी होता है जब मेहँदी के पत्तों को पहले धौ  सुखाके पिसा जाय फिर मेहँदी रचाई जाय उसे सूखने दिया जाए फिर  धोया जाय पुन :तब लाल रंग रचता है मेहँदी का। 

वैसे  हम मनुष्यों को पहले अपनी बुद्धि का पात्र निर्मल करना पड़ता है। पवित्र तन और मन से तेरी याद में रहना पड़ता  है निरंतर  तभी तू प्रकट होता है। परमात्मा तो है ही पवित्रता का सागर विकारों के साथ वह दिखलाई भी कैसे दे। विकारों की दीवार हमारे और परमात्मा के बीच खड़ी  हो जाती है वह दीवार गिरे तो परमात्व तत्व भासित हो। 


मीराबाई :साधौ कर्मन की गति न्यारी 

निर्मल नीर दियो नदियन  को ,सागर कीन्हों खारी ,

उज्जवल बरन दीन्हीं बगुलन को ,कोयल कर दीन्हीं  कारी।

मूरख को तुम ताज  दियत हो ,पंडित फिरै ,भिखारी। 

सुन्दर नैन मृगा को दीन्हीं ,वन वन फिरै उजारी। 

सूर श्याम मिलने की आशा ,छिन  छिन  बीतत भारी। 

मीरा कह प्रभु गिरधर नागर ,चरण कमल बलिहारी। 


व्याख्या :मीरा कह रहीं हैं कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। 

अपने हाथ में व्यक्ति के कुछ नहीं है जो जैसा कर्म 

करेगा वैसा फल पायेगा। 

कर्मों की गति का रंग तो देखिये -जो नदी गर्मी में सूख जाती है बरसात में ही जिसे थोड़ा सा रस प्राप्त होता है। जिसे अपनी गति बनाए रखने के लिए भी वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है। ईश्वर ने उसके कर्मों को मिठास से भर दिया है। और जिस सागर की विराटता का छोर नहीं है जिसे पार करना अलंघ्य है दुष्कर है जो एक तरह से परमात्मा के अन्नत गुण का भी प्रतीक है उसकी विराटता का दंभ उसे खारा करके लुप्त कर दिया है। 

प्रकृति ने कैसी रचना कर्मों के हिसाब से की है :कपटी बगुले को सुन्दर बना दिया और कानों में रस घोलने वाली सुकंठी कोयल को काला बना दिया। निर्बुद्ध को राजा बना दिया जिसको राज पाट  का कुछ ज्ञान भी नहीं है और पंडित ग्यानी भीख मांगते डोल  रहे हैं। 

बगुला तो मक्कारी का प्रतीक है। कपट पूर्ण  तरीके से एक टांग पर  खडा हो जाता है मछली को देखते ही उसे चट कर जाता है। ऐसे कपट पूर्ण व्यवहार करने वाले को ईश्वर ने श्वेतना प्रदान की है। और जो मीठी तान सुनाके सबका मन हर लेती है उस सुकंठी कोकिला को कृष्ण मुख बना दिया है। 

यहाँ  कर्म शब्द परमात्मा की प्रकृति का भी प्रतीक है।

मृग बे -चारा अपने बड़े बड़े नैन खोलके निर्जन वनों में मारा मारा फिर रहा है जहां उसके सौन्दर्य को निहारने वाला कोई नहीं है। आखिर इतनी सुन्दर आँखें देने  का मतलब क्या हुआ फिर जहां देखने वाला ही कोई नहीं इन सुन्दर  आँखों को। 

मीरा कहतीं हैं मीरा के स्वामी तो वही गिरधर गोपाल त्रिभंगी हैं  जिनकी प्रकृति की कोई टोह नहीं ले पाता है। मीरा उन्हीं के श्री चरणों की कमल चरणों  की दासी हैं ।  

ॐ शान्ति 

  कबीर की साखियाँ

( १)जो तोकू काँटा बुवै  ,ताहि कू  बोव तू फूल ,

     तोकू फूल के फूल हैं ,वाकू हैं त्रिशूल।

भले आपके लिए कोई मुसीबत  खड़ी करे आप के मार्ग में कांटे बिछा दे विघ्न पैदा करे अडंगा डाले आप के

काम में आप उसका भी भला ही करो। फूल बिछाओ उसके मार्ग में। कर भला हो भला ,अंत भले का भला।

आखिर में वह व्यक्ति खुद ही मुसिबतों  में फंसा होगा। अपने ही बिछाए जाल में फंस के रहेगा। तुम निर्विघ्न

रहोगे फूलों की तरह अपनी खुशबू बनाए

रहो। गांधी गिरी मत छोड़ो।

सम पीपल आर  ब्यूटीफुल जस्ट बाई बींग।

संत वही है साधू वही है जो औरों की प्रशंशा ही करे सबका कल्याण करे।साधु  में गुण ग्राहकता का ही गुण होता है वह सबकी अच्छाई ही देखता है।  भक्त जन सबका भला ही चाहते हैं।

भक्त का स्वभाव है प्रेम करना उसको उसकी प्रेमा भक्ति का फल ज़रूर मिलता है। प्रेम में देना ही प्राप्त

करना है। जैसा बोवोगे वैसा काटोगे। विघ्न संतोषी कभी चैन से नहीं बैठता है खुद से ही दुखी रहता है।



