रविवार, 18 अगस्त 2013

कबीरदास जब लग नाता जगत का, तब लग भगती ना होय नाता तोड़े हर भजे, भगत कहावे सोय.

                   कबीरदास
जब लग नाता जगत का, तब लग भगती ना होय

नाता तोड़े हर भजे, भगत कहावे सोय.

हद हद जाए हर कोई, अनहद जाए ना कोय ,

हद अनहद के बीच में रहा कबीरा सोय.

माला कहे है काठ की, तू क्यों  फेरे मोय

मन का मनका फेर ले तो तुरत मिला दूं तोय.

कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होय ,

सीस चढ़ाये पोटली जात ना देखा कोय।

पाहून पूजे हरि  मिले ,तो मैं पूजूं पहाड़ ,

ताते ये चाकी भली पीस खाय संसार। 


माला कहे है काठ की, तू क्यो फेरे मोय,
मन का मनका फेर ले तो तुरत मिला दूं तोय . 


काठ की माला कहती है अपने मन को घुमा वह तो कहीं और अटका है तुम्हारी साधना तो ढोंग है। 

वृत्तियों को परमात्मा में लगा  दो संसार से हटाके। मन को (प्रत्याहार ,ध्यान ,धारणा ,समाधि से 

)वहां लगाओ जहां तुम्हारा ईश्वर है। इन्द्रियों को ,आत्मा रुपी राजा की शक्ति और प्रजा मन और बुद्धि 

को परम आत्मा  से जोड़कर अगर तू अपने मन  के "मनके "ध्यान को परमात्मा में लगा दे तो मैं 

तुझे तुरत उससे मिलवा दूंगी। संसार की चीज़ों से जुड़ाव हो तो भक्ति नहीं होती। भक्ति करनी है तो 

संसार को छोड़ना पड़ेगा। 

हद हद जाए हर कोई, अनहद जाए ना कोय , 
हद अनहद के बीच में रहा कबीरा सोय.

हृदय चक्र को अनहद चक्र कहते हैं। बिना आहत के बिना टंकार के  जिसमें स्वास प्रस्वास टिक जाए ,सहज अवस्था में स्वास प्रस्वास चलते रहें ,और उसी में मन टिकता जाए इसे ही अनाहत नाद कहते हैं। ऐसा हो जाए तो वृत्ति परमात्मा मय हो जाए। 


कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होए 
सीस चढ़ाये पोटली जात ना देखा कोए 

जितना भी हम धन कमाते हैं वह शरीर से ही कमाया जाता है उसका सम्बन्ध शरीर से ही होता है। 

जब शरीर की  चेष्टाएँ खत्म हो जातीं हैं तब कहते हैं निधन हो गया। हम प्रवृत्ति में जीते हैं संचय 

करते हैं। शरीर साथ नहीं जाएगा तो शरीर से कमाया धन भी साथ नहीं जाएगा। आत्मा का धन 

परमार्थ में है। आत्मा जब शरीर छोडके जाए तो कह सके मुझे जो शरीर मिला था देखो मैंने 

अपनी आत्मा के स्वभाव को निज रूप को तुम परमपिता के साथ जोड़ा था। यही परमार्थ वह धन 

है जिससे व्यक्ति उससे (परमात्मा से )सुर्ख रु होकर बात कर सकता है। पात्रता प्राप्त कर 

सकता है ठहरने की। जो शरीर के कार्यव्यापार और हासिल में ही रह गया वह सुर्ख रु भला कैसे हो 

सकता है।  

पाहुन  पूजे हरि मिले तो मैं पुजूं पहाड़ ,

ताते ये चाकी भली ,पीस खाय संसार। 


भाव यह है बाहर का कर्म काण्ड महत्वपूर्ण नहीं है। भक्ति में भाव चाहिए। अगर इसमें भाव नहीं 

है तो परमात्मा नहीं मिलेंगे। भाव से पूजा नहीं की जाती तो मूर्ती पूजा निस्सार है। 

3 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

वीरू भाई आपकी कुण्डली में इन दिनों अध्यात्म उच्च स्थान पर है -हम भी प्रवचन सुख उठा रहे हैं

दिगम्बर नासवा ने कहा…

इन दोहों को पढ़ना और फिर नए अर्थ में उनको खोजना ... प्रवचन की सार्थकता इसी में है ... जय हो ... राम राम जी ...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

कबीर के काव्य की गहराई में डूबना हरएक के बस की बात नहीं -'जो घर जारै आपनो सो चले हमारे साथ'!