मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

जिसे हम आत्म प्रताड़ना समझ रहे हैं क्या ये आत्मा की बीमारी है ?आत्मा बीमार है हमारी या मन ?

जिसे हम आत्म प्रताड़ना समझ रहे हैं 


क्या ये आत्मा की बीमारी है ?आत्मा बीमार है हमारी 

या मन ?

आत्मा तो परमात्मा का अंश है इसलिए वह निरंतर दिव्य है सनातन काल से। दिक्कत यह है आत्मा अपने को शरीर ,मन और बुद्धि से बूझ रही है ,मन बुद्धि और काया को ही अपनी पहचान माने बैठी है। इसलिए मन के विक्षोभ को आत्मा अपना विक्षोभ समझ बैठती है। ऐसे में सपने में भी अगर आप किसी पीड़ा से गुज़रते हैं तो उसे भी सच मान लेते हैं जब तक कि आपकी आँख  खुल न जाए।

ठीक इसी प्रकार हमारी दिव्य आत्मा  मन की हताशा की भोगना को भोगने लगती है। वजह इसकी खुद को शरीर (भौतिक ऊर्जा की एक अवस्था मात्र )मान लेना है। प्रताड़ित मन होता है आत्मा तो उस पीड़ा की तदानुभूति करती है मन की उस स्थिति से ही असर ग्रस्त होती है। मन निर्मल हो जाए तब साफ़ साफ़ पता चले  ये तो मेरा मन है मैं मन नहीं हूँ। ये मेरा शरीर है मैं शरीर नहीं हूँ। ये मेरा घर है मैं घर नहीं हूँ। 


तब यह दुविधा ये द्वैत अपने आप चला जाएगा। इसलिए हमारी कोशिश निरंतर मन की मैल हटाना होनी चाहिए। विक्षुब्ध मन आत्मा को भी अपनी चपेट में ले लेता है। माया मोह भौतिक साधनों के  पचड़े में पड़े लोग भी ऐसा मानते हैं। इसीलिए आत्मा अपने मूल स्वभाव को प्राप्त करने के लिए छटपटाती है। 

जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारा मन माया(Material energy ) की सृष्टि है। और माया (भौतिक ऊर्जा के रूप में भी )परमात्मा की शक्ति है हम इससे पार नहीं पा सकते।परमात्मा की कृपा से ही  माया की गिरिफ्त से मन बाहर आयेगा। सेल्फ हेल्प बुक्स बांचने से नहीं। 

इसलिए परमात्म प्रेम और ईश्वर भक्ति ही सहज सरल उपाय है मन को मांजने का। सभी वैदिक ग्रंथों ,धर्मों का यही सार है। भगवदगीता में स्वयं भगवान् कृष्ण कहते हैं -माया के सत्व ,राजस (रजस )और  तमस तीन गुण हैं। ये तीनों ही गुण मन को भी घेरे रहते हैं। जिस भी गुण से  ये मन आकृष्ठ होता है  बाहरी वस्तु या अपने आसपास के परिवेश को देखकर मन की आसक्ति उसी गुण में हो जाती है। 

परमात्मा इन तीनों गुणों से परे है इसीलिए उसे गुणातीत कहा गया है। वह सदैव ही परम पावन है इसीलिए जब भी हमारा मन उससे लगता है  उसकी रौ में बहता है ये मन भी उसके संग के असर से पावन हो जाता है गुणातीत हो जाता है। रामायण(रामचरित मानस को ही जन मानस में रामायण कहा जाने लगा है ) कहती है :

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ,अभिअन्तर मल कबहुँ न जाई। 

उसके प्रेम जल से जब तक हम मन का धावन नहीं करेंगे ,धोना -मांजना नहीं करेंगे मन की मैल नहीं उतरेगी। जब तक मैल नहीं उतरेगी मन यूं ही हताश होता रहेगा ,प्रताड़ित होता रहेगा। दंश आत्मा भी भुक्तेगी। 

भागवतम में कहा गया है :

धर्म : सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ,

मद्भक्त्यापेत्मात्मानं न सम्यक प्रपुनाती हि (श्रीमद भागवतम ११. १४.२२   )

भले हम उचित व्यवहार की आचार संहिता को पूर्णरूप से अपना लें ,लाख संयम रख  लें ,गुह्य से गुह्य   विद्या सीख लें लेकिन भक्ति के बिना कुछ होने वाला नहीं है मन की मैल नहीं उतरेगी भक्ति बिना।   

6 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

राग द्वेष की परत चढ़ी है, अन्तः निर्मल

Arvind Mishra ने कहा…

बढियां , कभी गुण गुणों में ही बरतते हैं इसकी व्याख्या हो जाय !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आत्मा तो सदा निर्मल है है ये मन ही बेईमान है, बहुत सुंदर.

रामराम.

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

क्या बात!

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-

Neeraj Neer ने कहा…

आदरणीय बहुत ही सरल शब्दों में आप अद्वैत के भावों को एवं भगवत के उपदेशों को अपने लेखों में समाहित करते हैं, आपका कार्य श्लाघ्य है . मैं चाहता हूँ कि आप इसे करते रहें ..