( २ )काल्हि करे सो आज कर ,आज करे सो अब ,

     पल में परलय होयेगी ,बहुरि करेगा कब।

मृत्यु शाशवत है कभी भी आ सकती है इसलिए आलस्य और प्रमाद त्याग के कल का भरोसा न करो। कल

कभी नहीं आता है। जो है यह वर्तमान है। इसी पल करो जो करना है। इस पल को निचोड़ो देखो तो सही उसके

गर्भ में क्या है ?आज कल करते करते ही जीवन बीत जाता।तुरताई ज़रूरी है।

आलस्य और प्रमाद एक बड़ा अवगुण है.ना -कामयाबी का सृजन हार यह आलस्य ही है। कल कल करने वाला कभी कामयाब नहीं हो सकता। प्रमाद और अनिच्छा के कारण किसी कार्य का स्थगन करना टालमटोल करते रहना ,आये अवसरों को गंवाना है। जीवन को नष्ट कर देता है टालू रवैया इसीलिए जो करना है अभी की अभी  कर भैया । वक्त की पाबंदी ,मुस्तेदी से काम करोगे तभी कामयाबी हाथ आयेगी।

(३ )आज कहे हरि काल्हि भजुंगा ,काल्हि कहे फिर काल्हि (कल )

     आज काल्हि की करत  ही ,अवसर जासी चाल्हि। (चल ).

ये जीवन उतना लंबा नहीं है जितना  तुम समझे बैठो हो यह कल कल करते ही बीत जाएगा। हरि भजन को टाल  न

बन्दे। कब ज़रा (बुढ़ापा  )आ घेरेगा ,तू नहीं जानता फिर राम भजन भी न होगा तुझसे। जर्जर हो जायेगी  ये

कायादेखते ही देखते। आईना देखना है तो अब देख अपने सही स्वरूप आत्मा को जान परमात्मा को याद कर

ले बंदे।

(४ )आये हैं सो जायेंगे ,राजा रंक फ़कीर ,

      एक सिंह -आसन चढ़ी चले ,एक बंधे जंजीर।

यहाँ ,राजा हो या निर्धन या फिर भिखारी जो आया है सो जाएगा। उम्र पट्टा लिखाकर कोई आया नहीं है। सवाल यह है जाएगा किस बिध। राजसिंह -आसन बैठ या जंजीरों में बंधा हुआ। इस छोटे से जीवन में जिसने अपने आप को पहचान लिया और फिर अपने परम पिता को भी जाना है याद किया है वह प्रशांति में और सम्मान पूर्वक जाएगा सद कर्मों की पोटली लिए अपनी अच्छाइयों के साथ और जिसने यह जीवन व्यर्थ गंवाया है याद नहीं किया है अपने पिता को वह अंत में हाथ मलता ही जाएगा। रोता हुआ आया था रोता हुआ ही जाएगा। पछतावा ही उसके साथ जाएगा। सब ठाठ पडा रह जाएगा जब लाद  चलेगा बंजारा।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा  ,

जब याद चलेगा बंजारा ,

धन तेरे काम न आवेगा ,

जब लाद  चलेगा बंजारा।

जो पाया है वो बाँट के खा ,कंगाल न कर कंगाल न हो ,

जो सब का हाल किया तूने ,एक रोज़ वो तेरा हाल न हो ,

इक हाथ कटे  इ क हाथ चले ,हो जावे सुखी ये जग सारा।

सब ठाठ पडा रह  जावेगा ,जब लाद चलेगा बंजारा।



क्या कोठा कोठी क्या बँगला, ये दुनिया रैन बसेरा है ,

क्यूं  झगड़ा तेरे मेरे का ,कुछ तेरा है न मेरा है।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा ,जब लाद चलेगा बंजारा

सुन कुछ  भी  साथ न जाएगा ,जब कूच  का बाजा लनकारा  (नन्कारा )

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा। धन तेरे  काम  न आवेगा ,

जब लाद चलेगा बंजारा।

एक बन्दा मालि क बन बैठा ,हर बंदे की किस्मत फूटी ,

था इतना मोह फसाने का ,

दो हाथों से दुनिया लूटी ,

थे दोनो  हाथ मगर  खाली ,उठ्ठा जब (डंगर ) लंगर बे चारा।

सब ठाठ पड़ा  रह जावेगा ,जब लाद  चलेगा बंजारा।

  1. 'sab thhathh pada rah jayega jab lad chalega banjara'

    • by akmudgal
    •    
    • 2 years ago
    •    
    • 3,678 views
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2 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

बेहद का आनंद वह परमानंद जो उसके हृदय में ही वसित है लेकिन वह उसे संसार में ढूंढ रहा है।पदार्थ में ढूंढ रहा है। संसार की चीज़ों से मोह दुःख ही देता है जबकि प्रेम रस परमात्म प्रेम तो हमारे हृदय में ही है अपनी अज्ञानता में हम उसे पहचान ही नहीं पाते हैं।

सत्य वचन, आभार!

Arvind Mishra ने कहा…

कबीर में एक अक्खडपन है ,दर्प है -वे बेलौस हैं !
फिर भी अपने विचारों में स्पष्ट हैं ,कोई द्वैध नहीं ,कोई छद्म नहीं!
आपने चुनिन्दा दोहों को साझा किया है!